Anokhi Prem Kahani - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

अनोखी प्रेम कहानी - 3

वीरा की नींद अचानक उचट गयी। समस्त तन में पीड़ा और जलन। मशाल बुझ गई थी। पूरे कक्ष में अँधेरा छाया था। उठकर उसने बुझे मशाल को मंत्रोच्चारण से पुनः प्रज्वलित किया। सारे कक्ष में जलती मशाल की चर्बी की गंध के साथ पीला-डरावना प्रकाश फैल गया।

नींद से अचानक जगने का कारण ढूँढ़ती उसकी आँखें कक्ष में घूमने लगीं। क्या हो गया है उसे? विगत कई दिनों से उसकी व्यग्रता बढ़ने लगी थी। कापालिक क्रियाओं में त्रुटियां होने लगी थीं। आज भी याद कर उसे स्वयं पर क्रोध आया। क्रोध की अधिकता से उसका तन-मन जल उठा।

इस बार वह सचेत थी। उसने निश्चय कर लिया था कि श्रावण के ऋतु-काल में वह रानी पर मारणतंत्र का प्रयोग करेगी। विगत कार्त्तिक के पश्चात् उसने निरंतर आठ महीनों तक रानी की कोख पर कापालिक तंत्रों का प्रहार किया था। लगातार विनाशक शक्तियों के प्रयोग ने उसकी सिद्धियों पर विपरीत प्रभाव डालना प्रारंभ कर दिया था। अपनी शक्ति को अक्षुण्ण रखने हेतु उसे अत्यंत अघोर कर्म करते रहना पड़ता था। इसीलिए, इस बार श्रावण में उसने इस समस्या को ही समाप्त करने का निश्चय किया था।

काली अंधियारी रात्रि श्मशान की तरह शांत थी कि तभी अचानक कक्ष के बाहर जोरों की आंधी आई और वर्षा का ताण्डव शुरू हो गया। यह श्रावण की पहली वर्षा थी, जो झूमकर आई थी।

बरसात की फुहारों के साथ शीतल पवन का तीव्र झोंका कक्ष के अंदर आया। प्रज्वलित मशाल की अग्नि लहराई, परन्तु जलती रही और जलता रहा वीरा का युवा तन!

व्यग्र होकर वह कक्ष में स्थापित अग्निकुण्ड के समक्ष वज्रासन लगाकर बैठ गई. कुण्ड के पास ही सिन्दूर से उसने श्रावण मास की वर्गाकार तिथियां बनाई थीं। चार स्थान पर उसने एक-एक कौड़ी रख छोड़ी थी। चारोें कौड़ियों को देख पहले वह मुस्कुरायी, फिर भयंकर अट्टहास किया।

श्रावण की चारों तिथियां भरोड़ा राज की रानी के ऋतु-काल के चारों दिवस थीं। प्रथम दिवस के प्रारंभ में अभी दो दिन शेष थे। दो दिनों के पश्चात् वह रानी पर सीधे मारणतंत्र का प्रयोग करेगी, यह सोचते ही उसने फिर से विकट अट्टहास किया।

वीरा ने व्याकुल होकर तीक्ष्ण धार वाले छुरे से अपने फूल से कोमल बाएँ हाथ को चीरा। तत्क्षण रूधिर की धारा बल्ल-बल्ल कर बहने लगी। वीरा ने बहते हुए रूधिर को नरमुण्ड में भरना शुरू कर दिया।

तभी एक लम्बी-चौड़ी काठी का वृद्ध जाने कहाँ से अचानक आ उपस्थित हुआ। वृद्ध के शीश पर जटाजूट था और आनन पर लम्बी श्वेत दाढ़ी। उसके गले में बाल-नरमुण्डों की माला थी और मस्तक पर लाल सिंदूर का टीका। कमर पर लाल वस्त्रा धारण किये उस व्यक्ति के हाथ में त्रिशूल था।

काला-कलूटा और भयानक डरावने उस व्यक्ति को देखते ही वीरा की आँखों से अंगारे बरसने लगे।

'तुम्हारी समस्त कापालिक सिद्धियां व्यर्थ हो गयीं...अब क्या कहने आए हो?' क्रोघावेश में बहुरा ने कहा।

कापालिक ने कुछ नहीं कहा। वह पूर्ववत् मौन खड़ा रहा तो बहुरा गोढ़िन ने तिलमिलाकर दुबारा कहा-' चुप क्यों हो कापालिक? ... उस तुच्छ नचनिया ने तुम्हारी शक्तियों को निष्फल कैसे कर दिया? क्या है वह? छोटे-मोटे तंत्रों की सिद्धि से कौव्वों को छोटी-मोटी शक्ति देने वाले तांत्रिक नर्त्तक ने मेरी समस्त साधना निष्फल कर दी और तुम मुँह लटकाए मेरे पास लौट आए. ... क्या समझा था तुमने...

