Anokhi Prem Kahani - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

अनोखी प्रेम कहानी - 10

बटेश्वर स्थान का गंगा-घाट और उससे लगा विशाल भू-भाग, नर-नारियों के हास-परिहास और हलचलों से भर गया था। सैकड़ों बीघे भू-भाग पर सहस्त्रों शिविर तथा तम्बुएँ। शिविरों के लिए निर्मित मार्ग तथा उनके किनारे कतारों में गाड़े गये मशालों की पंक्तियाँ।

प्रत्येक शिविर समूह के साथ विस्तृत भूमि पर रसोइये, सेवकों तथा अंगरक्षकों के निवास निर्मित किये गये थे तथा शिविरों में आये राजे-रजवाड़े, जमींदारों की पालकियाँ, घोड़े एवम् बैलगाड़ियों के लिए अलग से स्थान घेरा गया था।

इनमें राज भरोड़ा का शिविर सबसे विस्तृत था। शिविरों के चारों तरफ वीरवर भीममल्ल, राजरत्न मंगल, वैद्यराज रसराज तथा कुँवर नटुआ दयाल सिंह के लिए चार अलग-अलग सुसज्जित शिविर बनाये गये थे।

पाकशाला के कर्मचारी, दास-दासियाँ, कहार एवम् प्रहरियों के लिये अलग-अलग शिविर थे। सम्पूर्ण भूमि को बल्लों से घेरा गया था। शिविरों में आने-जाने के लिए भूमि को समतल कर सुन्दर पथों का निर्माण किया गया था। इन पथों को चिकनी मिट्टी से लीप कर किनारों में नयनाभिराम अल्पनाएँ रची गयी थीं।

घाट पर नौकाओं के आगमन का निरंतर प्रवाह सूर्यास्त के उपरांत भी जारी था। इस अवसर विशेष हेतु घाट का विस्तार कर मिट्टी की अनेक सीढ़ियां काट कर बनाई गयी थीं तथा चारों तरफ बड़ी-बड़ी मशालें लगाई गई थीं।

घाट के दोनों तरफ कोस भर की दूरी तक खाली नौकाएँ लंगर डाले खड़ी थीं।

विजयादशमी के दिन प्रत्येक वर्ष यह स्थल इसी प्रकार जन-समूहों एवं उनके कोलाहल से भर जाया करता था।

गाय-बैल-भैंस और घोड़े-हाथियों के साथ-साथ बकरियाँ और विभिन्न पशु-पक्षियों की बिक्री के अतिरिक्त, काष्टनिर्मित सामग्री तथा जड़ी-बूटियों के विशाल बाज़ार सजाये जाते।

खाद्य-सामग्री एवम् मिठाइयों की दुकानों की कतार लग जाती। नट-नट्टिनों के अतिरिक्त औघड़ों-कापालिकों-सिद्धों से पूरा प्रांगण भर जाता। चारों ओर खेल-तमाशे और कुश्तियों के दंगल का शोर होता रहता परन्तु, इस मेले का मुख्य आकर्षण था विख्यात नर्तक-नर्तकियों की नृत्य प्रतियोगिता।

इस प्रतियोगिता के लिए बटेश्वर स्थान के मध्य विस्तृत मंच का निर्माण होता, जहाँ अंग-महाजनपद के कलाकार बड़े उत्साह से भाग लेते।

मेले में उपस्थित सहस्त्रों नर-नारी राज भरोड़ा के कुँवर नटुआ दयाल सिंह और बखरी-सलोना से आयी चौधराइन बहुरा गोढ़िन की रूपमती पुत्री अमृता के नृत्य की प्रतीक्षा पूरी उत्सुकता से कर रहे थे।

अलग-अलग समूहों में अलग-अलग बातें हो रही थीं। परन्तु बातों के केन्द्र में यही दोनों थे। बखरी की तिनकौड़िया माय भी इसी बहस में उलझी हुई थी। चम्पा से आई नर्तकियों के समूह में बैठी तिनकौड़िया माय ने कहा-'तुम लोग कान खोल कर सुन लो। फिर न कहना, मैंने समय रहते सचेत नहीं किया। चूँकि मेरी बिरादरी की हो, इसीलिए समझा रही हूँ। अमृता नाचे इसके पूर्व तुमलोगों को जितना नाचना-गाना हो...नाच-गा लेना। अन्यथा बाद में।'

'अब छोड़ो भी चाची!' तुनक कर वैजन्ती ने कहा-'तुमने अपनी अमृता के अतिरिक्त कदाचित् और किसी को कभी देखा ही नहीं है।'

चम्पा की वैजन्ती की हाँ में हाँ मिलाई विमला ने। दोनों चम्पा की विख्यात नर्तकियाँ थीं। हँसती हुई विमला ने परिहास करते हुए कहा-'चाची वृद्धा हो गई हैं। अपने बखरी सलोना के बाहरी जगत का इन्हें ज्ञान कहाँ? इन्होंने मात्र अपनी नचनियों का नाच ही देखा है। छोड़ सखी। अब तो हम इनकी अमृता के बाद ही नाचेंगी...यह पक्का है।'

