कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(५१) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(५१)

अब रानी कुमुदिनी ने मन में सोचा ये तो इस बेचारी को भी ज्ञात नहीं कि इसकी पुत्रवधू धंसिका कहाँ है? अब मैं क्या करूँ,कुछ समझ में नहीं आ रहा,अब मेरा यहाँ और अधिक समय तक रुकना उचित नहीं होगा,ये सूचना मुझे शीघ्र ही सभी तक पहुँचानी होगी, रानी कुमुदिनी ये सब सोच ही रही थी कि चन्द्रकला देवी ने उससे पूछा....
"पुत्री! तुम इतनी चिन्तामग्न क्यों हो गई"?
तब रानी कुमुदिनी बोली....
"जी! मैं यह सोच रही थी कि जिस स्त्री का स्वामी ही उसका त्याग कर दे तो तब वो बेचारी स्त्री कहाँ जाए,अब मुझे ही देखिए,मेरे तो माता पिता भी जीवित नहीं है जो मैं उनके पास चली जाती,किन्तु आपकी पुत्रवधू के तो सगे सम्बन्धी होगें,माता पिता भी होगें कदाचित वें वहाँ चली गईं हों"
"नहीं! उसके माता पिता भी जीवित नहीं हैं,किन्तु उसके मामाश्री जीवित हैं,जिनका नाम धरणीधर है,वो एक वैद्य है,कदाचित धंसिका उन्हीं के पास रह रही हो",चन्द्रकला देवी बोली....
"तो आपकी पुत्रवधू धंसिका के मामाश्री कहाँ रहते हैं",कुमुदिनी ने पूछा....
"वैतालिक राज्य से दक्षिण दिशा की ओर एक पर्वत है जिसका नाम शंखनाद पर्वत है,उसी पर्वत के समीप एक राज्य है शिशुनाग,जहाँ वें रहते हैं,वें अत्यधिक प्रसिद्ध वैद्य हैं,उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली है,उनसे अत्यधिक लोग परिचित हैं",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"ओह...तो वें वहाँ रहते हैं",कुमुदिनी बोली...
"किन्तु! पुत्री! तुम्हें मेरी पुत्रवधू के विषय में जानने में इतनी रुचि क्यों है"?,चन्द्रकला देवी ने पूछा...
"बस! ऐसे ही! मैं भी एक स्त्री हूँ और एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के मन की पीड़ा भलीभाँति समझ सकती है", कुमुदिनी बोली...
"ये सच कहा तुमने पुत्री!",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"तो क्या धंसिका देवी ने पुनः प्रयास नहीं किया अपने स्वामी के पास लौटने का",कुमुदिनी ने पूछा....
"वो एक बार पुनः गिरिराज के पास आई थी किन्तु गिरिराज ने उसका अपमान करके पुनः वापस जाने को कहा,इसके पश्चात वो कभी उसके पास ना लौटी,अब ना जाने वो कैसी दशा में है,ये मुझे नहीं ज्ञात,", चन्द्रकला देवी बोलीं....
"आप चिन्ता ना करें माता! वें जहाँ भी होगीं सकुशल होगीं",कुमुदिनी बोली...
"ऐसा ही हो पुत्री!",चन्द्रकला देवी बोलीं...
"यदि ईश्वर की कृपा हुई तो अवश्य आपकी उनसे भेंट हो सकेगी",रानी कुमुदिनी बोली....
"कदाचित!तुम्हारा कहा सच हो जाए,अच्छा! तो पुत्री! मैं अब चलती हूँ,तुमसे वार्तालाप करके अच्छा लगा",
"मुझे भी आपसे वार्तालाप करके अच्छा लगा",कुमुदिनी बोली...
और इसके पश्चात चन्द्रकला देवी वहाँ से चलीं गईं...
चन्द्रकला के जाते ही कुमुदिनी रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगी,क्योंकि अब रात्रि के समय ही वें सभी वहाँ आ पाऐगें और तभी कुमुदिनी गिरिराज की पत्नी के विषय में उन सभी को जानकारी दे सकती थी,यही सब बातें सोचकर कुमुदिनी आश्रम में समय व्यतीत करने लगी,उसे तो केवल रात्रि होने की प्रतीक्षा थी....
और इधर आश्रम से तनिक दूर वन में सभी जन अपना समय व्यतीत कर रहे थे,सभी के मध्य वार्तालाप चल रहा था और तभी अचलराज ने कौत्रेय से कहा....
"भ्राता! कौत्रेय! तनिक भोजन का प्रबन्ध करो,अत्यधिक भूख लग रही है,देखो तो कहीं वन में तुम्हें कुछ फल इत्यादि दिख जाएं तो ले आओ,ये बात मैं तुमसे इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि तुम्हें तो भोजन की आवश्यकता पड़ती ही नहीं है"
"ठीक है मैं जाकर देखता,कदाचित कुछ फल मिल जाएं तो मैं तुम सभी के लिए लेता आऊँगा",कौत्रेय बोला....
"त्रिलोचना! क्या तुम कौत्रेय की सहायता के लिए उसके साथ जा सकती हो",भैरवी बोली....
