कार्यालयीन आध्यात्म (महेश अनघ) Niti Singh Shrivastava द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कार्यालयीन आध्यात्म (महेश अनघ)






सेवानिवृत आदमी के पास और कुछ हो, न हो, लेकिन दो महत्वपूर्ण चीजें जरूर होती हैं। एक- उम्र के अनुसार 'आध्यात्मिक चिन्तन की और स्वाभाविक झुकाव, और
दो- सरकारी कार्यालयों के काम काज का राई रत्ती अनुभव। वस्तुतः और कुछ उनके पास होता भी नहीं । शरीर, जो है, सो घिस घिसा कर लचर हो चुका होता है। फन्ड, ग्रेच्युटी आदि का जो पैसा मिला था वह तत्काल बहू-बेटे के हित में विनिवेश हो चुका होता है, और सामाजिक प्रतिष्ठा जिसे कहते हैं, वह तो नौकरी के चक्कर में अर्जित ही नहीं हो पाती है। मकान, यदि बनवा चुके होते हैं, तो अब उसके बाहरी कमरे का आधा भाग ही उनके उपयोगार्थ अधिकृत रहता है, शेष भाग में प्रवेश के लिए नाती-पोते की सिफारिश लगा कर 'मालकिन से अनुमति लेनी पड़ती है।

ऐसे ही, इस पत्रिका में छपने के लिए, में एक सेवा - निवृत्त 'अमुक' जी का साक्षात्कार लेने उनके निवास पर जा पहुँचा। अब आप यह मत पूछिए कि अमुक जी कौन ? अरे भाई, यह संक्षिप्त नाम है उनका, जिनका पूरा नाम है - अभय मुरारी कनौजिया | आप उन्हें जानते ही होंगे। नहीं जानते तो बताऊँ, कि वे इसी कार्यालय में सुपर क्लास 'थ्री', यानी पर्यवेक्षक के पद से, दो साल पूर्व सेवानिवृत हुए थे। नाम बताया, पद बताया, सेवा अवधि बतायी - अब भी याद नहीं आ रहा तो और बता दूँ, कि उनकी सेवानिवृति के समय विदाई समारोह जो हुआ था, उस समय जोरदार बारिश हो रही थी, बिजली चली गयी थी, बाहर कुत्ता भौंक रहा था, समोसे में कंकड़ निकला था, और टेबिल के कोने में उभरी हुई कील से अध्यक्ष महोदय को शर्ट फट गयी थी । और बताऊँ, कि भाषण देते समय अमुक जी बाकायदा रोने लगे थे। उम्मीद है, अब आपको सब कुछ याद आ गया होगा। यदि अब भी नहीं समझे, तो समझ लो कि समझना जरुरी नहीं है।

तो, मैं साक्षात्कार लेने उनके घर पहुँचा, सो इसलिए कि इस पत्रिका के पाठकों को यह जानकारी पहुँचाना जरूरी समझा गया, कि नौकरी से निबट चुकने के बाद, पढ़े लिखे मध्यवर्गीय आदमी का हाशिए वाला जीवन कैसा होता है।

अमुक जी, घर के बाहर ही टहलते हुए मिल गये। मैंने, जो उम्र में छोटा हूं, उनको, जो उम्र में बड़े थे, प्रणाम किया, और अपनी मंशा बतायी, कि इन्टरव्यू लेना है। - सुन कर वे निर्विकार रहे, थोड़े चिन्तित भी दिखे, शायद इसलिए कि घर में दूध न हुआ तो मुझ भले लेखक को वे चाय कहाँ से पिलाएँगे।

खैर में प्रसन्न चित्त था, और वे निर्विकार। (जैसे कि प्रसन्न रहना भी एक विकार हो) मुझे जातिसूचक नाम से सम्बोधित करते हुए वे घर के भीतर बैठक तक ले गये। एक-एक गिलास पानी पीकर जब हम दोनों आमने सामने व्यवस्थित हुए, तो बिना वक्त जाया किये मैंने तुरन्त साक्षात्कार आरम्भ कर दिया।

मैं- आदरणीय, सेवा निवृत्ति के बाद का यह जीवन अब आपको कैसा लग रहा है, कृपया बताइए।

वे- यह जीवन, ब्रह्म के द्वारा माया को लिखा गया अर्द्ध शासकीय पत्र जैसा है। जिसमें "प्रिय सु श्री" से लेकर "आपका विश्वसनीय " तक सैद्धान्तिक आत्मीयता
अथवा प्रेम पगी औपचारिकता है। यहाँ "व्यक्तिगत रुचि" की निजता के साथ ही 'यह जानकारी शीघ्र भेज दें"- की विषयगत औपचारिकता है। कुल मिला कर सेवानिवृत आदमी, आत्मीय संबोधन के साथ 'मुख्यालय के आदेश, फलां-- फलां... का गुलाम होता है। यानी कि जीवन में राग भी रहे, और वैराग्य (मोह से मुक्ति) भी । सो जान लीजिए।

