कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(५७) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(५७)

गिरिराज और धंसिका सरोवर तक पहुँचे और दोनों रथ से उतरने लगे तो धंसिका गिरिराज से बोली....
"सेनापति! कृपया!आप रथ पर ही विराजमान रहें,केवल मैं ही पुष्प चुनने जाऊँगी",
"किन्तु! धंसिका ! मैं भी तुम्हारे संग पुष्प चुनने हेतु जाना चाहता हूँ",गिरिराज बोला...
"कृपया! आप इस कार्य हेतु कष्ट ना उठाएं,आपको पुष्पों की पहचान भी तो नहीं है कि कैसें पुष्प इत्र बनाने योग्य होते हैं,इसलिए आप यहीं ठहरें",
ऐसा कहकर धंसिका रथ से उतरी और सरोवर के समीप गई,इसके पश्चात वो सरोवर के तट से लगी हुई नाव पर जाकर उसे खेते हुए कमल के पुष्प चुनने लगी,वो पुष्प चुन रही थी और गिरिराज की दृष्टि उसी पर थी,धंसिका के सुन्दर घने केश जो कि खुले हुए थे, वें हवा के झोंके से धंसिका के मुँख पर आ जाते तो वो उन्हें हटाने का प्रयास करती,उसके चपल नयन,गुलाब समान अधर और छरहरी काया किसी के भी मन का चैन उड़ा सकती थी और यही गिरिराज के संग हो रहा था, गिरिराज मन ही मन धंसिका को अपनी पत्नी बनाने का स्वप्न देख रहा था.....
इधर धंसिका नाव में बैठकर पुष्प चुन रही थी और उधर गिरिराज का हृदय धंसिका को देख देखकर व्याकुल हुआ जा रहा था,गिरिराज अपने मन में सोच रहा था कि एक साधारण से परिवार की कन्या और इतनी सुन्दर ,उस पर इतनी सौम्य,मृदुभाषी,शीलवती कहा जाए तो सर्वगुण सम्पन्न,इसे तो मैं अवश्य अपनी पत्नी बनाकर रहूँगा,कुछ समय पश्चात धंसिका ने पुष्प चुन लिए एवं वो नाव से उतर कर एक टोकरी में कमल के पुष्प लेकर वो रथ पर आ गई और दोनों नगर की ओर चल पड़े,गिरिराज ने धंसिका को उसके घर पर छोड़ा और अपने घर आ गया....
गिरिराज अपने बिछौने पर लेटा विश्राम कर रहा था,तभी उसकी माता चन्द्रकला देवी उसके समीप आकर बोलीं....
"क्या बात है पुत्र! तुम इतने चिन्तित क्यों दिखाई दे रहे हो",
"माता! अब मैं आपको कैसें बताऊँ"?,गिरिराज बोला...
"मुझे नहीं बताओगे तो किसे बताओगे पुत्र! अब तो तुम्हारे पिता भी जीवित नहीं है,जो तुम उनसे अपने विचार प्रकट कर सको",चन्द्रकला देवी बोलीं...
"माता! एक बात कहना चाहता हूँ आपसे",गिरिराज बोला...
"हाँ! कहो पुत्र! कि क्या बात है",?,चन्द्रकला देवी ने पूछा...
"माता! मुझे एक इत्र विक्रेता की कन्या पसंद आ गई है",गिरिराज बोला...
"और तुम उससे विवाह करना चाहते हो",चन्द्रकला देवी बोली...
"हाँ! माता! मैं यही चाहता हूँ",गिरिराज बोला...
"तो मुझे तुम उनके पास ले चलो,मैं अभी उस कन्या से तुम्हारे सम्बन्ध की बात करती हूँ",चन्द्रकला देवी बोली...
"माता! मैं अभी कुछ समय और चाहता हूँ इस सम्बन्ध के लिए,कोई आवश्यक कार्य है जिसे समाप्त करने के पश्चात ही मैं ये विवाह कर सकता हूँ",गिरिराज बोला....