कहकर विमला हँसने लगी तो बैजन्ती भी खिलखिला कर हँस पड़ी।

'अरी निगोड़ियो' ! चाची ने उठते हुए कहा-...नृत्य की बात तो छोड़ ही दे। उसे देख भर ही लोगी तो तुम लोगों के ज्ञान चक्षु खुल जाएँगे! ...अब और रुकना व्यर्थ है। मैं चली...अपना समझ कर समझाने आई थी...अब पछता रही हूँ...व्यर्थ आयी। '

कहती हुई तिनकौड़िया माय तो चली गयी परन्तु दोनों नर्तकियाँ उसके बाद भी हँसती रहीं।

अमृता की चर्चा राज भरोड़ा के शिविर में भी थी। सार्थवाह मंगल के शिविर में वीरवर भीममल्ल और राजवैद्य रसराज इसी विषय पर बातें कर रहे थे।

भीममल्ल ने कहा-'क्या कहूँ मैं...जिधर देखो सभी उसी की बातें करते हैं! बहुरा गोढ़िन की पुत्री अमृता अपने नृत्य का प्रदर्शन करने आयी है। सुनता हूँ, अप्सरा-सी सुन्दर अमृता नृत्य में भी निष्णात है।'

'हाँ, वीरवर' ! वैद्यराज ने कहा-'मेरी उत्सुकता भी बढ़ गयी है। एक तो बहुरा स्वयं विख्यात नृत्यांगना रही है...अब सुनता हूँ, उसकी पुत्री ने अपनी माँ को भी नृत्य में पीछे छोड़ दिया है...ऐसे में सोचता हूूँ, हम अपने कुँवर का कार्यक्रम स्थगित कर दें!'

मंगल को हँसी आ गई. हँसते हुए ही उसने दोनों से कहा, 'आप दोनों व्यर्थ चिन्तित हो रहे हैं। अपने नटुआ दयाल को नृत्य में कोई पराजित कर दे, यह असंभव है। मैंने बचपन से उसे प्रशिक्षण दिया है और विश्वासपूर्वक कहता हूँ, आज भी प्रतियोगिता का विजय मुकुट अपने कुँवर के सर होगा...यह निश्चित है।'

मंगल की बात पर वीरवर और वैद्यराज ने कुछ न कहा। परन्तु उनके नेत्रों में चिन्ता की झलक शेष देखकर मंगल ने पुनः कहा-'अपने कुँवर नटुवा दयाल की क्षमताओं को आप दोनों इसीलिए न्यून आँक रहे हैं, क्योंकि वे आपके अपने हैं। नटुआ दयाल गायन, वादन, नृत्य के अतिरिक्त उच्चस्तर के तांत्रिक भी हो गए हैं...यह आपको कदाचित ज्ञात नहीं है। दूर का ढोल सदा ही सुहाना होता है, मान्यवर! परन्तु, व्यर्थ की हीन-भावना नहीं पालनी चाहिए. यदि आप मेरे वचनों को मिथ्या न समझें तो मैं निःसंकोच आज घोषित करता हूँ कि सम्पूर्ण अंग-महाजनपद में आज नटुआ दयाल के समकक्ष न कोई नर है न नारी।'

'आपके अटल विश्वास पर भरोसा करने को जी चाहता है, राजरत्न' ! वीरवर ने कहा-'परन्तु बहुरा-पुत्री के संदर्भ में इतनी अद्भुत कथाएँ सुन रहा हूँ कि चिन्ता होती है।'

'वीरवर सत्य ही कह रहे हैं, राजरत्न' ! वैद्यराज ने अपनी बात जोड़ी। ' एक तो बहुरा स्वयं भैरवतंत्रीय नृत्य की उच्चस्तरीय साधिका है, उस पर से बहुरा की नृत्य प्रशिक्षिका माया ने ही उसकी पुत्री को भी बाल्य-काल से ही प्रशिक्षित किया है।

वैद्यराज की बात पर राजरत्न को हँसी आ गयी। हँसते हुए ही उसने कहा-'कमला मैया की क्या इच्छा है, यह तो अब प्रतियोगिता-मंच पर ही जाना जा सकेगा। इसके अतिरिक्त और क्या कहूँ?'

बखरी के शिविर में माया दीदी के साथ अमृता का हास-परिहास चल रहा था तभी बखरी का सौदागर जयसिंह उपस्थित हुआ। कंधे तक लटके बालों को गर्दन के पीछे बाँध कर, अपने मस्तक पर उसने पीली रेशमी पगड़ी बाँध रखी थी। पगड़ी के मध्य स्वर्ण की कलगी में उसने मयूर पंख लगाया हुआ था। रेशमी वस्त्रों में सुसज्जित सौदागर जयसिंह साँवला किन्तु, बलिष्ठ युवक था। उसकी आँखें छोटी-छोटी थीं और चौड़ी फैली नाक पर नीले रंग का मस्सा था, जिस कारण उसकी आकृति विचित्र-सी लगती थी।

अभिवादन करते ही वह मुस्कुराया तो माया ने पूछा-'कहो जय, क्या बात है?'