मामले की गम्भीरता को सामान्य करने के लिहाज से मैंने खिड़की के बाहर देखते हुए कहा - आज मौसम अच्छा है। सुबह से ही बादल हैं, धूप नहीं है।

वे तपाक से बोले- हाँ, आज सूर्य आधी अथवा पूरी सी. एल पर है। शायद दोपहर बाद अचानक प्रकट हो जाए।

मैं- कल शाम तक पूर्व सूचना तो नहीं थी।

वे- अरे भाई, आकस्मिक मामले में पूर्व सूचना का क्या काम। जब दो महिने की तेज तपन से अवकाश अर्जित करके, जुलाई माह में सूर्य छुट्टी माँगेगा, तब पूर्व सूचना जरुरी होगी। या फिर जनवरी में कुहरे के प्रकोप से पीड़ित वह ड्यूटी पर आने में असमर्थ होगा, तब चिकित्सा प्रमाण पत्र के साथ अवकाश की पूर्व सूचना देगा | अभी तो आकस्मिक है, कभी भी आ टपकेगा अपना लाल चेहरा लिये।

मैं- सो तो ठीक है। अच्छा अब यह बताइए, कि सेवा- निवृत्ति उपरान्त के इन दो वर्षों में आपने अपने सम्पूर्ण जीवन के बारे में जो चिन्तन किया होगा, उसका सार क्या रहा।

वे - आत्म विश्लेषण तो गोपनीय चरित्रावली है। उसमें प्रारम्भिक विवरण, प्रशासन भर कर देता है, सो मेरे शरीर को कद काठी, गेहुँआ रंग, इकहरा शरीर, नाम, जाति, कुल-गोत्र इत्यादि ऊपर वाले ने तथा माँ बाप में मिल कर पहले ही निर्धारित कर दिया था। फिर चरित्रावली का प्रथम भाग मुझे खुद ही भरना था, सो मैंने भरा, कि जो भी काम दायित्व मुझे आवंटित किये गये, उन्हें मैंने पूरी निष्ठा एवं क्षमता के अनुसार समय पर पूरा किया। मसलन, बाल बच्चे पाल पोस कर, पढ़ा लिखा कर, तैयार कर दिये, यथा समय उनके हाथ पीले कर दिये, भविष्य निधि से पैसा निकाल कर लड़के की नौकरी के लिए जुगाड़ में खर्च कर दिया। कुल मिला कर यह कि कोई भी कार्य लम्बित नहीं रहा। साथ ही धर्म शास्त्र द्वारा निर्धारित समय सूची और अनुशासन का भी पूरा पूरा पालन किया, यानी पच्चीस की उम्र में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके शादी कर ली, पचास पूरे होने पर बेटा-बहू को घर की जिम्मेदारी सौंप कर अपना टीन का बक्सा और चटाई लेकर बाहरी कमरे में डेरा जमा लिया और जब पिचहत्तर का हो जाऊँगा, तो घर छोड़ कर चल दूंगा, पैदल तीर्थाटन करने। अब चरित्रावली का दूसरा भाग मेरे ऊपर के अधिकारी यानी समाज को तय करना है, कि मेरे बारे में उसकी क्या राय बनी। और अंतिम तीसरा भाग सबसे ऊपर वाले, यानी नीली छत्री वाले के जिम्मे है।

मैं- बहुत ठीक कहा आपने । अब मैं अध्यात्म से हट कर एक जमीनी सवाल करना चाहूँगा। आपके पास जीवन-जगत का अच्छा खासा अनुभव है। दुनियाँ - समाज के आपने निकट से देखा है । कृपया यह बताइए, कि इस इक्कीसवीं सदी में पहुँच कर हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता का क्या हाल है, आपकी नजर में |

