प्रेम गली अति साँकरी - 86 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 86

86---

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मुझे उत्पल में कभी पापा की झलक दिखाई दे जाती जो मुझे प्रभावित करती | पापा का वह रोमांटिक मूड मुझे अक्सर याद आ जाता था जब वे अम्मा को छेड़ा करते थे | सपनों की तरह भागती है ज़िंदगी, वे सपने जो मुझे तो कभी आते ही नहीं थे | अब मैं सपनों को खोजने लगी थी या फिर सपने मुझे, पता ही नहीं चलता | यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि बेटी पिता के व्यक्तित्व से प्रभावित होती है और अधिक लाड़ली रहती है तो बेटा माँ की ओर अधिक आकर्षित रहता है | यह मनोविज्ञान कहता है, हम सभी तो इस सत्य से परिचित हैं | 

गेट से अंदर अम्मा को फ़ोन कर दिया था, उन्हें पता था कि हम गेस्टरूम्स में फ़्रेश होकर ही अंदर जाएंगे | हमें साथ ही लंच करना था इसलिए हमारा इंतज़ार भी हो रहा था | अम्मा ने कहा जल्दी फ़्रेश होकर अंदर पहुँचें, सबको भूख लग रही थी | 

हम दोनों अलग-अलग गेस्टरूम्स में चले गए और दरवाज़े बंद कर लिए | अचानक ही अजीब सी अनुभूति हुई जैसे मुझे कुछ अजीब सा महसूस होने लगा | क्या हो रहा था? मैं कमरे में रखे सोफ़े पर बैठ गई लेकिन बेचैनी बढ़ने लगी | लगा, शायद अस्पताल की अजीब सी गंध दिमाग में चढ़ गई है | 

मैं वैसे अभी तक तो ठीक ही थी, अचानक महसूस हुआ जैसे चक्कर आ रहे हैं | सोचा, नहाना जरूरी था और जल्दी से सोफ़े से उठकर बाथरूम में जाकर सीधे शॉवर खोलकर खड़ी हो गई | शैंपू बालों में लगाकर मैं काफ़ी देर तक शॉवर के नीचे खड़ी रही लेकिन चक्कर थे कि बढ़ते ही जा रहे थे | अब मुझे कुछ घबराहट सी महसूस होने लगी | मैं डर भी रही थी कि कहीं बाथरूम में ही गिर न जाऊँ!

मैंने गीले शरीर को गाउन से लपेट लिया। इतनी हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि मैं सलीके से कपड़े पहन लूँ | मेरा टॉवल वाला गाउन बाथरूम में लटका था जैसी मेरी आदत थी मैं टॉवल-गाउन को लपेटकर ही बाथरूम से अपने कमरे में आकर ठीक तरीके से तैयार होती थी | मेरे कमरे के अटैच्ड बाथरूम में पूरा ड्रेसिंग स्पेस था जिस पर कार्पेट बिछा था | वहाँ कपड़ों के गीला होने का डर नहीं था और बड़े से शीशे के सामने सब मेरी ज़रूरत के सामान सजे रहते थे फिर भी मैं कमरे में आकर अपनी ड्रेसिंग-टेबल पर ही तैयार होती थी | लेकिन यहाँ तो ऐसा नहीं था | अगर ढंग से न पहन पाई तो----चक्कर खाते हुए दिमाग में कहीं यह भी चल ही रहा होगा इसलिए मैंने अपना बाथ-गाउन लपेटा और कमरे में आ गई | वह अतिथि-गृह के कमरे थे और वहाँ काफ़ी सुविधाएं बनवा दी गईं थीं | 

मैंने सोचा कि मुझे कमरे में जाकर पहले दरवाज़ा खोल देना चाहिए लेकिन मैं दरवाजे तक पहुँचने से पहले ही पलंग पर ऐसे गिर पड़ी जैसे कोई पेड़ की डाली टूटकर अचानक गिर पड़ी हो | मुझे पता चल रहा था कि क्या हो रहा था लेकिन मेरे मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी और आँखें भी नहीं खुल रही थीं | हाँ, मैं जानती थी कि मैं पलंग पर हूँ और अंदर से दरवाज़ा बंद था | 

मुझे पता ही नहीं चला मैं कब इतनी गहरी बेहोशी में चली गई | मैं किसी दूसरे ही लोक में जा चुकी थी, लेकिन कुछ अजीब सी आवाज़ें और दरवाज़ा ज़ोर-ज़ोर से बजाने की आवाज़ें जैसे कहीं बहुत दूर से मुझे भीतर से उद्वेलित कर रही थीं | मैं अवश थी और दरवाज़ा खोलने की स्थिति में नहीं थी | 

महसूस कर पा रही थी कि कुछ लोगों की आवाज़ें मेरे भीतर पहुँच रही थीं लेकिन अपने आपे में न रह पाने के कारण अर्धमृतावस्था में पलंग पर पड़ी रह गई | आवाज़ें धीरे-धीरे बंद होती जा रही थीं और मेरा मस्तिष्क बिलकुल ही शून्य!

