पौराणिक कथाये - 3 - छठ पर्व की पौराणिक कथा Devaki Ďěvjěěţ Singh द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • बैरी पिया.... - 53

    अब तक :प्रशांत बोले " क्या ये तुमने पहली बार बनाई है... ?? अ...

  • आडंबर

    ’मां कैसी लगीं? रेवती मेरे परिवार से आज पहली बार मिली...

  • नक़ल या अक्ल - 80

    80 दिल की बात   गोली की आवाज़ से नंदन और नन्हें ने सिर नीचे क...

  • तमस ज्योति - 57

    प्रकरण - ५७दिवाली का त्यौहार आया, ढेर सारी खुशियाँ लेकर आया।...

  • साथिया - 124

    तु मेरे पास है मेरे साथ है और इससे खूबसूरत कोई एहसास नही। आज...

श्रेणी
शेयर करे

पौराणिक कथाये - 3 - छठ पर्व की पौराणिक कथा

छठ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जाने वाला एक प्रमुख हिंदू त्योहार है। लगभग सभी सभ्यताओं में 'सूर्य देवता' की पूजा का एक पर्व है, लेकिन बिहार में इसका एक अनूठा रूप है। छठ पर्व एकमात्र ऐसा अवसर है जहां उगते सूर्य के साथ-साथ अस्त होते हुए सूर्य की भी पूजा की जाती है।

छठ पर्व कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है।

इस पर्व पर भगवान सूर्य की उपासना करते हैं और उन्हें अर्ध्य देते हैं।

इस पर्व को डाला छठ भी कहा जाता है क्योंकि डलिया में प्रसाद सजाकर, पानी में खड़े होकर सूर्य देव को अर्ध्य दिया जाता है ।

इस पूजन में शरीर और मन को साधना पड़ता है इसलिए इसे हठयोग भी कहते हैं।

छठ को छठी मैया भी कहा जाता है। यह षष्ठी तिथि की स्वामिनी है और ब्रह्म की मानस पुत्री हैं। भगवान सूर्य की बहन होने की वजह से छठी मैया के साथ भगवान सूर्य की पूजा-अर्चना की जाती है।

छठ व्रत के उपलक्ष में कई कथाएं प्रचलित हैं-

माता सीता ने भी की थी सूर्यदेव की पूजा

एक मान्यता के अनुसार, जब राम-सीता 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तब रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। इससे सीता ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।

महाभारत काल से हुई थी छठ पर्व की शुरुआत

हिंदू मान्यता के मुताबिक, कथा प्रचलित है कि छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल से हुई थी। इस पर्व को सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके शुरू किया था। कहा जाता है कि कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों तक पानी में खड़े होकर उन्हें अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।

द्रोपदी ने भी रखा था छठ व्रत

छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस किवदंती के मुताबिक, जब पांडव सारा राजपाठ जुए में हार गए, तब द्रोपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को सब कुछ वापस मिल गया।

लोक परंपरा के अनुसार, सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई।

इन कथाओं के अलावा एक और किवदंती भी प्रचलित है।

पुराणों के अनुसार, प्रियव्रत नामक एक राजा की कोई संतान नहीं थी। इसके लिए उसने हर जतन कर कर डाले, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब उस राजा को संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने उसे पुत्रयेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया। यज्ञ के बाद महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन वह मरा पैदा हुआ। राजा के मृत बच्चे की सूचना से पूरे नगर में शोक छा गया। कहा जाता है कि जब राजा मृत बच्चे को दफनाने की तैयारी कर रहे थे, तभी आसमान से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा। इसमें बैठी देवी ने कहा, 'मैं षष्ठी देवी और विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं।' इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर को स्पर्श किया, जिससे वह जीवित हो उठा। इसके बाद से ही राजा ने अपने राज्य में यह त्योहार मनाने की घोषणा कर दी।


छठ का पर्व चार दिनों तक बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।


पहला दिन-

नहाय खाय - यह कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से शुरू होता है। इस दिन सूर्य उदय के पूर्व नहा धोकर सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। फिर खाना बनाया जाता है। साफ़ सफाई का ध्यान रखा जाता है। इस दिन से चार दिनों तक लहसून, प्याज,मांस, मदिरापान वर्जित रहता है। इस दिन खाने में चने की दाल और कद्दू (लौकी)की सब्जी,और इनसे बनी और दूसरी चीज़ें भी खाई जाती हैं ।

दूसरा दिन-

लोहडा और खरना- यह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन पूरे दिन उपवास रहता है। शाम को सूर्य अस्त होने से पहले नहा धोकर डूबते सूर्य को जल दिया जाता है और रात को खीरनी बना कर खाई जाती हैं और सबको प्रसाद स्वरूप बांटी जाती हैं।

तीसरा दिन -

संध्या अर्ध्य - यह कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है।इस दिन शाम को डाला (टोकरी फल फूल से सजी हुई) सर पर रख कर गीत गाते हुए नदी या तालाब के किनारे जाते हैं। इस दिन शाम के समय डूबते सूर्य की पूजा-अर्चना ( डाला सजाकर)की जाती हैं और सूर्य को जल चढ़ाया जाता है ।इस दिन व्रत धारी नए वस्त्र धारण करता है और जमीन पर चट्टाई या कंबल बिछाकर सोता है।

चौथा दिन -

यह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मनाया जाता है ।इस दिन सूर्योदय से पहले घाट(नदी)पर गीत गाते हुए जाते हैं। सूर्योदय से पहले कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य देव की आराधना करते हैं। सूर्य उदय होते ही सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है पूजा-अर्चना की जाती हैं। इस दिन सूर्य देव को लड्डू का भोग लगाया जाता है। उसके उपरांत प्रसाद वितरण किया जाता है।

यह पर्व व्रत धारी संतान प्राप्ति, परिवार के खुशहाली, अच्छे स्वास्थ्य, सुख समृद्धि के लिए करता है।

इस पर्व में स्त्री पुरुष दोनों बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

षष्ठी के दिन नदी किनारे भारी मेला लगता है। पूरा घाट रोशनी से दिपावली की तरह जगमगाता है ।इस दिन घाट पर भारी भीड़ रहती हैं। बच्चे दिपावली की तरह खूब पटाखे चलाते हैं ,और मौज मस्ती करते हैं।

यह पर्व पूरे बिहार के साथ अन्य राज्यों और विदेशों में भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है l

यह पर्व स्नेह, भाइचारे का प्रतीक है।