भरोड़ा से दुलरा दयाल क्या गया मानो अंचल के प्राण ही चले गये । प्रकृति ने भी शोक - संतप्त हो अपनी हरीतिमा त्याग दी । पंछियों ने चहचहाना छोड़ दिया । महल सूनी , चौपाल सूना , • अंचल का प्रत्येक आँगन सूना हो गया । श्री की अनुपस्थिति में समूचा अंचल ही श्रीविहीन हो गया । दुलरा दयाल का समाचार मंगलगुरु को अपने प्रशिक्षित कागों एवं गुप्तचरों के माध्यम से प्राप्त होता रहता । परन्तु , राजा और रानी के अतिरिक्त कोई नहीं जान पाया , कुँवर कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं ? सेनापति की आँखों से नींद रूठ गयी थी । सोते - जागते उसके अंतस् को बहुरा की स्मृति ही डॅसती रहती । गुप्तचरों के माध्यम से बहुरा की स्थिति का सबको ज्ञान था । इस स्वर्णिम अवसर को चूकना तो मूर्खता ही थी , परन्तु राह की अड़चन राजरत्न मंगलगुरु । नित्य की भांति विवाद इसी विषय पर पुनः प्रारंभ हो गया । सेनापति ने कहा- अपनी नीति पर पुनर्विचार कर लें तो अच्छा हो राजरत्न ! राजा जी को आप सम्मति दें तो वे अवश्य स्वीकारेंगे । ' ' मैंने पूर्व में ही कहा था । ' राजरत्न मंगल ने कहा- निहत्थों पर आक्रमण ... हमारी नीति नहीं है । ' ' और उस दुष्टा ने जो किया राजरत्न ! ' कुटिलतापूर्वक मुस्कुराते हुए सेनापति ने कहा- आपकी दृष्टि में वह उचित था ... क्यों ? ... , उसकी वाणी क्रुद्ध हो गयी । क्रोध में ही उसने पुनः कहा ' शस्त्रों सहित ही मेरे सम्पूर्ण शरीर को अचेत कर उस दुष्टा ने क्रूरतापूर्वक जो कृत्य किया ... हँस पड़े राजरत्न | असमय की इस अप्रत्याशित हँसी ने सेनापति की वेदना और बढ़ा दी । उस दुष्टा के वध हेतु मैं व्यग्र हूँ और राजरत्न हँस रहे हैं । सेनापति के मुख से कटु वचन निकलता कि इसके पूर्व ही राजरत्न ने हँसते हुए ही कहा जिसे आप दुष्टा कह रहे हैं ... सेनापति ... उसने तो आपका एक नेत्र ही निकाल कर आपको मुक्त कर दिया । तनिक विचार कीजिए ... क्या नहीं कर सकती थी वह ? ' आपका आशय है कि । ' ' हाँ वीरवर ! ' हस्तक्षेप राजरत्न ने किया कुछ भी कर सकती थी वह ... आपका वध भी ... परन्तु उसने ऐसा कुछ नहीं किया । ' ' तो आपका तात्पर्य यह है कि उसने जो भी किया , वह साधारण कृत्य था ... क्यों ? ... उसकी वाणी में क्रोधयुक्त व्यंग उभरा और आपकी इच्छा है कि उसके इस अतिसाधारण अपराध को हमें भूल जाना चाहिए ? ... आप चाहते हैं , हमारी पुत्रवधू को उसने बलात् अपने पास रोक लिया ... इसे भी हम क्षमा कर दें ! हमारे दुलरा दयाल को पत्नी - विहीन किया यह भी हम भूल जाएँ ! महाराज को समस्त परिजनों सहित विवश हो पलायन करना पड़ा , इसकी पीड़ा भी हम भूल जाएँ और नपुंसकों की भांति पुरूषार्थहीन हो इन सबको अपनी नियति मान मौन हो जाएँ ... यही परामर्श है आपका और यही नीति है आपकी क्यों ... राजरत्न ? ' ' आपकी उग्र भावनाओं का मैं तिरस्कार नहीं करता , वीरवर । 