उसकी ठकुरसुहाती मुस्कान और भी चौड़ी हो गयी। मोटे अधरों के मध्य पीले दाँत प्रदर्शित करते हुए उसने कहा-'आदेश हेतु उपस्थित हुआ हूँ देवी...! व्यवस्था में कोई त्रुटि तो नहीं हुई है मुझसे...कोई असुविधा हो तो।'

'अरे नहीं, जय' ! माया ने हँसते हुए कहा-'तुम्हारी व्यवस्था में कोई त्रुटि संभव ही नहीं...परन्तु उपस्थित हो ही गए तो एक कार्य करना। किंचित नृत्य-प्रांगण की व्यवस्था देख लेना।'

'जो आज्ञा, देवी' ! कह कर जय ने अमृता को लोलुप दृष्टि से देखते हुए कहा-'नृत्यांगण में आज समस्त जन विस्फारित नेत्रों से देखते ही रहेंगे। सत्य कहता हूँ देवी! इनके पदार्पण करते ही सबके-सब अपने नृत्य रोक कर।'

माया ने मध्य में ही व्यवधान डालते हुए कहा-'बस जय बस...प्रशंसा में अतिरेक की आवश्यकता नहीं है। कदाचित् तुमने भरोड़ा के कुँवर नटुआ दयाल सिंह का नृत्य देखा नहीं है...अन्यथा इतनी बड़ी-बड़ी बातें न करते। नृत्यांगण की व्यवस्था में संलग्न हो...अब प्रस्थान करो।'

'जैसी आज्ञा, देवी' ! जय ने प्रस्थान करते हुए कहा-'परन्तु प्रस्थान के पूर्व यह अवश्य कहूँगा कि आज यदि गंधर्वांे के नर्तक भी उपस्थित हो जाएँ तब भी विजय की माला हमारी अमृता ही ग्रहण करेंगी।'

यह कहकर वह पुनः मुस्कुराया। अमृता को दृष्टि भर निहारा और निःश्वास छोड़ता हुआ तीर-सा चला गया।

'मन-प्राण से न्यौछावर है तुम पर' , कहकर माया हँस पड़ी।

परन्तु अमृता गंभीर बनी रही। यह नटुआ दयाल कौन है? उसने प्रथम बार माया दीदी की आँखों में किसी अन्य नर्तक के लिए प्रशंसा के भाव देखे थे।

'दीदी...! यह नटुआ दयाल कौन है' ? अमृता ने कहा-'आपने तो आजतक कभी भी इसकी चर्चा नहीं की थी...कौन है यह?'

'नटुआ दयाल, राज भरोड़ा के कुँवर हैं। विख्यात पक्षीविशेषज्ञ एवम् नर्त्तक मंगल का सर्वप्रिय शिष्य।'

'पक्षी विशेषज्ञ?' अमृता ने उत्सुकता से कहा-'यह पक्षी विशेषज्ञ क्या होता है दीदी?'

'पक्षियों को प्रशिक्षित करने वालों को पक्षी विशेषज्ञ कहा जाता है'। माया ने कहना शुरू किया-'मंगल ने अपनी इस अपूर्व विद्या का ज्ञान केवल नटुआ दयाल को ही दिया है। मंगल द्वारा प्रशिक्षित कौवों में विलक्षण गुण होते हैं। उसके दिशा-काक, संकट-सूचक-काक, ऋतु-काक एवं शकुन-काक की बिक्री हमारे अंग महाजनपद के अतिरिक्त सुदूर द्वीप समूहों तक होती है। मंगल के पास एक और सर्वगुण सम्पन्न काक है जग्गा, जिसके विषय में कहा जाता है-वह सर्वज्ञ है। परन्तु मंगल अपने सर्वज्ञ काक जग्गा को किसी भी मूल्य पर नहीं बेचता।'

अमृता आश्चर्य के साथ माया दीदी की बातें सुन रही थी।

माया दीदी ने पुनः कहा-'मंगल एक अद्भुत पक्षी विशेषज्ञ के अतिरिक्त विलक्षण गुणों का स्वामी भी है। वह कुशल संगीतज्ञ और तांत्रिक के साथ-साथ दक्ष नर्तक भी है। मैंने सुना है, भरोड़ा के कुँवर, सुदर्शन नटुआ दयाल सिंह अपने गुरु से भी दक्ष नर्तक बन गया है। मेरी भी उत्सुकता है उसे देखने की...आज नृत्यांगण मंें उसे देख कर अपनी आँखें तृप्त करूँगी।'

माया दीदी की बातों ने अमृता के अंतस् में हलचल मचा दी। नटुआ दयाल को देखने की उत्सुकता उसके भी मन-प्राणों में बस गयी।

रंगशाला के विस्तृत गोलार्द्ध के चारों तरफ जन-समूह उमड़ पड़ा था। तीन हाथ ऊँचे मिट्टी के बने नृत्यांगण को चिकनी मिट्टी से लीप कर किनारों में अल्पना सजाई गयी थी।

रंगशाला से दस हाथ की दूरी पर एक ओर राजा-रजवाड़ों के आसन लगे थे। बाकी तीनों दिशाओं में दूर तक सहस्त्रों नर-नारी कोलाहल करते बैठे थे।

