अविनाश सुबह समय पर उठा नहीं तो संस्कृति को चिंता हुई. उस ने अविनाश को उठाते हुए उस के माथे पर हाथ रखा. माथा तप रहा था. संस्कृति घबरा उठी. अविनाश को तेज बुखार था. दो दिन से वह खांस भी रहा था. संस्कृति ने कल इसी वजह से उसे औफिस जाने से मना कर दिया था. मगर आज तेज बुखार भी था. उस ने जल्दी से अविनाश को दवा खिला कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखी.
अविनाश को सुबह से बहुत तेज बुखार है, क्या करूं बेटा, यह समय ही बुरा चल रहा है. राजू भी कोरोना पौजिटिव है वरना उसे भेज देती. हम खुद उस की देखभाल में लगे हुए हैं. तू ऐसा कर, जल्दी से डाक्टर को बुला और दवाएं शुरू कर.”
“हां मां, वह तो करना ही होगा. मेरी सास की भी तबीयत भी सही नहीं चल रही है. वरना जेठजी को ही बुला लेती. घबरा नहीं, बेटी. धैर्य से काम ले.
सब ठीक हो जाएगा,” मां ने समझाने का प्रयास किया. संस्कृति ने पति का कोरोना टेस्ट कराया. तब तक फैमिली डाक्टर से पूछ कर दवाएं भी देती रही. इस बीच अविनाश की हालत ज्यादा खराब होने लगी तो वह उसे ले कर अस्पताल भागी. दो अस्पतालों से निराश लौटने के बाद तीसरे में मुश्किल से बैड का इंतजाम हो सका. सासससुर और जेठ भी दूसरे शहर में थे सो मदद के लिए आ नहीं सके
वैसे भी दिल्ली में लौकडाउन लगा हुआ था. रिश्तेदार चाह कर भी उस की मदद करने नहीं आ सकते थे. आसपड़ोस वालों ने कोरोना के डर से दरवाजे बंद कर लिए. तब संस्कृति ने अपने दोस्तों को फोन लगाया पर सब ने बहाने बना दिए. अकेली संस्कृति पति की सेवा में लगी हुई थी. अस्पताल में मरीजों की लंबी कतारों और मौत के तांडव के बीच किसी तरह संस्कृति
खुद को बचाते हुए पति के लिए दौड़भाग करने में लग गई. कभी दवा की परची ले कर भागती तो कभी खाना ले कर। कभी डाक्टर से गिड़गिड़ाती तो कभी थकहार कर बैठ जाती.
उसे कोरोना वार्ड में जाने की इजाजत नहीं थी. बाहर रिसैप्शन में बैठ कर ही पति के ठीक होने की कामना करती रहती. उस पर पति की तबीयत अच्छी होने के बजाय बिगड़ती जा रही थी.
उस दिन भी डाक्टर ने परची में कई दवाएं जोड़ कर लिखीं. वह दवाएं लेने गई मगर जो सब से जरूरी दवा थी वही नहीं मिली. अस्पताल में उस का स्टौक खत्म हो चुका था. अब वह क्या करेगी? बदहवास सी वह अस्पताल के बैंच पर बैठ गई. बगल में ही परेशान सा एक युवक भी बैठा हुआ था. संस्कृति ने उस की तरफ मुखातिब हो कर पूछा,आप बता सकते हैं यह दवा मुझे कहां मिलेगी?
मैं खुद यह दवा ढूंढ़ रहा हूं. आसपास तो मिली नहीं. मेरे दोस्त ने बताया है कि नोएडा में उस की शौप है. उस ने कुछ दवाएं स्टौक कर के रखी हैं, सो वह मुझे दे देगा. अभी जाने की ही सोच रहा था. परची लाइए, मैं अपने साथ आप के लिए भी दवा ले आता हूं. बहुत मेहरबानी होगी. सुबह से इस के लिए परेशान हो रही थी,पसीना पोंछते हुए संस्कृति ने कृतज्ञ स्वर में कहा.