'राजरत्न ने शांत स्वर में कहा- हमारे प्रिय युवराज और आपके साथ जो हुआ , उसे हम कदापि भूल नहीं सकते ... और हम सबको आपकी वीरता का भी भलीभाँति बोध है । फिर भी कृपया शांतचित्त होकर मेरी बात सुनें ! हम सब अपने - अपने अपमानों का बोझ उठाए अपना एक - एक पल काट रहे हैं , परन्तु मुझपर भरोसा करें तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ । बहुरा का पराभव होना निश्चित है । हम अपनी पुत्रवधू को ससम्मान विदा करा कर लाएँगे । उस विकट तांत्रिक बहुरा का मस्तक लज्जा के बोझ से झुकेगा और संभव है ... संभव है , आपकी खोई दृष्टि भी पुनः आपको प्राप्त हो जाए ... ' ' क्या कहते हैं राजरत्न ! ' चौंककर सेनापति ने कहा- ' राजवैद्य ने तो निरीक्षण करने के पश्चात् ऐसी कोई आशा नहीं जताई ... और आप कहते हैं ... मेरी खोई हुई आँख मुझे पुनः उपलब्ध हो सकती है ? ' ' अवश्य हो सकती है सेनापति ... ! तनिक धीरज धरें । ' सेनापति की समझ से बाहर की बात थी यह । भला आँखें भी क्या दाँतों की भांति पुनः उगती हैं ? असंभव ! सांत्वनावश कही गयी बातें हैं ये ऐसा संभव नहीं । एक ही नेत्र के सहारे रहना अब उसकी नियति बन चुकी है । चित्त में उदासी भर सेनापति शांत हो गये ।
और बखरी में !
____________________
विरहिणी अमृता फिर से मूक हो गयी थी । विरहाग्नि में उसकी हँसी और मुस्कुराहट विलीन हो गयी । पथराई आँखों से वह अपने कक्ष की दीवार पर प्रत्येक सूर्यास्त एक काली लकीर खींच देती । पिया मिलन की आस में लकीरों की संख्या बढ़ते - बढ़ते अब तक दो सौ को पार कर चुकी थी । • बरखा की बूंदें उसे बाण - सी चुभतीं और चंद्रमा की ज्योत्सना चुभन को द्विगुणित करती रहती । उपवन के पुष्प मन को नहीं भाते । पक्षियों का कलरव शोर प्रतीत होता । न भूख लगती न प्यास । उसे न अपनी सुध थी , न जग की परन्तु , विरहिणी अमृता की | चिन्ता छोड़ पोपली काकी और माया दीदी बहुरा की परिचर्चा में निमग्न थीं । माया दीदी और पोपली काकी ने अति विकट संयुक्त तांत्रिक अनुष्ठान प्रारंभ किया था । भैरव के समक्ष बहुरा का निस्पंद शरीर पड़ा रहता और पोपली काकी अपने अनुष्ठान करती रहती । माया दीदी भैरवी चक्र के घनघोर नृत्य में निमग्न बेसुध हो जाती । परिणामस्वरूप , बहुरा की चेतना अत्यंत धीरे - धीरे लौट रही थी । प्रथम माह के अनुष्ठान में उसके नेत्र खुले , परन्तु तन में स्पंदन नहीं आया । द्वितीय मास के समापन में उसके नेत्रों में स्पंदन आया तो दोनों | को और भी दुःख हुआ । बहुरा के स्पंदित नेत्र सदा सजल रहते । उसकी आँखों के कोर से अश्रु प्रवाहित होता रहता । माया से बहुरा का यह रूप देखा नहीं जाता । पोपली काकी तो दृढ़ रहतीं , परन्तु माया टूट कर बिखर जाती । ऐसे ही क्षण उसने पोपली काकी से नैराश्य भरे स्वर में कहा- ' हमारी पुत्री का प्रारब्ध क्या है काकी ? ... इसके निस्पंद तन के अर्द्ध चेतन ने क्या यों ही विवश बहते रहेंगे ? 