कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(५८) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(५८)

अब गिरिराज के मस्तिष्क में कौन सा षणयन्त्र चल रहा था,ये रुपश्री को ज्ञात नहीं था,उधर गिरिराज धंसिका से भी अपना प्रेम प्रदर्शित कर रहा था और इधर रुपश्री से भी वो अपना झूठा प्रेम जताता रहता था, एक दिवस रुपश्री गिरिराज से बोली....
"गिरिराज! अब तो तुम स्वतन्त्र हो चुके हो तो अपनी माता से कह दो कि तुम उस इत्र विक्रेता की कन्या से विवाह नहीं करना चाहते",
"किन्तु रानी रुपश्री! मैं अभी उनसे ये सब नहीं कह सकता",गिरिराज बोला....
"किन्तु क्यों गिरिराज! क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करते",रानी रुपश्री ने पूछा....
"मैं आपसे अत्यधिक प्रेम करता हूँ रानी रुपश्री! किन्तु मैं विवाह ना करने की बात अपनी माता से नहीं कह सकता क्योंकि उन्हें मुझ पर संदेह हो जाएगा",गिरिराज बोला....
"किस बात का संदेह"?,रुपश्री ने पूछा....
"इस बात का संदेह कि कहीं मैं किसी और से प्रेम तो नहीं करता",गिरिराज बोला...
"तो तुम तुम्हारी माता को ज्ञात क्यों नहीं हो जाने देते कि तुम मुझसे प्रेम करते हो,तभी तो मेरा और तुम्हारा विवाह सम्भव हो पाएगा",रुपश्री बोली...
"ये बात अभी किसी को भी ज्ञात नहीं होनी चाहिए,नहीं तो प्रजा का संदेह पक्का हो जाएगा कि राजपरिवार के सदस्यों की हत्या मैंने और आपने दोनों ने मिलकर की है और ये हम दोनों के लिए उचित नहीं है",गिरिराज बोला...
"तो इससे क्या अन्तर पड़ने वाला है यदि प्रजा को ये सब ज्ञात हो जाएगा तो"?,रुपश्री क्रोधित होकर बोली....
"अन्तर ये पड़ेगा कि प्रजा विद्रोही हो जाएगी",गिरिराज बोला....
"प्रजा के विद्रोही होने पर क्या हो सकता है भला"?,रुपश्री ने पूछा...
"हमें ये राज्य छोड़कर कहीं और जाना पड़ सकता है,इसके पश्चात प्रजा अपना राजा स्वयं चुन लेगी और ये राज्य आपके हाथों से छिन जाएगा,क्या आप ऐसा चाहतीं हैं",गिरिराज बोला....
"नहीं! मैं ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती,ये राज्य मेरे हाथों से चला जाएगा तो मैं तो असहाय हो जाऊँगी", रुपश्री बोली....
"तभी तो जो मैं कह रहा हूँ आप वही कीजिए,मुझे थोड़ा समय दीजिए,विवाह तो मैं आपसे ही करूँगा और यदि आपने मुझसे इतने शीघ्र विवाह कर लिया तो प्रजा तो यही कहेगी ना कि अभी राजा को स्वर्ग सिधारे अधिक समय नहीं हुआ है और रानी ने सेनापति से विवाह कर लिया,कहीं कोईना कोई बात तो अवश्य है,तब प्रजा का संदेह बढ़ जाएगा",गिरिराज बोला....
"हाँ! ये तुम सही कह रहे हो गिरिराज"!,रुपश्री बोली....
"तो विवाह हेतु तनिक प्रतीक्षा करें,हम दोनों का विवाह अवश्य होकर रहेगा",गिरिराज बोला...
"मुझे तुम्हारी बात पर भरोसा है गिरिराज!",रुपश्री बोली...
"तो अब मैं चलता हूँ,माता मेरी प्रतीक्षा कर रहीं होगीं",गिरिराज बोला....
और रुपश्री ने उसे राजमहल से जाने की अनुमति दे दी, इसके पश्चात गिरिराज रुपश्री के पास से आ गया और वो सरोवर के किनारे पहुँचा जहाँ धंसिका उसकी प्रतीक्षा कर रही थी,वो धंसिका के समीप जाकर बोला....
"क्षमा करना धंसिका! मुझे तनिक बिलम्ब हो गया,तुम भलीभाँति समझ सकती हो,मैं राज्य का सेनापति हूँ तो राज्य का सारा कार्यभार मुझ पर ,उस पर राजा की असमय मृत्यु के कारण अत्यधिक कार्य आ पड़ा है मुझ पर",
"मैं समझ सकती हूँ सेनापति जी!",धंसिका लजाते हुए बोली...
"तुम मुझे इतनी भलीभाँति समझती हो,ये देखकर बड़ा अच्छा लगता है",गिरिराज बोला...
"आपको समझने का प्रयास नहीं करूँगी तो किसे समझने का प्रयास करूँगीं",धंसिका दृष्टि नीची करके बोली....
"मुझे तुम क्यों समझना चाहती हो भला"?,गिरिराज ने पूछा...
"मुझे आपसे ये कहने की आवश्यकता नहीं,आप स्वयं ही समझ जाएं",धंसिका बोली....