वे - मेरी नजर में तो बन्धु, एक ही छवि बन रही है, कि इस देश की संस्कृति नोटशीट की तरह है, और सभ्यता है ड्रॉफ्ट की तरह। स्पष्ट करता हूँ, कि जैसे नोट शीट, कार्यालय का अंदरूनी मामला होता है, इसमें नीचे से आरम्भ करके ऊपर तक के सभी अधिकारी वैचारिक एवं भावनात्मक दृष्टि से शामिल रहते हैं। कुछ गलत हो जाए, तो उसे काट कर या चर्चा कर, संशोधित कर लिया जाता है और अंततः सक्षम अधिकारी यानी गृह स्वामी द्वारा क्रियान्वयन हेतु अनुमोदित कर दिया जाता है। यही हमारी संस्कृति है, कि मिल जुल कर अपने विचार प्रकट करो, चर्चा करो, नैतिक नियमों का हवाला दो, और जो तय हो, उसे क्रियान्वित करो। जबकि सभ्यता, नितान्त औपचारिक वस्तु है। यह, तयशुदा मामलों को सधी हुई भाषा में, घर-परिवार से बाहर, दूसरी इकाइयों को संप्रेषित की जाती है। ड्राफ्ट में केवल मुखिया के ही हस्ताक्षर होते हैं, किन्तु उस‌में सांस्कृतिक मान्यताओं की पूरी झलक प्रतिबिम्बित हो जाती है। सारांश यह है कि संस्कृति, परिवर्तन शील है जैसे नोटिंग | जबकि सभ्यता प्रामाणिक दस्तावेज है, जैसे ड्राफ्टिंग। और स्पष्ट करूं, कि नोटिंग हमारी जीवन शैली है, और ड्राफ्टिंग है हमारा नियमित जीवन।

मैं- अच्छा अमुक जी, जैसा कि मैं जानता हूँ कि आपने साठ साल की आयु तक पूरे सैंतीस साल सरकार की सेवा की। आपकी निष्ठा एवं लगन अभी भी कार्यालय मै चर्चित है। कृपया शासकीय सेवा करने की आपकी कार्यशैली और सिद्धान्तों पर प्रकाश डालिए।

वे- सुनो। दफ्तर को दुनियाँ में जब मेरा जन्म हुआ था, तब मैं ईश्वर की तरह निर्विकार था। कार्यालय में प्रवेश करना, मुझे मंदिर में प्रवेश करने जैसा लगता था। सीट का काम सांस लेने से भी अधिक महत्वपूर्ण लगता था। मेरे सामने नयी फाइलें, नये लेटर, नये साथी होते थे। सेक्शन में मेरे ज्वाइन करने पर लोग बहुत खुश हुए थे, जैसे घर में नये शिशु का जन्म हुआ हो। जिस तरह माँ का दूध पीना, हाथ पैर चलाना बच्चा माँ के पेट से ही सीख कर आता है, उसी प्रकार में दो और दो चार करना, क्रमांक- विषय- संदर्भ और भवदीय लिखना, यूनिवर्सिटी के पेट से ही सीख कर आया था। धीरे धीरे मेरा परिचय हुआ, अनुभाग अधिकारी से, जिसकी जिम्मेदारी थी, मेरा लालन पालन करना और अँगुली पकड़ कर चलना सिखाना। फिर पता चला कि एक साहब हमारे पिता है, जिनका वंश चलाने के लिए हम दफ्तर में पैदा हुए हैं। यानी सब कुछ करें- धरें हम, और नाम तथा हस्ताक्षर उनके। कर्म हमारा, फल उनके लिए। हमारा अस्तित्व सिर्फ इतना कि हम उन साहब के बच्चे हैं। यह सब जान-समझ कर, बालिग होते ही मैंने अपनी कार्य पद्धति बदल दी। चूंकि मेरे एक पेट भी था, और घर परिवार को जिमेदारी भी । अत: मैंने अपनी योग्यता तथा क्षमता का उपयोग अपने अतिरिक्त लाभ के लिए करना शुरू कर दिया। यानी, सरकारी समय, सरकारी कागज, सरकारी डाक और सील सिक्के, तथा परेशान लोगों की भलाई । यहाँ एक बात आपको बता दूं, कि कर्मचारी को अपना भला और सबका भला करने के लिए शासकीय नियम भी सिकुड़ कर सहयोग करते हैं। तो मैंने वही किया, कि नौकरी में पूरा ईमानदार रह कर जन-जन का चहेता बाबू बना रहा। पैसा भी मिला, प्रमोशन भी मिला, प्रतिष्ठा भी मिली और पवित्र भी बना रहा।

मैं- फिर भी, सैंतीस साल के सेवा काल में कुछ प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी आपके सामने आयी होगी।

वे- क्यों नहीं। बहुत से अवांछित प्रसंग आये, किन्तु मैंने उन्हें सिरदर्द नहीं बनाया। उन्हें, या तो "सम्बन्धित नहीं, अन्यत्र भेजा जाए"-लिख कर लौटा दिया, या फिर "फलां-फलां की ओर मूलत: अग्रेषित "लिख कर मे किसी ऐरे-गैरे अनुभाग को भेज दिया, अथवा कोई न कोई कमी निकाल कर प्रेषक को ही चार- छः बार मूलत: वापस कर दिया। फिर भी कोई समस्या गले मढ़ ही गयी, तो उसे सूचनार्थ नस्तीबद्ध करके, चाय पीने चल दिया करता था।