'सांत्वना के हाथ माया के कंधे पर रखकर पोपली काकी ने कहा ' निराश मत हो माया ... ! हमारा निरंतर प्रयास व्यर्थ नहीं हो सकता । तुमने देखा न ... हमारे अनुष्ठान ने इसकी आँखों में चेतना का प्रसार प्रारंभ कर दिया । तनिक चैतन्य होने दे इसे । मैं तत्काल इसे पुर्नसंकल्पित कराऊंगी । जिस अमोघ मारण- पात्र का इसने सहसा ही संधान कर दिया था , उसे पुनर्प्रक्षेपित करना होगा इसे । यही विकल्प शेष है , पुत्री कुँवर को काल - पात्र ने क्षमा कर दिया ... क्यों किया यह तो रहस्य के आवरण में है , परन्तु इसे पुनर्प्रक्षेपण की दिशा बदलनी होगी । किसी अन्य पर उसके प्रहार प्रक्षेपण के उपरांत ही मेरी पुत्री पूर्ण चैतन्य होगी , अन्यथा नहीं ... विश्वास रख । धीरज रख ... शनैः शनैः इसका शेष तन भी चेतन हो जाएगा । धीरज रख पुत्री ... धीरज रख । ' ' और विकल्प भी क्या बचा है काकी ! ' माया ने अत्यंत कठिनाई से कहा ' धीरज ही तो रख रही हूँ ... इतने दिवसों से । ' पोपली काकी को विश्वास था । बहुरा चैतन्य होगी और अवश्य होगी परन्तु माया वास्तव में , आशा त्याग चुकी थी । बहुरा चैतन्य हो गयी तो यह चमत्कार ही होगा । फिर वह सोचती , क्या पूर्व में चमत्कार कभी हुए नहीं ? अवश्य हुए हैं ... तो अब क्या हुआ ? ... चमत्कार तो हो ही सकता है ।
""""""""''''''''
नृत्योत्सव के समापन के उपरांत देवी भुवनमोहिनी जब अपने शयनकक्ष में आयीं , उस क्षण रात्रि का तृतीय प्रहर व्यतीत हो रहा था । निद्रा का पूर्ण त्याग तो वर्षों पूर्व ही हो चुका था । शय्या पर | सोतीं तो भी अवस्था पूर्ण चैतन्य ही रहती थी । आज उनकी चेतना में दो छवियां छायी थीं - एक कुँवर दयाल और दूसरा युवराज चंद्रचूड़ चन्द्रचूड़ का अपूर्व समर्पण भाव उनकी चेतना को प्रभावित कर रहा था । प्रेम में प्राणों का निर्विकार विसर्जन और जीवन का ऐसा सहज अर्पण देवी के अंतस् को मथ रहा था । प्रेमावेश में जब चंद्रचूड़ ने उसके कक्ष में बलात् प्रवेश किया था , तब देवी ने उसकी उद्दंडता को उसका अक्षम्य अपराध माना था । परन्तु बाद के घटनाक्रमों ने उसके चरित्र को जिसप्रकार उजागर किया , वह वास्तव में अद्भुत था । फिर युवराज के प्रति माताश्री का अनन्य स्नेह भी उसके अंतस् को प्रायः विचलित करता रहता । प्रायः वे चन्द्रचूड़ के प्रसंग पर उसे समझाने का असफल प्रयत्न करती रहतीं । माताश्री को कदाचित् टंका कापालिक प्रकरण के पश्चात् ही मेरी साधना की क्षणिक अनुभूति हुई , अन्यथा अब तक तो उनकी दृष्टि में मैं अबोध - सामान्य युवती ही थी । अतएव , मेरी वैवाहिक चिन्ता में व्याकुल रहना , उनके लिए स्वभाविक ही था । ऐसे ही विचारों में मग्न उसने स्नान किया । नवीन श्वेत परिधान धारण किये , तदुपरांत सद्यः प्रस्फुटित सुगंधित पुष्पों से अलंकृत होने लगी । पुष्पों के सुवास ने उसके | मन और तन को सुवासित कर दिया । उसकी इच्छा हुई इन पलों को वह स्त्री - सुलभ कोमल स्पंदनों से भर दे । तत्काल ही इस व्यर्थ इच्छा पर वह स्वयं पर हँस पड़ी , परन्तु अगले हीक्षण उसकी पलकें लज्जा - भार से झुक गयीं । से चकित हो गयी थी वह अपनी मूर्खताओं पर । अनायास यह क्या घटित होने लगा