नृत्यांगण में प्रवेश हेतु चारों दिशाओं में सीढ़ियाँ बनी थीं। रंग-बिरंगी पोशाकों में, विभिन्न वेष-भूषा धारी नर्तक एवम् नर्तकियाँ अपने नृत्य का प्रदर्शन कर रहे थे। झाँझ, मंजीरे, वीणा तथा मृदंग के वादक-वृंद नृत्य के समताल पर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे तथा जनसमूह विभोर हो अपनी-अपनी मंडली का उत्साहवर्द्धन कर रहे थे।

सूर्यास्त पूर्व से प्रारंभ होकर अर्द्धरात्रि तक निरंतर चलते रहने वाला नृत्य प्रदर्शन समारोह अपने चरम पर आ चुका था। रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत हो रहा था तभी जनसमूह में एकाएक हलचल मची।

अनिंद्य सुन्दरी अमृता, हाथों में नौमुखी दीप लिये, माया दीदी के संग मंद चाल से लहराती नृत्यांगण की ओर चली आ रही थी।

हाथों में थामे प्रज्वलित दीप-शिखा के प्रकाश से आलोकित अमृता का मुखमण्डल दिव्य सौंदर्य की आभा से देदीप्यमान हो रहा था।

उसके प्रत्येक पग पर पैरों में बंधा पायल छनक रहा था। श्वेत रेशमी अंगवस्त्र, नितंबों तक लहराती सघन केश-राशि, कमल-से विशाल सुन्दर नयन, ऊँची नासिका तथा रक्ताभ अधर की ओट से झिलमिलाती मोती सदृश धवल दंत-पंक्ति!

स्वर्णाभूषणों से अलंकृत अपूर्व सुन्दरी अमृता की चंचल दृष्टि चारों दिशाओं में घूमती नटुआ दयाल सिंह पर आकर ठहर गयी।

पीले रेशमी अंगवस्त्र के अंदर से उसकी बलिष्ठ काया झाँक रही थी। उसके प्रशस्त वक्षस्थल के ऊपर चौड़े कंधे और पुष्ट बाँहों पर उसकी दृष्टि गयी। फिर उसने देखा उसके घने लम्बे केश उसके कंधे पर लहरा रहे हैं। उसके दीप्त मुखमण्डल पर विराजते चितचोर नयन की गहराई में वह खो-सी गई.

माया दीदी ने स्थिति को भाँपते ही अपनी कोहनी का स्पर्श कर हौले से कहा-'क्या कर रही हो अमृता? ... रुक क्यों गयी...पग बढ़ाओ!'

चौंक कर अमृता ने माया दीदी को पलभर देखा, मुस्करायी फिर मंद चाल से नटुआ दयाल की ओर ही पग बढ़ा दिए.

'कहाँ जा रही है पगली?' माया ने आशंकित होकर कहा। किन्तु अमृता तो नटुआ दयाल की ओर ही मंत्रबिद्ध-सी बढ़ती चली गयी।

मंगल ने अपने हाथों से नटुआ दयाल सिंह को वस्त्रभूषण से अलंकृत किया था। उसके स्वर्ण निर्मित मुकुट पर जड़ा श्वेत माणिक, मशालों की ज्योति में सप्तरंगी किरणें प्रक्षेपित कर रहा था।

दोनों के चार जोड़े नेत्र परस्पर वशीभूत होकर संयुक्त हो गए.

नटुआ दयाल सिंह, चाँदी के पर्यंक पर अचल बैठा अमृता के नेत्र रूपी नील सागर में डूब-उतरा रहा था। तभी समीप आकर अमृता ने नटुआ दयाल को निर्निमेष निहारा। फिर सहसा अपनी कमर को झुकाकर नटुआ दयाल की आरती उतारने लगी। उपस्थित जन-समुदाय आह्लादित हो इस अनुपम जोड़ी को निहारने लगा। माया और मंगल के अधरों पर मंद मुस्कान थिरकने लगी।

हतप्रभ होकर नटुआ दयाल पर्यंक से उठकर खड़ा हो गया। तभी मंगल ने कमर में बँधी मांदल पर थाप मारी और झूमकर उसे बजाने लगा।

प्रतिभागी कलाकारों समेत उपस्थित जन-समूह इन दोनों के दर्शन कर अपने नेत्रों को तृप्त कर रहे थे। दो दिव्य रूप-पँूज का अभूतपूर्व मिलन!

मांदल बजाता मंगल, नृत्यांगण में नृत्य के ताल पर झूमने लगा। माया दीदी भी अमृता के पास जा पहुँची। सौदागर जय सिंह, मखमल के खोल में बंद माया दीदी की वीणा उठाये मंच पर पहुँचा और माया दीदी को वीणा देकर वहीं वादकों के मध्य बैठ गया।

अमृता शंखमुद्रा धारण कर अचल खड़ी हो गयी तो माया की अंगुलियाँ वीणा के तारों पर पड़ीं। माया ने पूरी तन्यमयता से वीणा पर एक सम्पूर्ण गत बजाई. मंगल ने तुरंत ही उसी गत की युगलबंदी मांदल पर बजा दी। शंख मुद्रा धारण किए अमृता अचल रही। परन्तु मंगल की निर्दोष युगलबंदी पर उपस्थित जनसमूह ने करतल-ध्वनि के साथ अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।