मैं तुम्हारी आरती उतारूंगी? जाओ, चले जाओ यहाँ से...मैं महाकाल को जाग्रत कर रही हूँ। अब सबसे पहले उस राजरत्न मंगल की ही आहुति होगी। ...जाओ...चले जाओ यहाँ से। '

कहते-कहते बहुरा गोढ़िन ने भूमि से चावल के दाने उठाकर कापालिक पर फेंके. चावल के दानों का स्पर्श होते ही कापालिक का शरीर काँपा। आँखों में भय व्याप्त हो गया और क्षण भर में ही उसकी आकृति विलीन हो गयी।

हताशा से भरी वीरा ने नृत्य करते मंगल पर अग्निबाण का प्रहार किया। अग्निबाण से तप्त मंगल का तांत्रिक नृत्य फिर भी न रूका। वीरा ने दूसरा बाण मारा। मंगल का कक्ष तप्त होकर गर्म होने लगा और देखते ही देखते सम्पूर्ण कक्ष में अग्नि की लपटें उठने लगीं।

ताप से तप्त मंगल फिर भी नृत्य करता ही रहा। वीरा ने अट्टहास करते हुए अपना तीसरा और अंतिम अग्निबाण चलाया। शरीर में जलन की मर्मांतक पीड़ा उठी, परन्तु मंगल का नृत्य न रूका।

अपने कक्ष में हँसती हुई वीरा उठकर खड़ी हो गई. नरमुण्ड में भरे रूधिर को चुल्लू में भर-भर कर उसने अपने लम्बे खुले केशों में लगाया। उसके लम्बे-घने-काले और खुले केश रक्त में सनकर वीभत्स हो गए. इसी रूप में उसने कई तांत्रिक मुद्राएं एक-एक कर धारण कीं और फिर वह नृत्य करने लगी। प्रसन्नता में नृत्य करती बहुरा गोढ़िन अब संतुष्ट थी। उसने रानी गजमोती के तांत्रिक रक्षा-कवच राजरत्न का सफलतापूर्वक भेदन कर दिया था। अब यदि रानी ने आज गर्भधारण कर भी लिया तो वह उस भ्रूण को सहज ही विनष्ट कर देगी। इस विचार ने उसे और भी आध्ाद से भर दिया। वह नृत्य में और भी उन्मुक्त हो निमग्न गई. महाकाल की प्रतिमा के अधरों पर तभी मुस्कान उभरी।

क्या पता, महाकाल क्यों मुस्कुराए?

अगले ही दिवस वीरा जान गई. राजरत्न मंगल जीवित था। वैद्य की परिचर्या से कोई विशेष लाभ न हुआ, परन्तु कमला माँ की आराधना ने अद्भुत चमत्कार दिखाया।

अगली रात्रि जब मंगल ने माता की वंदना कर, अपना तांत्रिक नृत्य पुनः प्रारंभ किया तो उसके तन-मन में इतनी स्फूर्त्ति अनुभव हुई, जितनी उसने अपने नवयौवन-काल में भी कभी न की थी।

निरंतर तीन बार अग्निवाण का प्रक्षेपण कर चुकने के पश्चात् वीरा अगर चौथी बार भी उसका प्रयोग करती तो यह शक्ति निश्चय ही वीरा का ही नाश कर देती। वीरा को भलीभाँति इसका ज्ञान था। इसीलिए, उसने मंगल को छोड़ कर रानी गजमोती पर ही कापालिक शक्तियों के प्रहार का निश्चय कर लिया।

कई अघोर कर्मों से निवृत्त होकर वीरा अपने साधना-कक्ष में आयी। कक्ष की सामने वाली दीवार के आगे भगवती पराशक्ति महाकाली की विकराल अष्टभुजी प्रतिमा शव पर आरूढ़ थी। प्रतिमा के समक्ष हवन-कुण्ड था, जिसका दुर्गन्ध-युक्त धूम्र संपूर्ण कक्ष को आच्छादित कर रहा था। हवनकुण्ड के तीनों तरफ वीरासन में तीन डाकिनियाँ बैठी थीं। तीनों के लम्बे केश खुले थे। उनके गले में हड्डियों की माला लटक रही थी। कानों में हड्डी के कुण्डल थे। उन तीनों के होठों से अस्फुट बुदबुदाहटें निकल रही थीं। बुदबुदाती हुई डाकिनियां थोड़ी-थोड़ी देर में अपने हाथों को उठा कर कुण्ड में कोई पदार्थ डालती जाती थीं, जिससे दुर्गन्धयुक्त धूम्र और भी गहन होता दीख रहा था।

हवनकुण्ड के पास ही गुंथे हुए आँटा से एक विचित्र-सी मानवाकृति बनाकर रखी गयी थी। उस पिण्ड पर सिन्दूर पुता था और उसकी ग्रीवा में जावा के फूलों की माला पहनायी गयी थी।