उसके अंदर । वह तो मन और इच्छा के पार जा चुकी है । निर्विकार हो चुकी है वह । जगत के समस्त व्यापार और क्रियाकलापों के प्रति | उसकी चेतना पूर्ण तटस्थ हो चुकी है । सुख और दुख दोनों से पार जा चुकी चेतना में यह कौन - सा चोर - द्वार है ? विचलित हो उसने नेत्र बंद कर लिए . ध्यान में उतर गयी वह । शंखाग्राम के राजप्रासाद में कुँवर दयाल का यह प्रथम प्रभात था । बालारुण उदित हो रहा था और प्रसन्न कुँवर अपनी साधना सम्पूर्ण कर पीताम्बर धारण कर रहा था । इसी क्षण द्वार पर भुवनमोहिनी का पदार्पण हुआ । श्वेत - धवल रेशमी परिधान से सुशोभित एवं पुष्पों से अलंकृत उसका अलौकिक दिव्य विग्रह प्रभामय हो रहा था । द्वार पर रुककर वह मंद - मंद मुस्कुराई . उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ कुँवर के पार्श्व में कुछ क्षणों तक रुक कर भुवनमोहिनी ने कहा - ' शुभ प्रभात प्रिय ! ' कक्ष में तारसप्तक की भाँति उसके मधुर स्वर कंपित हुए तो कुँवर ने पलटकर देखा । उसकी दृष्टि गुरु को अनायास देख हतप्रभ हुई और चरण वंदना हेतु वह तत्काल बढ़ा । वंदना हेतु कुँवर की झुकी बाँहों को स्नेहपूर्वक पकड़कर उठाते हुए देवी ने कहा - ' इस अनावश्यक औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है , प्रिय ! तुम मेरे मित्र हो ... तथा सहस्त्रदल नृत्य की तुम्हारी समस्त साधना मेरे साथ मित्रवत् ही सम्पन्न होगी ! " ' शिष्य को अतिरिक्त मान प्रदान कर रही हैं देवी ! ' ' और तुम अतिरिक्त विनम्रता का प्रदर्शन कर रहे हो प्रिय ! मैं देवी कामायोगिनी नहीं ... भुवनमोहिनी हूँ तथा तुम्हारी भांति मुझमें अलौकिक चेतना भी नहीं है , प्रिय ! मैं तो अत्यंत साधारण एक सामान्य नारी हूँ । साधना के फलस्वरूप मेरी चेतना का विस्तार मात्र हुआ है । इस चेतना विस्तार के फलस्वरूप अनेक अतीन्द्रिय शक्तियां भी मुझमें समाहित हुई हैं , परन्तु मानवीय संवेदनाओं से मैं विलग नहीं हूँ । मेरे अंतस् में भी एक अनुरागी हृदय है , जिसमें समस्त मानवीय भावनाएँ निहित हैं । ' ' नहीं देवी ... आप अवश्य मेरी परीक्षा ले रही हैं ! ' ' व्यर्थ तर्क का औचित्य नहीं है , प्रिय ! तुम्हारे प्रति मेरे अंतस् में जो अनुराग उत्पन्न हो चुका , वह अत्यंत स्वाभाविक है । परन्तु , इसे मेरी वासना मत समझना प्रिय ... ! यह प्रेम है ! शिव - संग शक्ति का जब तुम्हारे अतंस् में सायुज्य होगा तो तुम स्वयं मेरी भावना को भलीभाँति जान लोगे । इस क्षण विवाद उत्पन्न न कर मेरी बात सुनो ... तुमसे बातें करने ही आयी हूँ मैं । ' ' क्षमा करें देवी ... अपने अज्ञानी शिष्य को क्षमा करें ! आपके गूढ़ - तत्त्व की बातें समझने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ ... परन्तु मेरे अंतस् में आपके प्रति जो श्रद्धा भाव है , वह अपरिवर्तनीय है देवी ! आप मुझे मित्र कहें , शिष्य कहें , वत्स कहें अथवा पुत्रवत् ज्ञान की शिक्षा दें स्वीकार है मुझे ! ' कहकर कुँवर पुनः करबद्ध हो गया । ' निश्छल ... अति निर्मल हो तुम प्रिय ... ! सर्वथा निर्दोष ! '