मुस्कुराता मंगल सीढ़ियाँ उतरकर नटुआ दयाल के निकट पहुँचा और उसे अपने साथ लिए पुनः मंच पर आया। नटुआ दयाल ने दाहिने हाथ से सीढ़ियों को स्पर्श कर अपने मस्तक से लगाया और तत्परता से सीढ़ियाँ चढ़कर मंच पर उपस्थित हुआ। सर्वप्रथम उसने चारो दिशाओं में उपस्थित जनसमूह का अभिवादन किया फिर कमर तक झुक कर अपने गुरु मंगल का चरण स्पर्श किया। तभी मंगल ने उसे अपनी आँखों से कुछ संकेत-सा किया। जिसे समझ कर नटुआ ने आगे बढ़ कर माया दीदी ने पुनः कहा-'मंगल एक अद्भुत पक्षी विशेषज्ञ के अतिरिक्त विलक्षण गुणों का स्वामी भी है। वह कुशल संगीतज्ञ और तांत्रिक के साथ-साथ दक्ष नर्तक भी है। मैंने सुना है, भरोड़ा के कुँवर, सुदर्शन नटुआ दयाल सिंह अपने गुरु से भी दक्ष नर्तक बन गया है। मेरी भी उत्सुकता है उसे देखने की...आज नृत्यांगण मंें उसे देख कर अपनी आँखें तृप्त करूँगी।'

माया दीदी की बातों ने अमृता के अंतस् में हलचल मचा दी। नटुआ दयाल को देखने की उत्सुकता उसके भी मन-प्राणों में बस गयी।

रंगशाला के विस्तृत गोलार्द्ध के चारों तरफ जन-समूह उमड़ पड़ा था। तीन हाथ ऊँचे मिट्टी के बने नृत्यांगण को चिकनी मिट्टी से लीप कर किनारों में अल्पना सजाई गयी थी।

रंगशाला से दस हाथ की दूरी पर एक ओर राजा-रजवाड़ों के आसन लगे थे। बाकी तीनों दिशाओं में दूर तक सहस्त्रों नर-नारी कोलाहल करते बैठे थे।

नृत्यांगण में प्रवेश हेतु चारों दिशाओं में सीढ़ियाँ बनी थीं। रंग-बिरंगी पोशाकों में, विभिन्न वेष-भूषा धारी नर्तक एवम् नर्तकियाँ अपने नृत्य का प्रदर्शन कर रहे थे। झाँझ, मंजीरे, वीणा तथा मृदंग के वादक-वृंद नृत्य के समताल पर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे तथा जनसमूह विभोर हो अपनी-अपनी मंडली का उत्साहवर्द्धन कर रहे थे।

सूर्यास्त पूर्व से प्रारंभ होकर अर्द्धरात्रि तक निरंतर चलते रहने वाला नृत्य प्रदर्शन समारोह अपने चरम पर आ चुका था। रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत हो रहा था तभी जनसमूह में एकाएक हलचल मची।

अनिंद्य सुन्दरी अमृता, हाथों में नौमुखी दीप लिये, माया दीदी के संग मंद चाल से लहराती नृत्यांगण की ओर चली आ रही थी।

हाथों में थामे प्रज्वलित दीप-शिखा के प्रकाश से आलोकित अमृता का मुखमण्डल दिव्य सौंदर्य की आभा से देदीप्यमान हो रहा था।

उसके प्रत्येक पग पर पैरों में बंधा पायल छनक रहा था। श्वेत रेशमी अंगवस्त्र, नितंबों तक लहराती सघन केश-राशि, कमल-से विशाल सुन्दर नयन, ऊँची नासिका तथा रक्ताभ अधर की ओट से झिलमिलाती मोती सदृश धवल दंत-पंक्ति!

स्वर्णाभूषणों से अलंकृत अपूर्व सुन्दरी अमृता की चंचल दृष्टि चारों दिशाओं में घूमती नटुआ दयाल सिंह पर आकर ठहर गयी।

पीले रेशमी अंगवस्त्र के अंदर से उसकी बलिष्ठ काया झाँक रही थी। उसके प्रशस्त वक्षस्थल के ऊपर चौड़े कंधे और पुष्ट बाँहों पर उसकी दृष्टि गयी। फिर उसने देखा उसके घने लम्बे केश उसके कंधे पर लहरा रहे हैं। उसके दीप्त मुखमण्डल पर विराजते चितचोर नयन की गहराई में वह खो-सी गई.

माया दीदी ने स्थिति को भाँपते ही अपनी कोहनी का स्पर्श कर हौले से कहा-'क्या कर रही हो अमृता? ... रुक क्यों गयी...पग बढ़ाओ!'

चौंक कर अमृता ने माया दीदी को पलभर देखा, मुस्करायी फिर मंद चाल से नटुआ दयाल की ओर ही पग बढ़ा दिए.