मेहरबानी की कोई बात नहीं. इंसान ही इंसान के काम आता है. बस इतना शुक्र मनाइए कि दवा वहां मिल जाए, कह कर वह चला गया. करीब 2-3 घंटे बाद लौटा तो उस के चेहरे पर परेशानी की लकीरों के बावजूद खुशी थी. यह लीजिए, बड़ी मुश्किल से मिली, मगर मिल गई यही बहुत है. बहुत बहुत शुक्रिया. कितने की है? संस्कृति का चेहरा भी खिल उठा था.
अरे नहीं, पैसे की जरूरत नहीं.
आप पहले यह दवा खिलाइए मरीज को. उस दिन के बाद से दोनों में बातचीत होने लगी. वह अपने भाई की देखभाल में लगा था और संस्कृति पति के लिए दौड़भाग कर रही थी. दोनों का दर्द एकसा ही था. संस्कृति जब भी व्यथित होती तो उस के कंधों पर सिर रख कर रो लेती. कोई चीज लानी होती तो प्रतीक ले कर आता. संस्कृति को घर छोड़ कर आता.धीरे धीरे तकलीफ के इन दिनों में दो
अजनबी एक बंधन में बंधते जा रहे थे. उन के बीच एक अजीब सा आकर्षण भी था, जो दोनों के इस बंधन को और मजबूत बना रहा था. एक दिन अविनाश का औक्सीजन लेवल काफी घट गया. अस्पताल में औक्सीजन सिलैंडर नहीं था. तब प्रतीक ने यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. पूरे दिन कड़ी धूप और गरमी में लाइन में लग कर आखिर वह औक्सीजन सिलैंडर ले कर ही लौटा था.
उस दिन संस्कृति ने पूछा था,”आप मेरे लिए इतना कुछ कर रहे हैं, इतना खयाल रखते हैं मगर क्यों? मैं तो आप की कुछ भी नहीं लगती. फिर बताओ न ऐसा क्यों कर रहे हो?”
“पहली बात, हर क्यों का जवाब नहीं होता और दूसरी बात, हम दोनों हमसफर नहीं हैं तो क्या हुआ हमदर्द तो हैं ना. आप के दर्द को मैं बहुत अच्छे से महसूस कर सकता हूं. आप की तकलीफ देख कर मुझे दुख होता है. बस, किसी भी तरह आप की मदद करना चाहता हूं.”
एक अनकहा सा मगर मजबूत साथ महसूस कर वह गमों के बीच भी मुसकरा उठी थी. धीरे धीरे अविनाश की तबीयत और भी बिगड़ गई और उस को वैंटिलेटर पर रखना पड़ा.अस्पताल में वैंटीलेटर्स की भी कमी थी. कई वैंटिलेटर्स खराब हो गए.
बदहवास सी संस्कृति ने प्रतीक को फोन लगाया तो पता चला कि उस के भाई को भी कहीं और शिफ्ट करने की नौबत आ गई है.
आप चिंता न करो संस्कृतिजी, मैं अपने भाई को जिस अस्पताल में ले कर जा रहा हूं, आप के पति को भी वहीं ले कर चलता हूं. वहां वैंटिलेटर की सुविधा है और डाक्टर्स भी अच्छे हैं, प्रतीक ने उसे ढांढ़स बंधाया और फिर जल्दी ही शिफ्टिंग की सारी व्यवस्था करा दी. शाम में सब निबट गया तो प्रतीक का हाथ पकड़ कर रुंधे गले से संस्कृति इतना ही कह सकी,
आप नहीं होते तो पता नहीं क्या होता. मैं नहीं होता तो कोई और होता. अच्छे लोगों की मदद के लिए कोई ना कोई आ ही जाता है. ऐसा नहीं है प्रतीकजी. मैं ने अपने दोस्तों, पड़ोसियों और परिचितों सब को देख लिया. इस कठिन समय में कोई भी मेरे साथ खड़ा नहीं. केवल आप हैं जिसे 4-6 दिन पहले तक मैं जानती भी नहीं थी. आज लगता है ऐसे आप के बिना रह ही नहीं सकती.
उस की बात सुन कर प्रतीक ने एक अलग ही नजर नजर से संस्कृति की तरफ देखा और फिर मुसकरा कर चला गया.
संस्कृति के दिल में अजीब सी बेचैनी होने लगी. वह सोचने लगी कि प्रतीक का साथ इस परेशानी के समय में भी कितना सुकून दे जाता है. अस्पताल में मरीजों के रिश्तेदारों की भागदौड़ और परेशानियों के बीच भी चंद लम्हे वह केवल प्रतीक के बारे में सोचती रह गई.
