मैं तो ओढ चुनरिया - 46 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 46

 

46


चाचाजी की शादी सुख शांति से निपट गई और लगे हाथ मेरा भाग्य भी लिखा गया । जिंदगी फिर से अपनी रफ्तार से चलने लगी थी । माँ भी अब धीरे धीरे सामान्य हो रही थी पर अब उनके सुर बदल गये थे । वे हर समय इस चिंता में रहती कि इतने बङे परिवार की मिलाई के इतने सारे कपङों का जुगाङ कैसे किया जाएगा । पिताजी तो पहले की तरह मस्त रहते पर चौबीस घंटे माँ चिंता में लीन रहती । हर आए गए के सामने एक ही बात । लङके के एक नानी , चार मामा चार मामी , एक बुआ , सात भाई , माँ बाप , दो तीन बहने , दो जीजा , तीन भाभी , सात भतीजे भतीजी और भी पता नहीं कितने रिश्तेदार होंगे । रानी के कपङों से ज्यादा तो उनके कपङे हो जाएंगे । कैसे पूरा पटेगा ।
हमें आए अभी दस दिन ही हुए होंगे कि एक दिन एक चिट्ठी आ पहुँची । चिट्ठी अंग्रेजी में थी और भाई के नाम । भाई तब नौ साल का था और तीसरी या चौथी कक्षा में पढता था । अभी हिंदी ही ढंग से पढ नहीं पाता था । अंग्रेजी क्या पढता । बङा औपचारिक सा खत था । वह भी मात्र सात लाईन का । तुम लोग ठीक से पहुँच गए होंगे । सफर में कोई तकलीफ नहीं हुई होगी । पढाई मन लगा कर करना । अंत में माताजी और पिताजी को नमस्ते और बाकियों को भी नमस्ते । पढ कर बहुत गुस्सा आया । ये हम बाकी हो गये । इतनी बङी नमस्ते भेज दी बाकियों के लिए । जैसे घर में एक हजार बाकी रहते हैं । हुंअ ...।
माँ और पिताजी ने वह चिट्ठी पढी । भाई ने दो बार पढवा कर सुनी । अब एक समस्या थी । भाई को खत लिखना नहीं आता था । पिताजी सिर्फ उर्दू में खत लिखते थे जो हमारी पीढी में किसी को भी पढना नहीं आता था तो वह खत बिना जवाब दिए ही इधर उधर भटकता रहा । करीब बीस दिन बाद फिर उसी तरह की एक और चिट्ठी आ पहुँची । ऐन पहले वाले पत्र की भाषा । वही सात आठ पंक्तियां और वही बाकियों को हाथ जोङ कर नमस्ते । लगता है पहली वाली चिट्ठी ही साइक्लोस्टाइल करवा कर रख ली थी और अब भेज दी थी । पिताजी पूरे निहाल । देखा कितना संस्कारी लङका है । आगे से होकर चिट्ठी लिखता है । तुम लोगों ने पहली चिट्ठी का जवाब नहीं दिया फिर भी एक और चिट्ठी लिख दी और चिट्ठी भी एकदम साफ सुथरी भाषा में । एक भी बात फालतू नहीं । माँ ने पिताजी की बात की कोई प्रतिक्रया नहीं दी । सिर झुकाए काम में व्यस्त होने या लगने की कोशिश करती रही ।
.इस बीच करीब एक महीने बाद मामा एक दिन माल गाङी लेकर बठिंडा जंक्शन गए । बठिंडा उनका रैस्ट स्टेशन था । बठिंडा से आगे फिरोजपुर तक एक और ड्राइवर गाङी लेकर जाने वाला था । वापसी पर फिर मामा जी ने वही गाङी बटिंडा से सहारनपुर लेकर आनी थी । मामा जी ने उस ड्राइवर से बात की कि मुझे किसी काम से कोटकपूरा जाना है । तुम्हारे साथ ही चलता हूँ । वापसी पर मुझे कोटकपूरा से ही ले लेना । स्टाफ को भला क्या ऐतराज होता । वे मान गए । इस तरह मामा उसी गाङी से कोटकपूरा पहुँच गए । कोटकपूरा में मामा को स्टेशन पर उतार कर रेल फिरोजपुर बढ गई । मामा स्टेशन से बाहर निकले । दो दर्जन केले खरीदे और पैदल ही चल पङे । फूफा जी तब लङकों वाले सरकारी स्कूल में पढाते थे तो मामा जी स्कूल में जाकर उनसे मिले । फूफा जी ने तुरंत छुट्टी की अर्जी लिखी और उन्हें लेकर घर आए । बुआ जी भी मामा को देख कर खुश हो गई । मामाजी ने