"किन्तु! मैं चाहती हूँ कि तुम्हारा विवाह शीघ्र ही हो जाएँ,पुत्रवधू आ जाएगी तो मुझे तुम्हारी चिन्ता से कुछ तो मुक्ति मिलेगी",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"यदि आपकी यही मनसा है तो आप मेरा सम्बन्ध वहाँ कर दीजिए और विवाह मैं कुछ समय के पश्चात कर लूँगा",गिरिराज बोला...
"हाँ! यही उचित रहेगा",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"तो मैं आपको कल ही उनके घर ले चलता हूँ,आप कन्या को देख लीजिए,यदि आपको कन्या पसंद आ जाती है तो आप सम्बन्ध पक्का कर दीजिएगा",गिरिराज बोला....
"तो ठीक है मैं आज ही स्वर्णकार के पास जाकर कन्या के लिए मुद्रिका(अँगूठी),पैजनी(पायल) और कुछ वस्त्र ले आती हूँ,कन्या के घर जाऐगें तो उसके लिए कुछ उपहार भी तो ले जाने चाहिए",चन्द्रकला देवी बोलीं...
"माँ! जो आपका मन करे तो ले लीजिए,मुझे इस विषय में कोई जानकारी नहीं है",गिरिराज बोला....
और माता पुत्र दोनों के मध्य यूँ ही वार्तालाप होता रहा है एवं उसका ये निष्कर्ष निकला कि वें दोनों कल ही जाकर ये सम्बन्ध पक्का करके आऐगें,दूसरे दिवस चन्द्रकला देवी जब गिरिराज के संग धंसिका के निवास स्थान पहुँची तो उन्हें भी धंसिका पहली ही दृष्टि में पसंद आ गई,उस पर धंसिका सुन्दर होने के साथ साथ गृहस्थी के कार्यों में भी निपुण थी,उसे इत्रो के विषय में भी विशेष जानकारी थी और मुख्य बात ये थी कि गिरिराज उससे प्रेम करने लगा था,इस सम्बन्ध हेतु बिलम्ब ना करते हुए चन्द्रकला देवी ने शीघ्र ही ये सम्बन्ध तय कर दिया,इस सम्बन्ध से गिरिराज अत्यन्त प्रसन्न था उधर धंसिका भी अत्यधिक प्रसन्न थी क्योंकि धंसिका को तो ऐसा प्रतीत होता था कि गिरिराज अत्यन्त ही सुशील एवं चरित्रवान व्यक्ति है,उस पर वो राज्य का सेनापति भी था,उसे अब तक गिरिराज से वार्तालाप करते समय उस में कोई भी दुर्गुण दिखाई ना दिए थे, इसलिए धंसिका के माता पिता ने भी इस सम्बन्ध हेतु कोई भी आपत्ति ना जताई.....
जब गिरिराज का सम्बन्ध धंसिका से हो गया तो ये बात धीरे धीरे सभी स्थानों पर विसरित होने लगी और उड़ते उड़ते ये बात वहाँ के राजा की तीसरी रानी रुपश्री तक पहुँची,इस बात को सुनकर रुपश्री के क्रोध का ज्वालामुखी फूट पड़ा और जब रात्रि के समय गिरिराज उसके कक्ष में उससे मिलने आया तो वो उससे रुठते हुए बोली....
"यहाँ क्या करने आए हो? अब तो तुम्हारा सम्बन्ध तय हो गया है तो तुम अपनी होने वाली पत्नी के पास जाओ",
ये सुनकर गिरिराज केवल इतना बोला....
" कदाचित आपको मुझे समझने में कोई भूल हो रही है रानी रुपश्री!",
"भूल.....नहीं ये मेरी भूल नहीं हो सकती गिरिराज!,सारा राज्य जानता है कि तुम्हारा सम्बन्ध तय हो चुका है", रुपश्री बोली....