इसी तरह 2-3 दिन और गुजरे. अविनाश की हालत काफी गंभीर थी. फिर एक दिन सुबहसुबह संस्कृति को सूचना मिली कि उस के पति की मृत्यु हो गई है. एक पल में संस्कृति को लगा जैसे वह अधूरी रह गई. उस का सबकुछ छिन गया है. प्रतीक ने जितना हो सका उसे धैर्य बंधाया. कोरोना की वजह से वह पति के शव को घर भी नहीं ला सकती थी. लौकडाउन लगा हुआ था.
घर वालों का आना भी कठिन था. ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि पति को अंतिम विदाई कैसे दे, इस वक्त भी प्रतीक ही उस के काम आया. मुश्किल की इस घड़ी में सब से पहले उस ने संस्कृति को शांत कराया फिर उस के पति को शमशान तक ले जाने का सही से इंतजाम कराया. संस्कृति के साथ वह शमशान तक गया. फिर संस्कृति को उस के घर छोड़ने आया. संस्कृति लगातार रो रही थी.
उस के हाथपैर कांप रहे थे. प्रतीक समझ रहा था कि उस की तबीयत खराब है. वह अकेली है सो अपने खानेपीने को ले कर लापरवाह रहेगी तो और तबीयत खराब होगी. तब प्रतीक ने हाथपैर धो कर और कपड़े बदल कर उस की रसोई में प्रवेश किया और सब से पहले चाय बनाई. संस्कृति के साथ खुद भी बैठ कर उस ने चाय पी. फिर संस्कृति को नहाने भेज कर खुद दालचावल बनाने लगा.
संस्कृति को खाना खिला कर उस के लिए सब्जी, फल, दूध आदि का इंतजाम कर और सांत्वना दे कर वह वापस लौट गया. 2-3 दिनों बाद जब संस्कृति थोड़ी सामान्य हुई और पति की मौत के सदमे से उबरी तो उसे प्रतीक की याद आई. प्रतीक उस के लिए अपनों से बढ़ कर बन चुका था. मगर उसे पता नहीं था कि वह कहां रहता है, क्या जौब करता है? बस एक फोन नंबर था.
उस ने फोन मिलाया तो नंबर बंद आ रहा था. संस्कृति घबरा उठी. वह प्रतीक से से संपर्क करना चाहती थी मगर ऐसा हो ना सका. 2-3 घंटे वह लगातार फोन ट्राई करती रही मगर फोन बंद ही आ रहा था. अब उस से रहा नहीं गया. कुछ सोच कर वह उसी अस्पताल में पहुंची जहां उस के पति और प्रतीक का भाई ऐडमिट थे. वह रिसैप्शन एरिया में घूम घूम कर प्रतीक को खोजने लगी
क्योंकि अकसर दोनों वहीं बैठे होते थे. फिर वह उसे खोजती हुई कैंटीन में भी गई. हर तरफ चक्कर लगा लिया मगर प्रतीक कहीं नजर नहीं आ रहा था. थक कर वह वापस रिसैप्शन में आ कर बैठ गई और सोचने लगी अब क्या करे. तभी उसे वह नर्स नजर आई जिस से संस्कृति की जान पहचान हो गई थी. संस्कृति के पति की देखभाल वही नर्स करती थी. संस्कृति उसे अकसर अम्मां कह कर पुकारा करती.
नर्स ने प्रतीक को भी उस के साथ कई बार देखा हुआ था. संस्कृति दौड़ कर नर्स के पास गई. दुखी स्वर में नर्स ने कहा, सौरी बेबी, तुम्हारे पति को हम बचा नहीं पाए. जो लिखा था वह हो गया पर यह बताओ, अम्मां आप को प्रतीक याद है, जो अकसर मेरे साथ होता था? उस के भाई का इलाज चल रहा था. हां बेबी, उस के भाई की भी तो मृत्यु हो गई. वह खुद भी ऐडमिट है.