तत्पश्चात् उन्होंने कहा - ' पारद - विद्या काल - क्रम में क्यों समाप्त हो गयी ... इसका कारण जानते हो प्रिय ? ' ' नहीं देवी ... नहीं जानता । ' ' मैं बताती हूँ , सुनो ... परन्तु अपने वचनों का प्रारंभ करूंगी चक्रों से । तुम अपनी चेतना को ज्ञान- मुक्त कर रिक्त कर दो ... भरी हुई | स्लेट पर मैं कुछ भी अंकित नहीं करूंगी । ' ' जैसी आज्ञा देवी ... ! मैं अपनी चेतना को अबोध मान आपकी वाणी पर केन्द्रित कर देता हूँ ... उपदेश दें देवी ! ' ' तुम्हारी इसी निर्दोषिता पर मैं मुग्ध हूँ ! पूर्ण मनोयोग से • सुनना सर्वप्रथम चक्रों का परिचय प्राप्त करो प्रिय ! जीव के शरीर में चक्रों का कार्य शरीर में अपने अधीन क्षेत्र विशेष को संचालित करते रहना है । पशुओं के शरीर का भी संचालन चक्रों के माध्यम से होता है तथा मनुष्यों का भी । परन्तु , पशु की चेतना एक स्तरीय होती है और मानव का द्विस्तरीय क्रोधित पशु नहीं जानता कि वह क्रोध में है । परन्तु , मनुष्य की चेतना जब क्रोधित होती है , चिन्तित होती है अथवा कामुक होती है तो उसकी चेतना के द्वितीय स्तर को इसका ज्ञान रहता है कि वह क्रोध में है , चिन्ता में है अथवा कामावेश में है । पशु के संचालक - चक्र उसके पैरों में होते हैं । इन चक्रों में प्रमुख संचालक चक्रों की संख्या भी सात होती हैं और मनुष्य के भी प्रमुख चक्र सात ही हैं । इन चक्रों का विशेष परिचय फिर दूंगी । अब पारद - विद्या की संक्षिप्त चर्चा कर देती हूँ । यह तो तुम्हें ज्ञात ही है कि जो प्रतिपल विनष्ट हो रहा है , वही शरीर है । शरीर के कोष मृत होते रहते हैं तथा नवीन कोषों का जन्म होता रहता है और जीवन चक्र चलता रहता है । परन्तु , युवा - काल के समापन के पश्चात् , नवीन जीवन - कोशिकाओं के उत्पन्न होने की दर घटती जाती है तथा मृत कोशिकाओं की संख्या बढ़ती जाती है । इसप्रकार , जीवन प्रति - पल विनष्ट होता जाता है । जीवन कोष के निर्माण हेतु उत्तरदायी रसायन का उत्पादन जिस बिन्दु से सम्पन्न होता है , उसे तंत्र में अमृत कहा गया है , प्रिय ! इसी बिन्दु को उत्प्रेरित कर योगी - गण अमृत - पान करते रहते हैं । मुझे विश्वास है , देवी कामायोगिनी ने जिह्ना को उलटकर नासिका रंध्रों से इस अमृत - पान की प्रक्रिया का ज्ञान तुम्हें अवश्य कराया होगा । ' हाँ देवी ... ! ' कुँवर ने कहा- ' इस प्रक्रिया की साधना मैं नित्य करता हूँ । ' ' पता था मुझे ... ! ' भुवनमोहिनी मुस्कुराई . ' पारद - विद्याओं का मूल यही है प्रिय । कपाल - रंध्र से प्रवाहित होने वाला यही रसायन पारद - विद्याओं का मूल है । पारद - विद्याओं के ज्ञाता , जीवन के इसी अमूल्य उपादान को प्रकृति से प्राप्त कर मानव तन का कायाकल्प करने में समर्थ होते हैं ... परन्तु यह अप्राकृतिक प्रक्रिया है प्रिय तथा प्राकृतिक जीवन चक्र का अतिक्रमण उचित नहीं । मनुष्य की कुण्डलिनी शक्ति के सम्पूर्ण जागरण