कुछ देर बाद मुझे महसूस हुआ जैसे मुझे कोई अपने कंधे पर उठाकर चल रहा है | कुछ सेकेंड्स के लिए मेरी मिचमिची आँखें खुलीं, मैंने अपने आपको किसी मजबूत जकड़ में कैद महसूस किया और फिर से पल भर में उसी कंधे पर मेरा शिथिल सिर टिक गया जिस पर वह पहले से टिका था | मैं किसी पहचानी पुरुष गंध को अपने बहुत समीप महसूस कर रही थी जो मुझे अपनी सी लग रही थी और ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मुझे कंधे पर लेकर चलने वाले के पीछे शायद कई जोड़ी पैरों की आवाज़ें थीं | 

मालूम नहीं, जाने कितनी देर में मेरी आँखें खुलीं और मैंने अपने आपको अपने कमरे में पाया | मेरा शरीर उसी बाथ गाउन में लिपटा था जो मैंने शॉवर के बाद अपने शरीर पर लपेट लिया था | अम्मा-पापा मुझे ताकते हुए सोफ़े पर बैठे थे, उनके चेहरों पर चिंता की लकीरें स्पष्ट चुगली कहा रही थीं रतनी और शीला दीदी मेरे पलंग के दूसरी ओर थे और मेरी आँखों के ठीक सामने, मेरी प्यारी खिड़की पर उत्पल था जिसके दूसरी ओर हमारे फैमिली डॉक्टर वर्धन बैठे थे | सबके चेहरों ओर जैसे सन्नाटा पसरा हुआ था | 

मैंने अपने दाहिने हाथ से बाईं बाँह के ऊपरी भाग को सहलाया जहाँ मुझे हल्का सा दर्द हो रहा था | शायद मुझे इंजैक्शन दिया गया था | टीककारण के बाद ---क्यों? दिमाग अब कुछ खुलने स लगा था | स्थिति को समझने की कोशिश में मेरी आँखें बंद-खुल रही थीं | 

“हैलो अमी ---व्हाट्स अप---?”डॉक्टर वर्धन के साथ उत्पल भी मेरे पलंग के पास आ चुका था और चिंता से भरा उसका चेहरा मुझे बेचारा सा लग रहा था | 

“क्या हुआ है मुझे डॉक्टर---?”थोड़ी सी कोशिश में ही मेरे मुँह से आवाज़ निकल गई और मुझे याद आया कि मैं कैसे बाथरूम में से आकर कमरे का दरवाज़ा खोलने जा रही थी लेकिन खोल नहीं सकी थी और पलंग पर गिर पड़ी थी | उसके बाद जैसे कोई कुछ ऐसा था जैसे किसी पुरानी फ़िल्म की घिसी हुई तस्वीर हो जो फ़िल्म तो थी लेकिन स्पष्ट नहीं थी | आवाज़ें तो थीं लेकिन घिसी हुई ऐसी आवाज़ें थीं जो कहीं बहुत दूर से आ रही थीं | बस, एक मोहक गंध थी जिसने मुझे बाँध लिया था और जिसे मैं खुद के भीतर तक महसूस कर रही थी | 

“कुछ नहीं अमी, तुम पर टीके का थोड़ा असर हुआ था | नथिग सीरियस---वैसे कोविड के टीके से किसी को कोई खास गलत प्रभाव नहीं होता लेकिन लगता है तुम ज़रूरत से ज़्यादा सीरियस होकर इसके बारे में सोचती रही हो इसलिए----”

डॉक्टर वर्धन सालों से हमारे फैमिली डॉक्टर तो थे ही फैमिली फ्रैंड भी थे इसलिए भाषण देने का उनका अधिकार था | 

“हो जाता है किसी किसी को ---”उन्होंने मेरे कंधे थपथपाए और अम्मा–पापा से कहा कि वे चिंता न करें | 

“तो मेरे इंजैक्शन क्यों लगाया आपने?” नैन कहाँ उनको आसानी से छोड़ने वाली थी | 

“ज़रूरत थी, एंटी इंजैक्शन की---बाई डी वे दिस इज़ नॉट सब्जेक्ट, आराम करो | अभी घंटा भर में यू वुड बी एट द डाइनिंग टेबल---अपनी पसंद की डिश मज़े लेकर खा रही होगी | मैं चलता हूँ---“वे घर जाने के लिए जैसे उतावले थे | 

“यहीं लगवा लेता हूँ न, विल हैव टुगैदर---“अम्मा ने कहा | 

“मरवाएंगी?टेबल पर सब तबला बज रहे होंगे | बाय---बाय अमी—टॉक तू मई ऑन द टेलीफ़ोन | ”

चिंता ओढ़े हुए उत्पल डॉक्टर साहब को छोड़ने उनकी कार तक चल गया | 

“मैं ठीक हूँ अम्मा, आप लोग चलें, तैयार होकर आती हूँ---“

अम्मा-पापा मुझे छोड़कर जाना नहीं चाहते थे लेकिन शीला दीदी और रतनी ने कहा कि वे मेरे साथ हैं और मुझे लेकर आएंगी |