उसे भी कोरोना है और जानती हो, बेबी वह तेरे पति वाले बैड पर ही है. बैड नंबर 125. सच अम्मां, आप उसे पहचानती हो ना? हां बेबी, पहचानती हूं. तेरी बहुत हैल्प करता था. पर अब उस की हैल्प करने वाला कोई नहीं. अकेला है वह. मैं हूं न अम्मां. अब उस के लिए किसी भी चीज की जरूरत पड़े तो मुझे बताना. मैं उस के अटेंडैंट के रूप में अपना नाम लिखवा देती हूं.
ठीक है, बेबी मैं बताती हूं तुझे. इस के बाद संस्कृति पूरे मन से प्रतीक की सेवा में लग गई. उस के लिए घर का खाना, फल, दवाएं वगैरह ले कर आना, उस की हर जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना, डाक्टरों से उस की तबियत की हर वक्त जानकारी लेते रहना जैसे काम वह पूरे उत्साह से कर रही थी. इस बीच प्रतीक की हालत बिगड़ी और उसे आईसीयू ले जाने की जरूरत पड़ गई.
इस के लिए अस्पताल के क्लर्क ने उस के आगे एक फौर्म बढ़ाया. उस में मरीज के साथ क्या संबंध है, यह लिख कर हस्ताक्षर करना था. संस्कृति कुछ पलों के लिए सोचती रही कि वह क्या लिखे. फिर उस ने उस खाली जगह पर ‘पत्नी’ लिख कर साइन कर दिया. क्लर्क को कागज थमा कर वह खुद में ही मुसकरा उठी. 2-3 दिन आईसीयू में रह कर प्रतीक की हालत में सुधार शुरू हुआ
और उसे कोविड वार्ड में वापस शिफ्ट कर दिया गया. 7-8 दिनों तक लगातार सुधार होने और रिपोर्ट नैगेटिव आने के बाद उसे डिस्चार्ज भी कर दिया गया. इतने दिनों तक संस्कृति ने भी अपना खानापीना और नींद भूल कर दिनरात प्रतीक की सेवा की थी. डिस्चार्ज वाले दिन वह बहुत खुश थी. उस ने सीधा अपने घर के लिए कैब बुक किया और प्रतीक को अपने घर ले आई.
प्रतीक ने टोका तो संस्कृति ने थोड़े शरारती अंदाज में जवाब दिया, मैं ने फौर्म में एक जगह यह लिख कर साइन किया है कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं और इसलिए अब मेरा और तुम्हारा घर अलगअलग नहीं, बल्कि एक ही होगा. मगर संस्कृति लोग क्या कहेंगे? लोगों का क्या है प्रतीक, जब मुझे जरूरत थी तो क्या लोग मेरी मदद के लिए आगे आए थे? नहीं न. उस वक्त तुम ने मेरा साथ दिया.
अब मेरी बारी है. इस में गलत क्या है? तुम थोड़े ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि क्या करना है,” संस्कृति ने अपना फैसला सुना दिया. करीब 10 दिन संस्कृति ने जीभर कर प्रतीक का खयाल रखा. हर तरह से उस की सेहत पहले की तरह बनाने और खुश रखने का प्रयास करती रही संस्कृति एक संयुक्त परिवार से संबंध रखती थी. ससुराल में धनसंपत्ति की कमी नहीं थी.
यह घर भी पति के बाद उस के नाम हो चुका था. पति ने उस के लिए काफी संपत्ति और गहने भी छोड़े थे. बस एक हमसफर की कमी थी, जिसे प्रतीक पूरा कर सकता था.
उस दिन शाम में संस्कृति ने प्रतीक के हाथों को थाम कर कहा,”जो बात मैं ने अनजाने ही उस फौर्म में लिखा, क्या हम उसे हकीकत का रूप नहीं दे सकते? क्या मैं तुम्हें अपने
हमदर्द के साथसाथ एक हमसफर के रूप में भी स्वीकार हूं मुझे लगता है संस्कृति कि अब यह बात कहना फुजूल है. मतलब मतलब यह कि तुम औलरेडी मेरी हमदर्द और हमसफर बन चुकी हो. हम हमेशा साथ रहेंगे. तुम से बढ़ कर कोई और मेरा खयाल नहीं रख सकता, कह कर प्रतीक ने संस्कृति को गले से लगा लिया.