"मेरा सम्बन्ध अवश्य तय हो चुका है किन्तु मेरी इच्छा के विरुद्घ रानी रुपश्री!",गिरिराज दुखी होकर बोला...
"तुम्हारी इच्छा के विरुद्घ! भला इसका क्या तात्पर्य हो सकता है"?,रुपश्री ने पूछा....
"वो तो मेरी माता ने ये सम्बन्ध तय किया है,कन्या की माता मेरी माता की सखी है,इसलिए उन्होंने कभी अपनी सखी को वचन दिया था कि यदि मेरे पुत्र हुआ तो तुम्हारी पुत्री ही मेरी पुत्रवधू बनेगी और माता ने अपना वचन निभाने हेतु ये सम्बन्ध तय कर दिया", गिरिराज बोला...
"तुम सच कह रहे हो ना!",रुपश्री ने पूछा...
"हाँ! मैं आपकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं आपसे प्रेम करता हूँ और ये विवाह नहीं करना चाहता है,मैं अपना सारा जीवन आपके संग बिताना चाहता हूँ रानी रुपश्री!",गिरिराज बोला...
"तो तुम ये विवाह नहीं करना चाहते",रुपश्री ने पूछा....
"हाँ! मैं ये विवाह नहीं करना चाहता,इसलिए तो आपके पास आया हूँ,मेरे पास एक योजना है जिससे ये विवाह भी नहीं होगा और इस समूचे राज्य पर केवल आपका आधिपत्य भी हो जाएगा",गिरिराज बोला....
"ऐसी क्या योजना है भला"?,रुपश्री ने पूछा.....
और गिरिराज ने अपनी सारी योजना रुपश्री को सुनाई और रुपश्री इस योजना को समर्थन देने हेतु तत्पर भी हो गई,उसे ज्ञात था कि जब तक राजा और उसके पुत्र जीवित हैं तो वो गिरिराज के संग विवाह नहीं कर सकती और यदि उसने गिरिराज की योजना में उसका साथ नहीं दिया तो गिरिराज उस कन्या के संग विवाह कर लेगा और गिरिराज सदैव के लिए उससे दूर हो जाएगा एवं वो गिरिराज को कभी भी अपने से दूर नहीं होने देना चाहती थी क्योंकि वो गिरिराज से अत्यधिक प्रेम करती थी....
तब योजना के अनुसार एक रात्रि रुपश्री ने अपने जन्मदिवस के अवसर पर स्वतः भोजन पकाया,उसने भोजन हेतु राजा,राजकुमारों,राजकुमारी और दोनों बड़ी रानियों को बुलाया,सभी को अपने हाथ से भोजन परोसा ,भोजन करने के पश्चात सभी एक एक करके मृत्यु को प्राप्त होने लगे क्योंकि उस भोजन में रुपश्री ने विषैले सर्प का विष मिलाया था जो उसे स्वयं गिरिराज ने लाकर दिया था,यही योजना थी गिरिराज की....
एकाएक राजमहल में शोक सा छा गया,राजा सहित राजपरिवार के एक साथ इतने शव देखकर प्रजा विद्रोही हो उठी और इस विद्रोह को समाप्त करने के लिए रुपश्री ने सेनापति गिरिराज का सहारा लिया,जो भी रूपश्री के विरुद्ध कुछ भी कहता तो सेनापति गिरिराज उसकी हत्या करवा देते,अपने प्राणों के जाने के भय से प्रजा ने अपना मुँख बंद करने में ही बुद्धिमानी समझी.....
अब रुपश्री और गिरिराज स्वतन्त्र थे,वे अब कुछ भी कर सकते थे,रुपश्री अत्यधिक प्रसन्न थी कि अब वो स्वतन्त्रतापूर्वक गिरिराज से विवाह कर सकती है,किन्तु ये उसका भ्रम था जो अधिक दिनों तक स्थिर ना रह सका क्योंकि गिरिराज के मन में तो कुछ और ही चल रहा था......

क्रमशः....
सरोज वर्मा....