'कहाँ जा रही है पगली?' माया ने आशंकित होकर कहा। किन्तु अमृता तो नटुआ दयाल की ओर ही मंत्रबिद्ध-सी बढ़ती चली गयी।

मंगल ने अपने हाथों से नटुआ दयाल सिंह को वस्त्रभूषण से अलंकृत किया था। उसके स्वर्ण निर्मित मुकुट पर जड़ा श्वेत माणिक, मशालों की ज्योति में सप्तरंगी किरणें प्रक्षेपित कर रहा था।

दोनों के चार जोड़े नेत्र परस्पर वशीभूत होकर संयुक्त हो गए.

नटुआ दयाल सिंह, चाँदी के पर्यंक पर अचल बैठा अमृता के नेत्र रूपी नील सागर में डूब-उतरा रहा था। तभी समीप आकर अमृता ने नटुआ दयाल को निर्निमेष निहारा। फिर सहसा अपनी कमर को झुकाकर नटुआ दयाल की आरती उतारने लगी। उपस्थित जन-समुदाय आह्लादित हो इस अनुपम जोड़ी को निहारने लगा। माया और मंगल के अधरों पर मंद मुस्कान थिरकने लगी।

हतप्रभ होकर नटुआ दयाल पर्यंक से उठकर खड़ा हो गया। तभी मंगल ने कमर में बँधी मांदल पर थाप मारी और झूमकर उसे बजाने लगा।

प्रतिभागी कलाकारों समेत उपस्थित जन-समूह इन दोनों के दर्शन कर अपने नेत्रों को तृप्त कर रहे थे। दो दिव्य रूप-पँूज का अभूतपूर्व मिलन!

मांदल बजाता मंगल, नृत्यांगण में नृत्य के ताल पर झूमने लगा। माया दीदी भी अमृता के पास जा पहुँची। सौदागर जय सिंह, मखमल के खोल में बंद माया दीदी की वीणा उठाये मंच पर पहुँचा और माया दीदी को वीणा देकर वहीं वादकों के मध्य बैठ गया।

अमृता शंखमुद्रा धारण कर अचल खड़ी हो गयी तो माया की अंगुलियाँ वीणा के तारों पर पड़ीं। माया ने पूरी तन्यमयता से वीणा पर एक सम्पूर्ण गत बजाई. मंगल ने तुरंत ही उसी गत की युगलबंदी मांदल पर बजा दी। शंख मुद्रा धारण किए अमृता अचल रही। परन्तु मंगल की निर्दोष युगलबंदी पर उपस्थित जनसमूह ने करतल-ध्वनि के साथ अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।

मुस्कुराता मंगल सीढ़ियाँ उतरकर नटुआ दयाल के निकट पहुँचा और उसे अपने साथ लिए पुनः मंच पर आया। नटुआ दयाल ने दाहिने हाथ से सीढ़ियों को स्पर्श कर अपने मस्तक से लगाया और तत्परता से सीढ़ियाँ चढ़कर मंच पर उपस्थित हुआ। सर्वप्रथम उसने चारो दिशाओं में उपस्थित जनसमूह का अभिवादन किया फिर कमर तक झुक कर अपने गुरु मंगल का चरण स्पर्श किया। तभी मंगल ने उसे अपनी आँखों से कुछ संकेत-सा किया। जिसे समझ कर नटुआ ने आगे बढ़ कर माया दीदी के चरण स्पर्श करके कहा-'आशीर्वाद दो, माते!'

माया दीदी के नेत्र सजल हो उठे। उन आँखों के कोरों को अंगुली से पोंछती हुई माया ने तत्काल कहा-'विजयी भव!'

पूरी तत्परता से उसने अपने नृत्य का प्रथम अंग 'तत्कार' का प्रदर्शन किया और शंख मुद्रा में अमृता की भाँति अचल खड़ा हो गया।

माया की वीणा और मंगल का मांदल! अमृता और नटुआ शंखमुद्रा धारण किये खड़े रहे और माया की वीणा तथा मंगल के मांदल की युगलबंदी प्रारंभ हो गयी।

इसी युगल बंदी के साथ-साथ नटुआ और अमृता के शरीर नृत्य में थिरकने लगे। पहले चक्र में 'तत्कार,' फिर 'पलटा' के संग दोनों ने शंख तथा भैरव मुद्रा धारण की। दूसरे चक्र में दोनों ने 'तोड़ा' और 'आमद' का प्रदर्शन किया और पुनः शून्य मुद्रा धारण कर उसी मंज अचल हो गए.

जनसमूह उत्साह के अतिरेक में निरंतर करतल ध्वनि कर रहा था।

माया दीदी ने फिर से वीणा के तारों को छेड़ा और मंगल ने मांदल पर थाप देकर माया को प्रत्युत्तर दिया।

तभी शून्य मुद्रा परिवर्तित कर दोनों ने 'पैरन' का निर्दोष प्रदर्शन करते हुए महायोनि मुद्रा धारण कर ली।

उपस्थित जनसमूह की साँसें रुक-सी गईं। किसी ने आज तक नृत्य और संगीत का ऐसा विलक्षण प्रदर्शन कभी नहीं देखा था।