के पश्चात् जब शिव संग शक्ति का सायुज्य होता है तो साधक के कपाल रंध्र स्वयमेव अमृत वर्षा करने लगते हैं । कहकर भुवनमोहिनी हँस पड़ी । उत्सुक कुँवर देवी की इस अकारण हँसी पर उन्हें अपलक देखने लगा । तभी हँसते हुए ही भुवनमोहिनी ने पुनः कहा- मुझे हँसी क्यों आयी ... यही चिन्ता कर रहे हो न प्रिय ? ... मैंने कहा न , कुण्डलिनी के जागरण का परिणाम होता है अंतर्जगत में अमृत - वर्षा ! मैं इसीलिए हँस पड़ी ... क्योंकि तब साधक को इसकी न आवश्यकता होती है , न कोई इच्छा ही शेष रहती है । ' कहकर भुवनमोहिनी पुनः हँसने लगी ।द्वार पर दासी के आगमन ने भुवनमोहिनी की हँसी पर विराम लगा दिया । दासी सुरभि उपस्थित हो विनयावनत खड़ी थी । ' कहो सुरभि ! ' भुवनमोहिनी ने मृदुल मुस्कान के साथ कहा ' माताश्री का संदेश लेकर आयी हो ? ' ' हाँ देवी ! ' उसने सादर कहा - ' आपके कक्ष से होकर आयी हूँ । राजमाता भोजन कक्ष में अल्पाहार हेतु प्रतीक्षा कर रही हैं । ' ' उत्तम ! ' कहकर देवी कुँवर की ओर उन्मुख हुई , ' चलो प्रिय , माताश्री हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं । ' भोजन - कक्ष में पहुँचकर भुवनमोहिनी थोड़ी असहज हो गयी । • प्रसन्न मुद्रा में युवराज चन्द्रचूड़ वहाँ उपस्थित था । भुवनमोहिनी को देखते ही युवराज उनकी अभ्यर्थना में उठकर खड़ा हो गया । ' आओ कुँवर ! ' राजमाता ने कुँवर दयाल से मुग्ध भाव में कहा ' स्वागत है तुम्हारा । ' कुँवर दोनों को प्रणाम कर अपने आसन पर विराजा । भुवनमोहिनी भी मुस्कुराती बैठ गयीं । तत्काल सेविकाओं ने सुगंधित पेय सहित प्रातःकालीन अल्पाहार परोसना प्रारंभ कर दिया । ' मुझ पर अभी तक आप खिन्न हैं देवी - अपने अभिवादन पर , भुवनमोहिनी की उदासीनता देख चन्द्रचूड़ ने धीरे से कहा । ' क्यों युवराज ? ' भुवनमोहिनी ने सहजतापूर्वक कह दिया किस कारण आपने ऐसा समझा ? ' ' आपने मेरे अभिवादन को नहीं स्वीकारा देवी ' ' अनौपचारिकताओं की इतनी आवश्यकता नहीं है युवराज । आपके साथ आज भोजन कक्ष में मैं सम्मिलित हूँ ... तो इसका अर्थ ही यह है कि आपके साथ अब मैं सहज हूँ । आप भी सहज हो जाएँ तो उत्तम हो । ' ' भोजन ग्रहण करो पुत्र ! ' राजमाता ने हस्तक्षेप करते हुए कहा ' इसके उपरांत वार्तालाप प्रारंभ करना । ' राजमाता ने पुनः कुँवर दयाल से मुस्करा कर कहा- तुम भी • आतिथ्य स्वीकार करो कुँवर ... भोजन प्रारंभ करो ! ' ' यह तो अनुचित है माते ' ! कुँवर ने हँसते हुए कहा- ' मैं भी तो आपका पुत्रवत् ही हूँ ... फिर मेरे लिए अन्य सम्बोधन क्यों ? ' राजमाता हँस पड़ी - ' उत्तम ! तुम्हें अब कुँवर नहीं कहूँगी ... भोजन ग्रहण करो पुत्र ! ' राजमाता की बात पर सभी हँस पड़े । इसके पश्चात् सब ने मौन होकर प्रभातकालीन जलपान प्रारंभ कर दिया । राजप्रासाद का स्वादिष्ट जलपान ग्रहण करने के पश्चात् सर्वप्रथम राजमाता ने ही मौन - भंग कर कुँवर से कहा- तुम्हारे अंचल में सब कुशल - मंगल तो है न पुत्र ? ... तुम्हारे सौभाग्यशाली माता - पिता तथा अन्य परिजन स्वस्थ एवं प्रसन्न तो हैं ... तथा अंचल की प्रजा भी सुखी - सम्पन्न है न पुत्र ? ' ' कमला मैया की कृपा से सभी सुखपूर्वक हैं माता ... ! " कुँवर के कहते ही भुवनमोहिनी ने तत्परता से कह दिया - सिवा आपके कुँवर पुत्र के . 