मैं- एक बात और श्रीमान | सरकारी नौकरी में दिल को अधिक महत्व देना चाहिए या दिमाग को ? आपका अनुभव क्या कहता है।

वे- जिस कर्मचारी के पास कोई चपरासी न हो, उसे चाहिए कि वह दिल को चपरासी बना ले और दिमाग को अपना अफसर बना रहने है। यह बात मैंने अपने पूर्वजों से सीखी थी, कि दफ्तर की फिलासफी में आदर्शवाद मृत्यु है और दिमाग का 'चालू' रहना गौरवपूर्ण जिन्दगी है । मैं भी आने वाली पीढ़ी को यही संदेश देना चाहता हूँ, कि भावुकता में आ कर आज का काम आज ही कर डालना समझदारी नहीं है। यदि ऐसा किया तो नयी पीढ़ी के लिए सरकारी नौकरी में भर्ती का रास्ता ही बंद हो जाएगा। अतः सभी महत्त्वपूर्ण कार्य टाले रखना ही ठीक होगा।

मैं- सही कहा आपने! अच्छा, अब एक आखिरी सवाल पूछ कर विदा लूंगा। कृपया यह बताइए, कि शासकीय कार्य प्रणाली में लेखा तथा लेखा परीक्षा में मूलभूत अन्तर क्या है।

वे- एक मिनिट। जरा मैं पानी पी लूँ ।

इतना कहकर उन्होंने पानी पीने के लिए गिलास उठा कर मुँह से लगाया ही था कि अचानक उनका पाँच वर्षीय पोता मटकता हुआ कमरे में प्रकट हुआ। उसने छोटे कर्मचारी की तरह नकली विनम्रता का प्रदर्शन करते हुए, पहले दादाजी को, और फिर मुझे अंकल जी को प्रणाम किया, फिर तुरन्त मुद्दे पर आते हुए अपनी मांग प्रस्तुत कर दी।
- दादाजी, मुझे पाँच रुपए चाहिए। आइसक्रीम खाना है। दादाजी भी नकली साहब की तरह पहले मुस्कुराए, फिर तुरन्त कानून ओढ़ लिया।
- ज्यादा आइसक्रीम खाने से दाँत सड़‌ जाते हैं, फिर टूट कर गिर जाते हैं। इस तरह बेशकीमती प्राकृतिक सम्पदा की हानि होती है।
- नहीं सड़ेंगे। दादाजी, मुझे पाँच रुपए दो ।
- क्यों, कल शाम को जो दस रुपए दिये थे, उनका क्या हुआ?
- वे तो खतम हो गये। चार का गुब्बारा लिया, पाँच के गोल गप्पे खाये और एक गया गुल्लक में।
- यानी व्यक्तिगत जमा खाता भी खोल रखा है, वह भी बिना पूर्व अनुमति के ।
- अब दादाजी, जल्दी करो न । आइसक्रीम वाला निकल जाएगा।

- अच्छा लो, दस का नोट है, बचे हुए पैसे मुझे समर्पित करना। अधिक व्यय करोगे तो नियमानुसार कार्यवाही होगी।

दस रुपए लेकर पोता भाग गया, जैसे छुट्टी मंजूर होते ही चतुर्थश्रेणी कर्मचारी भागता है।

मैं फिर अपने विषय पर आया।

मैं- हाँ, तो अमुक जी, मैं पूछ रहा था, लेखा और लेखापरीक्षा....

वे - यही, यही तो मूलभूत अन्तर है। अभी आपने देखा, मेरा पोता जो कह रहा था, वह लेखा एवं हकदारी है और मैं जो कह रहा था, वह लेखा परीक्षा है। आपका और कोई सवाल ?

मैं- जी, नहीं | बहुत बहुत धन्यवाद। स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन के लिए शुभ कामनाएँ।

इतना कह कर मैं अपना पैन, चश्मा और नोट बुक समेट कर उठ खड़ा हुआ। वे मुझे गली के मुहाने तक छोड़ने आये। मैंने हाथ हिला कर उनसे विदा ली। उन्होंने भी अपना शिथिल हाथ हिलाया । इस वक्त वे कुछ ज्यादा ही गम्भीर दिखाई दिये। मैंने ज्यों ही उनकी ओर से पीठ फेरी, वे अपनी ऊँची आवाज को भरसक द‌बाते हुए बोले
- सुनो भाई। फिर आना। अबकी बार और अच्छा साक्षात्कार दूँगा। और हाँ, अगली बार खाली हाथ मत आना। आखिर तुम्हारा सीनियर हूँ, और फिर सेवानिवृत्त भी... बेचारा....।