बहुरा के प्रविष्ट होते ही उनमें से एक डाकिनी उठी। उसने वीरा के मस्तक पर सिन्दूर का गोल टीका लगाया। उसके गले में बन्दर की खोपड़ियों की माला पहनायी और मदिरा से भरा पात्र उसे अर्पित कर दिया।

बहुरा ने मंत्रोच्चार करते हुए थोड़ी मदिरा हवन-कुण्ड में डाली और वीरासन में बैठकर शेष मदिरा गटागट पी गई. अपनी आँखें बंदकर उसने थोड़ी देर तक मंत्रोच्चार किया, तत्पश्चात् प्रतिमा की तरफ मस्तक उठाकर उसने अपनी आँखें खोलीं। मदिरा के मद से बोझिल उसकी आँखें गूलर के फूल की तरह लाल हो रही थीं। वीरा या बहुरा गोढ़िन ने फिर मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया परन्तु उसकी दृष्टि प्रतिमा पर ही स्थिर रही।

तभी तीनों डाकिनियों ने मंत्र बुदबुदाते हुए चावल के रंगे हुए पीले दानों को एक साथ हवनकुण्ड के ऊपर हवा में उछाला। सभी दाने हवा में ही परिवर्तित होकर कौड़ियों में बदल गए. बहुरा गोढ़िन ने तत्परतापूर्वक गुंथे हुए आँटे के पिंड पर एक साथ कई कीलें गाड़ीं और मंत्रोच्चार समाप्त कर उठ गई.

हवनकुण्ड के ऊपर सैकड़ों कौड़ियां हवा में उछल रही थीं। तभी बहुरा गोढ़िन नृत्य की मुद्रा में आ गई. नृत्य की प्रथम आवृत्ति समाप्त कर उसने आदेशात्मक स्वर में कौड़ियों को सम्बोधित किया-'जाओ ऽ-ऽ ऽ...रानी गजमोती की कोख में शीघ्र्रतापूर्वक प्रविष्ट होकर...रानी के अंग-प्रत्यंग को विदीर्ण करते हुए निकलो...जाओ महाकाल...जाओ।'

कहकर उसने फिर से नृत्य की आवृत्ति शुरू की। सारी कौड़ियां आपस में भयंकर ध्वनि करते हुए टकराईं, फिर द्रुत गति से पवन को चीरते सांय-सांय की ध्वनि के साथ कक्ष से बाहर निकल गईं।

बहुरा का नृत्य और भी द्रुत हो गया। तीनों डाकिनियों ने फिर से हवनकुण्ड में पूर्व पदार्थ होम करते हुए मंत्रोच्चार शुरू कर दिया।

बहुरा की दोनों पलकें बंद थीं और उसके नृत्य की आवृत्तियों की गति बढ़ती ही जा रही थी। तभी तीनों डाकिनियों की भयंकर चीखें गूंजीं। बहुरा की पलकें खुलीं तो विस्मय से खुली ही रह गईं। नृत्य थम गया। उसने विस्फारित नेत्रों से देखा-सांय-सांय की तीव्र ध्वनि से सारी कौड़ियां वापस कक्ष में आकर डाकिनियों के अंग-प्रत्यंग में प्रविष्ट हो रही थीं और वे मरणांतक पीड़ा से छटपटाती चीत्कार कर रही थीं।

बहुरा को अपनी आँखों पर विश्वास न हो रहा था। तीनों डाकिनियाँ उसकी सहायक थीं। इन डाकिनियों का उपयोग अत्यंत विशिष्ट परिस्थितयों में ही वह करती थी और आज उसकी आँखों के समक्ष ही तीनों विनष्ट हो रही थीं और असहाय बहुरा उनकी सहायता में सर्वथा असमर्थ थी।

विदीर्ण होते तीनों के शरीर क्रमशः अदृश्य होने लगे। बड़े कष्ट से उनका समवेत स्वर गूंजा-'बहुरा सावधान! अब भूलकर भी रानी गजमोती और उसके गर्भस्थ भ्रूण पर अपनी शक्तियों का अपव्यय न करना, अन्यथा तुम्हारी शक्तियां लौटकर तुम्हें ही विनष्ट कर देंगी...आह...आह...विदा...!'

बहुरा की इच्छा हुई, वह अपने लम्बे केश को नोंच-नोंच कर फेंक दे, अपनी अंगुलियों से अपने नेत्र फोड़ ले अथवा कुण्ड पर ही मस्तक पटककर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।

विक्षिप्तावस्था में उसे कुछ समझ न आया। क्या करे वह? महाकाल की पराजय! नहीं...नहीं...असंभव है यह...असंभव! फिर वह कौन-सी शक्ति है, जिसने महाकाल का मुख मोड़ दिया। कौन-सी शक्ति है वह...कौन-सी?

विक्षिप्त बहुरा का सिर चकराया और लहराते हुए उसका शरीर वहीं कुण्ड के समक्ष अचेत होकर गिर पड़ा।

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