'राजमाता चौंकी - ' क्या तात्पर्य है तुम्हारा ? ' और कुँवर की सारी कहानी खुल गयी ! भुवनमोहिनी ने कुँवर की आद्योपांत कथा सुना दी । वियोगिनी अमृता के प्रसंग ने राजमाता सहित युवराज चन्द्रचूड़ को व्यथित कर दिया । उनके नयन सजल हो गए . आमोद प्रमोद के वातावरण में करुणा का सोता फूट पड़ा । देवी भुवनमोहिनी की सुहासिनी मुखाकृति ने संवेदनाविहीन हो अपने अंतस से आत्मालाप किया- ' मेरी अबोध - माता अभी तक लौकिक भावनाओं की आसक्ति के भंवर में फँसी हैं । ज्ञान के अभाव में सम्पूर्ण जीवन मूर्च्छा में व्यतीत हो जाता है और अज्ञानी मानव क्षुद्र संवेदना में ही फँसा रहता है । ' पुत्री के मुखमण्डल पर मंद हास के आभास से चकित राजमाता ने कहा- ' तुम तो सिद्ध साध्वी हो पुत्री , परन्तु फिर भी चकित हूँ मैं ... मेरे प्रिय पुत्र की वेदना ने तुम्हें किंचित भी व्यथित न किया ... आश्चर्य है मुझे ! ' ' आपकी संवेदनहीन पुत्री समस्त मानवीय भावनाओं से विरक्त हैं , माते ! ' युवराज चंद्रचूड़ ने उच्छवास लेते हुए कहा- उच्च स्तर की साधिका हैं ये । ' ' मेरे प्रिय शिष्य को करुणा नहीं , ज्ञान की आवश्यकता है ! ' भुवनमोहिनी ने दृढ़ स्वर में कहा- इसका दिव्य - जीवन इन सांसारिक लालसाओं के निमित्त नहीं है । ' ' मैं आपसे सहमत नहीं देवी ! ' तीव्र चन्द्रचूड़ ने प्रतिवाद किया ' संन्यास साधना ने आपके जीवन को रसविहीन कर दिया है , देवी ! उग्र साधना के परिणाम ने आपके अंतस् , आपके प्राण और आपके सम्पूर्ण चेतन - रस को हिम के सदृश घनीभूत कर दिया है ... परन्तु यह जग जीवन्त है देवी प्रकृति आपकी तरह स्पंदनविहीन नहीं । पीड़ा होती है तो आह निकलती है । हमारी वेदना , जल बनकर हमारे नेत्रों में उभरती है । प्रसन्नता में हम हँसते और दुख में रोते हैं । आप कहती हैं यह अज्ञानता है , परन्तु हमारी पूँजी , हमारे धन - वैभव और सम्पदा - सब कुछ हमारी भावनाएँ , हमारी संवेदनाएँ ही हैं देवी , जिनसे आप बलात् मुक्त होना चाहती हैं । कुँवर दयाल की पीड़ा का आभास आपको नहीं , परन्तु मुझे है ... आपकी स्नेहमयी माता जी को है । अन्यथा न लें तो मैं कहूँगा ... आप तो निर्मोही हैं देवी ! आपके लिए मैंने अपना सर्वस्व त्यागकर प्रेम किया और प्रेम की पीड़ा को समझता हूँ मैं प्रिय कुँवर की वेदना ने संतप्त किया है मुझे । मुझे तो मेरे प्रेम के प्रतिदान में , आप जैसे | निर्मोही की वितृष्णा ही मिली , परन्तु इन्होंने तो पाकर भी खो दिया है उसे इनकी पीड़ा का आभास भला आपको कैसे होगा ? ' • विरागिनी की मुखाकृति पर कोमल भावनाएँ उभरने के पूर्व ही विलीन हो गयीं । भावनाओं को कठोरतापूर्वक अतिक्रमित करते हुए भुवनमोहिनी ने अपने