कदाचित् माया और मंगल की आँखों ने आपस में कुछ बातें कीं, क्योंकि अब माया दीदी वीणा के तार छेड़ने लगीं और नटुआ दयाल अपने कदमों में बंधे घुँघरूओं से उन्हें जवाब देने लगा। माया दीदी ने निरंतर कई गत बजायी और नटुआ ने घुंघरू बंधे पावों से प्रत्येक गत को उसी ताल-मात्र में दुहरा दिया।

अब बारी थी मंगल की दीर्घ प्रस्तुति की। उसने मांदल पर एक दीर्घ निर्दोष गत बजाई. अमृता ने अपने घुंघरुओं की थिरकन से उसे दुहरा दिया। दर्शकों ने विभोर होकर करतल ध्वनि की। फिर तो मंगल की दोनों हथेलियाँ माँदल पर और अमृता के कदम-ताल नृत्यांगण की भूमि पर। अंतिम गत बजाकर ठेके पर मंगल ने अपने दोनों हाथ उठाये तभी अमृता ने भी उसी ताल पर थिरक कर मंगल के साथ-साथ अपनी दोनों बाँहें उठा दीं।

करतल ध्वनि थमने का नाम नहीं ले रही थी। इसी मध्य माया की वीणा और मंगल का मांदल एक साथ बज उठे। अमृता और नटुआ दयाल का युगल नृत्य प्रारंभ हो गया। उपस्थित जन-समुदाय भाव-विभोर होकर देखता रहा। आकाश में पूरा चाँद निकल आया था और चाँदनी में समय मानो थम-सा गया।

माया दीदी की अंगुलियों से रक्त की बूँदें छलक आयीं, तभी एक ठेके की ताल पर मांदल पर आच्छादित चर्म फट गया और मंगल के हाथ रुक गए.

माया और मंगल हाथों में पुष्पहार थामे उठ कर खड़े हो गए. अमृता और नटुआ ने इनके चरणों को स्पर्श कर अपने हाथों को भाल पर लगाया। दोनों के वक्ष विजय-माल से सुशोभित होने लगे।

तभी उपस्थित जनसमुदाय में अमृता ने हलचल उत्पन्न कर दी। अमृता ने अपने गले का पुष्पमाल निकाल कर अचानक ही नटुआ दयाल के गले में डाल दिया। अमृता के इस अप्रत्याशित कृत्य ने कुछ क्षणों के लिए जनसमूह को जड़वत्-सा कर दिया, परन्तु तुरंत ही हर्षातिरेक में करतल ध्वनि के समवेत स्वर ने सम्पूर्ण वातावरण को गुंजायमान कर दिया।

प्रसन्नता से सभी की आकृति खिल गयी। नटुआ दयाल के हृदय की धड़कनें बढ़ गयीं। हतप्रभ-सा वह अमृता की मुस्कराती आँखों में खो गया।

परन्तु, ऐसे मांगलिक अवसर पर एक और व्यक्ति भी था, जिसकी मर्मान्तक पीड़ा से आकृति ही क्लांत हो गयी। उसे अपने पैरों के नीचे से पूरी पृथ्वी ही खिसकती-सी लगने लगी। होंठ सूखने लगे, परन्तु चेष्टापूर्वक वह जड़ बना बैठा रहा। वह था बखरी का सौदागर जय सिंह। जिसके जीवन की एकमात्र अभिलाषा थी अमृता को प्राप्त करना। उसकी इस अभिलाषा से बखरी के सारे लोग परिचित थे। उसकी पीठ पीछे सभी उसका मखौल भी उड़ाते, परन्तु उसके सम्मुख मौन रहते। जय सिंह से दुश्मनी मोल लेना किसी के बस में नहीं था।

हिमालय की बहुमूल्य औषधि और जड़ी-बूटी की सौदागरी में उसने अथाह सम्पत्ति अर्जित की थी। अब उसकी एकमात्र कामना यही थी कि किसी भी प्रकार उसका ब्याह अमृता से सम्पन्न हो जाए. रात-दिन वह इसी कल्पना में खोया रहता। परन्तु उसकी कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह अमृता का हाथ उसकी माँ बहुरा से माँग सके.

चिन्तित मंगल की दृष्टि माया पर गड़ी थी। परन्तु माया के अधरों पर मुस्कान थिरक रही थी। मंगल और भी चिन्तित हो गया। राज भरोड़ा और बखरी के मध्य जो वैमनस्य भरा था, उससे क्या माया अनभिज्ञ है? उसने स्वीकार किया कि नटुआ दयाल और अमृता की जोड़ी यदि बन जाये तो इससे उत्तम और कुछ नहीं। परन्तु उसे पता था, बहुरा इसे कदापि स्वीकार नहीं करेगी और इसीलिए भावी अनिष्ट की आशंका से वह और भी चिन्तित था।

उधर मंद-मंद मुस्कराती माया यह सोचकर प्रसन्न थी कि नटुआ दयाल सिंह को यदि अमृता वर लेगी तो न केवल राज भरोड़ा के साथ बखरी के सम्बन्ध सुधरेंगे, बल्कि बहुरा के जड़ जीवन में भी फिर से चेतना जाग्रत हो जाएगी। बहुरा की मानसिक दशा ने माया को व्यथित कर रखा था।