"कहीं तुम मुझसे प्रेम तो नहीं करने लगी हो"?,गिरिराज ने मुस्कुराते हुए पूछा...
"धत्त! ये कैसीं बातें कर रहे हैं आप"?,धंसिका बोली....
"वैसी ही जैसी की मुझे करनी चाहिए",गिरिराज बोला...
"ये बातें कहने की नहीं होती,ये तो केवल हृदय से अनुभव की जातीं हैं",धंसिका बोली....
तब गिरिराज धंसिका से बोला....
"किन्तु! मैं तो कहकर रहूँगा क्योंकि मुझे तो अपने भाव तुमसे प्रकट करने हैं कि मैं ने जब तुम्हें पहली बार देखा तो मैं तुम पर उसी समय अपना हृदय हार बैठा था,तुम्हारा रुप मेरी आँखों में बस गया है धंसिका! मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूँ,तुम्हारी सौम्यता ने मुझे मुग्ध कर दिया है",
"तो मैं क्या करूँ?"धंसिका ने पूछा....
"ये तो कोई उत्तर ना हुआ",गिरिराज रुठते हुए बोला....
"तो कैसें उत्तर की आशा थी आपको मुझसे?",धंसिका ने पूछा...
"मैं चाहता था कि तुम भी मेरी भाँति कुछ प्रेमभरी बातें करो,किन्तु तुम तो अत्यधिक उदासीन हो,ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें बातें करना ही नहीं आता"गिरिराज बोला....
"ऐसा ही कुछ समझ लीजिए सेनापति! विवाह पूर्व ये सब शोभा नहीं देता,मैं आपसे यहाँ भेंट करने आ जाती हूँ तो आप इसी में अपनी भलाई समझिए",धंसिका बोली...
"तो क्या तुम्हें मुझसे भेंट करना पसंद नहीं ", गिरिराज ने पूछा...
"ऐसी कोई बात नहीं,आप तो मुझे अत्यधिक पसंद हैं,किन्तु विवाह पूर्व मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता,मेरे माता पिता मुझ पर अत्यधिक विश्वास करते हैं और मैं नहीं चाहती कि उनका विश्वास टूटे",धंसिका बोली....
"यदि ऐसी बात है तो मैं माता से जाकर कहता हूँ कि वो हमारे विवाह हेतु प्रबन्ध करना प्रारम्भ कर दें", गिरिराज बोला...
"अब इतनी भी शीघ्रता नहीं है मुझे विवाह की",धंसिका बोली...
"किन्तु! मुझे तो है शीघ्रता",गिरिराज बोला....
"ये क्या कह रहे हैं आप"?,धंसिका बोली...
"वही जो तुम भी चाहती हो",गिरिराज बोला....
गिरिराज और धंसिका इसी प्रकार किसी वाटिका या सरोवर किनारे मिलते और वार्तालाप करते,अब गिरिराज ने सोचा कि उसे धंसिका से शीघ्र ही विवाह कर लेना चाहिए,किन्तु अभी उसके मार्ग में रानी रुपश्री आ रही थी,इसलिए गिरिराज ने रुपश्री से अपना पीछा छुड़ाने का एक उपाय निकाला,वो उसे एक दिवस एक पहाड़ पर ये कहकर ले गया कि वो उसके संग एकान्त में कुछ समय बिताना चाहता है, रुपश्री को तो गिरिराज पर अत्यधिक विश्वास था और वो उसकी बातों में आकर उसके संग भ्रमण करने पहाड़ पर चली गई,उसको क्या पता था कि अब वो उस राजमहल में पुनः अपने मृत शरीर के संग आएगी....
गिरिराज ने वन में रथ खड़ा किया और उसे एक ऊँचे पहाड़ पर ले गया और उसने उसे वहाँ से धक्का दे दिया,कोमलांगी रुपश्री भला कैसें इतनी ऊँचाई से गिराए जाने पर जीवित रह सकती थी,पहाड़ से गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए,ये तो गिरिराज का सोचा समझा षणयन्त्र था जिसमें अब वो सफल हो चुका था,वो मृत रुपश्री को रथ में लेकर राजमहल पहुँचा और उसने सभी से कहा कि रानी ने हठ की थी कि वें उसी ऊँचे पर्वत पर जाऐगीं,मैंने कितना रोका किन्तु उन्होंने मेरी एक ना सुनी,एकाएक उनका पैर फिसला और वें उस पर्वत से गिर पड़ी,मैं जब तक उनके समीप पहुँचा तो तब तक उनके प्राण जा चुके थे, मैं ही अपराधी हूँ मुझे उनका कहा नहीं मानना चाहिए,ना मैं उन्हें उनकी हठ पर पर्वत पर ले जाता और ना वें वहाँ से गिरतीं और ना उनके प्राण जाते,हाय! ये मुझसे क्या हो गया?
गिरिराज ने इतना अच्छा अभिनय किया कि सभी को उसकी बात पर विश्वास करना पड़ा और रुपश्री के अन्तिम संस्कार के पश्चात गिरिराज को उस राज्य का राजा बना दिया गया.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....