ओष्ठ को अधर पर दबा मुख पर उभरने वाले प्रेम भाव को रोक स्वयं को बलात् भावशून्य कर लिया । परन्तु अंतस् में उठ रहे चेतना के प्रवाह को वह रोक न पायी । राजमाता का हृदय प्रफुल्लित हो गया । उसमें नवीन आशाओं की कोंपलें निकल आयीं । प्रथम बार ही उन्हें युवराज की मेधा और उसके अंतर्व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त हुआ था । गद्गद् हो गयीं वह । कुँवर के नेत्रों में भी युवराज के प्रति स्नेह और प्रशंसा के भावउभर आए . | प्रारब्ध ही विपरीत है , अन्यथा चन्द्रचूड़ से उपयुक्त जीवन साथी और कौन हो सकता था देवी के लिए परन्तु वह तो शिष्य है • देवी का । इस नितांत व्यक्तिगत विषय पर विचार व्यक्त करने का उसे अधिकार ही नहीं , अतएव वह मौन ही रहा । मौन को चंद्रचूड़ ने ही भंग करते हुए पुनः कहा- मैंने अपने मन प्राण और जीवन आपको अर्पित कर दिये हैं देवी ! आप इसे | स्वीकारें अथवा ठुकराएँ , इसकी चिन्ता नहीं मुझे । मेरे हृदय की प्रत्येक धड़कन आपकी है , अंतस् का स्पंदन आपका है और अब तो आपके प्रति मेरे प्रेमभाव ने प्रेमोन्माद का रूप ग्रहण कर लिया है देवी .... ! जीवन पर्यन्त इसमें आपकी ही कामना और भी घनीभूत होती रहेगी । ' ' यह उन्माद है तुम्हारा ! ' भुवनमोहिनी ने शांत किन्तु विचलित वाणी में कहा- ' और तुम्हारे उन्माद से मेरा क्या सम्बंध ? ' ' मेरा यह उन्माद तो आपके ही लिए है देवी ! " ' परन्तु है तो यह तुम्हारा ही । ... बाल - हृदय चन्द्रमा के लिए उन्मादित हो जाए तो उसकी माता उसे बहला - फुसला देती हैं । बहलाती भी इसीलिए है , क्योंकि शिशु अबोध होता है ... परन्तु तुम तो अबोध नहीं चन्द्रचूड़ ! " चन्द्रचूड़ ने कुछ नहीं कहा , किन्तु राजमाता व्यथित हो गयीं और वातावरण बोझिल हो गया । अंततः इस असहनीय मौन को राजमाता के कथन ने ही भंग किया । चन्द्रचूड़ को इंगित कर अपनी पुत्री से उन्होंने कहा- दो पदार्थ आपस में संयुक्त न हों तो इस धरा का अस्तित्व बिखर जाए , दो शरीर न मिलें तो जीवन बिखर जाए तथा दो मन आपस में न मिलें तो समस्त सौन्दर्य ही व्यर्थ हो जाए . इसी प्रकार , पुत्री ! यदि दो आत्माएँ न मिलें तो परमात्मा के अस्तित्व में होने का कोई विकल्प ही न रहे । परन्तु ये बातें तुमसे क्यों कह रही हूँ मैं ? ... तुम तो स्वयं परम ज्ञानी - विदुषी हो । जो कहना है ... अपने पुत्र से कहूँगी मैं ... सुनो पुत्र ! ' राजमाता ने चन्द्रचूड़ से दृढ़ स्वर में कहा- जब किसी को प्राप्त करने के लिए मन पर धुन सवार रहती है और इस बिन्दु पर उसकी पूर्ण एकाग्रता हो जाती है , तब अंतस् की गहराई में निहित शक्तियाँ प्रकट होती हैं ।... और निश्चित जानो , मैं उस क्षण की तब तक प्रतीक्षा करती रहूँगी पुत्र , जब तक तुम्हारे | अंतस् की वे शक्तियां प्रकट न हो जाएँ । | राजमाता की उक्ति ने भुवनमोहिनी की चेतना झंकृत कर दी । ऐसा प्रतीत हुआ मानो चन्द्रचूड़ के प्रेमालाप में उसकी केन्द्रीय भावनाओं का समस्त हिम पिघल कर रह जाएगा ।