उन्हें यही बताया कि वे मालगाङी लेकर फिरोजपुर जा रहे थे । रास्ते में बिना मिले जाने का मन नहीं हुआ तो यहाँ उतर गया । वापसी पर उसी गाङी से वापस लौटना है । तीन घंटे में गाङी लौट आएगी । तीन घंटे में से करीब एक घंटा तो बीत चुका था , अब सिर्फ दो घंटे बाकी थे । उन्होंने मामा जी को रोटी खिलाई । मामा जी ने रोटी खाकर धीरे से कहा कि यहाँ आया हूँ तो उन लोगों से भी मिलना चाहता हूँ । सौभाग्य से उस दिन शनिवार का दिन था इसलिए सरकारी दफ्तर बंद थे और ये उस दिन घर पर ही थे । फूफा जी ने आवाज लगा कर इन्हें पुकार लिया । मामाजी ने इनसे थोङी देर बात की । फिर बाकी लोगों से मिलने की इच्छा जताई । उन लोगों से मिल कर मामा लौट आए ।
अगले दिन मामा हमसे मिलने आए । वे बहुत खुश दिखाई नहीं दिए । माँ ने उनकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा – हाँ मैं गया था कोटकपूरा । रात ही वापस आया हूँ । बहन लङका तो ठीक है । सीधा है । समझदार है । नरम है । बाकी पढा लिखा और सरकारी नौकर तो है ही पर घर का तो बुरा हाल है । बहनजी किसी बच्चे पर चीख रही थी । ढंग के कप भी नहीं थे चाय के । पूरा घर कच्चा है । दूर तो है ही । बाकी लङका कह रहा था कि अगले महीने कमेटी उठा रहा है । फिर एक कमरा और गुसलखाना बनवाएगा । इस सब में करीब सात आठ महीने लग सकते हैं फिर शादी करवाएगा । पिताजी ने कहा – मैंने तो सिर्फ लङका देखा है । नहीं निभेगी तो बदली करवा लेंगे । पटियाला राजपुरा तक बदली हो सकती है या चंडीगढ करवा लेंगे । फिर तो ये पास हो जाएंगे न । राजपुरा तो तीन ही घंटे का रास्ता है और पटियाला ज्यादा से ज्यादा चार घंटे लगेंगे । सारी जिंदगी कौन परिवार के साथ रहता है । एक न एक दिन तो सब अलग होते ही हैं ।
इसके बाद मामा कुछ नहीं बोले । मेरा मन भी दुविधा में पङ गया । लङका तो अच्छा है पर घर परिवार के बाकी लोग । उनके साथ रहना पङेगा । वह भी कच्चे घर में । खैर फूफा जी की चिट्ठियां आती रहती । आज नींव रखी है । आज छत डली है । आज दीवारों पर पलस्तर हो रहा है । अब फर्श लगना बाकी है फिर लकङी वाला मिस्त्री लगेगा । अलमारियां बनेगी । पानी के कनैक्शन का फार्म भर दिया है वगैरा वगैरा । इनका खत महीने में एक बार तो आ ही जाता । वही सात आठ लाईनें और वही बाकियों को नमस्ते । इस बीच मैंने चार चादर , तीन शाल, तीन साडियां कढाई करके तैयार कर ली थी । घर में एक लोहे का बढा संदूक माँ ने खरीद कर रख लिया ।हर महीने कुछ न कुछ बचत करके खरीद कर उसमें रखती जाती । इस बीच पिताजी एक दो बार कोटकपूरा जा आए थे । इन्होंने पिताजी से कहा कि उसे बी एड करवा दीजिए । बी एड तब दस महीने की होती थी पर सहारनपुर में एकमात्र जैन कालेज था जिसमें बी एड की पढाई होती थी और यह हमारे घर से करीब दस किलोमीटर से कम क्या होगा । माँ इस बार अड गई । कोई बी एड नहीं करवानी हमने । बी ए पास लङकी दे रहे हैं । यह क्या कम है । उन अंगूठाटेक लोगों में इतना पढा लिखा कौन है । पिताजी ने मेरी राय पूछी । मैं माँ का विरोध देख कर कह बैठी – पिताजी मुझे एम ए करनी है । पिताजी ने अपने दोस्तों से भी सलाह की और इस तरह मैंने प्राइवेट एम ए राजनीति शास्त्र का दाखिला भर दिया । पिताजी ने खत लिख कर सूचना भेजी कि आपसे बात से पहले हम एम ए का दाखिला भर चुके थे इसलिए बी एड तो इस साल नहीं हो सकेगी ।

 


बाकी फिर