"हाँ...हाँ....क्यों नहीं! मुझे भला इसके साथ जाने में क्या आपत्ति हो सकती है,बस ये मुझसे झगड़ा ना करें", त्रिलोचना बोली....
"अरे! नहीं झगड़ेगा तुमसे",अचलराज बोला....
"यदि इसने मुझसे झगड़ा किया तो",त्रिलोचना बोली...
"यदि ये तुमसे झगड़ा करें तो मुझसे आकर बताना",कालवाची बोली....
"ठीक है तो मैं कौत्रेय के संग जाने को तत्पर हूँ",त्रिलोचना बोली....
अन्ततोगत्वा त्रिलोचना कौत्रेय के संग भोजन का प्रबन्ध करने चल पड़ी,दोनों साथ साथ तो चल रहे थे किन्तु दोनों के मध्य कोई भी वार्तालाप नहीं हो रहा था,कुछ समय के पश्चात जब त्रिलोचना नीरवता से उकता गई तो कौत्रेय से बोली.....
"तुम कुछ बोलते क्यों नहीं"?
"तुम ही तो सबसे बोली कि मैं तुमसे झगड़ता हूँ,यदि मैनें तुमसे बात की और हम दोनों के मध्य झगड़ा हो गया तो तुम जाकर कालवाची से मेरी निन्दा करोगी कि मैंने तुमसे झगड़ा किया", कौत्रेय बोला....
"तुम्हारा व्यवहार तो मेरी समझ के परे है",त्रिलोचना बोली....
"क्यों मेरा व्यवहार तुम्हारी समझ से परे है? मैं ने तो तुमसे कभी कोई अनुचित बात ही नहीं की",कौत्रेय बोला....
"तुम बात ही तो नहीं करते और जब भी बात करते हो तो झगड़ने लगते हो,किन्तु मैं चाहती हूँ कि तुम मुझसे झगड़ा ना करो",त्रिलोचना बोली....
"मैं कुछ समझा नहीं कि तुम क्या कहना चाहती हो"?,कौत्रेय बोला...
"तुम सच में अबोध हो कौत्रेय!,मैं तुम्हें कैसें समझाऊँ"? त्रिलोचना बोली....
"भला! मुझे तुम क्या समझाना चाहती हो"?,कौत्रेय बोला....
"यही कि मुझे तुम अच्छे लगते हो",त्रिलोचना बोली....
"ये तुम क्या कह रही हो त्रिलोचना?,तुम्हें ज्ञात है ना कि मैं मानव नहीं कठफोड़वा हूँ",कौत्रेय बोला....
"हाँ! मुझे ज्ञात है कि तुम कठफोड़वे हो किन्तु जब तुम चामुण्डा पर्वत जाकर मानव रुप ले लोगे तब तो हम जीवनसाथी बन सकते हैं ना! तब तो हमारे मिलन के मध्य कोई अड़चन नहीं रहेगी",त्रिलोचना बोली....
"तुम मुझसे विवाह करना चाहती हो,वो भी एक कठफोड़वे से",कौत्रेय आश्चर्यचकित होकर बोला....
"प्रेम तो किसी से भी हो सकता है कौत्रेय!"त्रिलोचना बोली....
"तुम्हारे हृदय में ये बात कब आई कि तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया है",कोत्रेय ने पूछा....
"जब तुम पहली बार हमारे घर आए थे,किन्तु तब मैं ये सब तुमसे कह ना सकी",त्रिलोचना बोली....
"यदि ये सब तुम्हारे भ्राता भूतेश्वर को ज्ञात हो गया तो वें तुमसे रुष्ट हो जाऐगें",कौत्रेय बोला....
कौत्रेय की बात सुनकर त्रिलोचना हँस पड़ी तो कौत्रेय ने उससे आश्चर्य से पूछा....
"तुम हँसी क्यों त्रिलोचना"?
"वो इसलिए कि भ्राता भूतेश्वर भी कालवाची से प्रेम करते हैं किन्तु वें भी उससे अपने हृदय की बात कभी कह नहीं पाए,वें चाहते हैं कि जब कालवाची मानवी बन जाएगी तब वो उससे अपने हृदय की बात कहेगें " ,त्रिलोचना बोली....
"ओह...तो तुम दोनों भाई बहन के मध्य ये सब चल रहा था",कौत्रेय बोला....
"हाँ! हम दोनों बहन भाई ये प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब तुम दोनों मानव रुप में आओ और इसके पश्चात हम सभी अपना एक नया संसार बनाऐगें",त्रिलोचना बोली....
"ओह....कितना मधुर स्वप्न है",कौत्रेय बोला...
"और हमारा ये मधुर स्वप्न अवश्य पूर्ण होगा",त्रिलोचना बोली...
"अपना स्वप्न बाद में पूरा करना त्रिलोचना! पहले हम दोनों सभी के भोजन का प्रबन्ध तो कर लें,नहीं तो वो अचलराज इतना क्रोध करेगा मुझ पर कि पूछो ही मत",कौत्रेय बोला....
"हाँ! ये ठीक कहा तुमने",त्रिलोचना बोली...
इसके पश्चात दोनों भाँति भाँति के वृक्षों से फल एकत्र करने में लग गए....

क्रमशः....
सरोज वर्मा...