तेरह वर्षों तक विरहनी बहुरा ने अपने पति की राह देखी थी। ये तेरह वर्ष सहस्त्रों युगों की भाँति बीते थे। इस अवधि में उसे न अमृता की सुध थी न बखरी की। समस्त व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी थी। भैरवी मंडप को भी भंग कर दिया गया था।

बहुरा वैरागिनी-सी अपनी ड्योढ़ी में बंदिनी-सी हो गयी थी। इस मध्य पोपली काकी निरंतर चम्पा के सम्पर्क में थी। परन्तु शिवदत्त का कोई पता नहीं चला।

ईष्या और विद्वेष से तप्त सौदागर जय सिंह ने सूर्योदय तक की भी प्रतीक्षा नहीं की और शिविर पहुँचकर अपनी घोड़ी पर जा बैठा। समस्त पहरेदारों को आश्चर्य में डाल उसने तत्काल बखरी के लिए प्रस्थान कर दिया।

दौड़ती घोड़ी की पीठ पर बैठे जय सिंह की चेतना में अमृता की अनुरागी आँखों की छवि कील की भाँति गड़ रही थी। वह दृश्य उसे भुलाये नहीं भूल रह था, जब अकस्मात अमृता ने अपना पुष्पमाल निकाल कर नटुआ दयाल के गले में डाल दिया था।

कितना अभागा है वह! जन्म के पूर्व ही पिता और जन्म देकर माँ उसे छोड़ गयी। अनाथ की भाँति पल कर वह बड़ा हुआ। किसी की गोद में खेलने को उसका सम्पूर्ण बचपन मचलता रहा तरसता रहा। परन्तु किसी ने उसे गोद में न उठाया। न प्यार किया। अब अगर उसकी नाक पर नीला मस्सा उग आया था तो इसमें उसका क्या दोष? उसने तो इसे उगाया नहीं था। जो देखता मुँह फेर लेता। सभी कहते-जिसकी नाक पर मस्सा हो वह घृणित होता है। उसपर से नीला मस्सा तो और भी निकृष्ट। उपेक्षा और घृणा के मध्य अंतस् में जिस आग को लिए वह बड़ा हुआ, वह तब बुझी जब उसने जड़ी-बूटियों की सौदागरी करके अपार सम्पत्ति अर्जित कर ली। प्राणों का मोह त्याग कर वह हिमालय के घनघोर वन्य प्रांतों से अमूल्य वनस्पतियाँ एकत्रित करता और मुँहमाँगे मूल्य पर बेचता।

ज्यों-ज्यों वह धनवान होता गया, लोगों की उपेक्षा घटती गयी और मान-सम्मान बढ़ता गया। परन्तु मान-सम्मान का अनुराग और प्यार से भला क्या सम्बंध? बखरी की युवतियाँ उसे देखते ही राह बदल लेतीं। सौदागर जय सिंह पच्चीस वर्षीय नौजवान हो चुका था। फिर भी जीवनसंगिनी के बिना उसका जीवन सूना था, अधूरा था।

प्रायः अप्राप्य वनस्पतियों की आपूर्ति के कारण उसकी पहुँच सीधे बहुरा चौधराइन तक थी। बेरोक-टोक ड्योढ़ी में उसका आवागमन था और अगर उसने अमृता को अपना हृदय समर्पित कर दिया तो इसमें अस्वाभाविक क्या था?

अमृता थी ही ऐसी अनुपम रचना जिसे विधाता कभी-कभी ही रचता है। ड्योढ़ी में सभी जय का सम्मान ही करते थे। स्वयं बहुरा चौधराइन उसे अपने समक्ष बैठा कर बातें करती थी। ऐसे में उसने अमृता को अपनी जीवन संगनी बनाने की ठान ली थी तो यह स्वाभाविक ही था।

परन्तु आज तो उसकी समस्त आशाओं पर तुषारापात ही हो गया। कैसी मदभरी चितवन से न्यौछावर हो रही थी उसकी अमृता...उस नटुआ दयाल पर। पूर्व में उसने सोचा था राज भरोड़ा के प्रति विद्वेष के कारण नटुआ दयाल को अमृता उपेक्षित कर देगी। परन्तु अमृता... तो अमृता माया दीदी भी उस पर अनुराग दिखा रही थी।

क्या होगा अब? क्या उसकी स्वप्न सुन्दरी नटुआ दयाल की अंकशायिनी हो जाएगी? नहीं...कदापि नहीं। वह किसी भी परिस्थिति में ऐसा होने नहीं देगा। अब जो हो, देखा जाएगा। जो करना पड़े, करेगा। परन्तु नटुआ दयाल को अपनी राह से हटा कर ही निश्चिंत होगा। उसे करना भी क्या है? बहुरा चौधराइन को मात्र सूचना ही तो देनी है। वह तो स्वयं जली-भुनी बैठी है राज भरोड़ा पर। चौधराइन के अपने जीवन में ज्वार-भाटा का तूफान न आया होता तो...और सोचते ही वह हँसा। अब उसकी चेतना ने कल्पना प्रारंभ कर दी।

ड्योढ़ी के कक्ष में बहुरा चौधराइन की आँखों से अंगारे निकल रहे हैं। अभी तो उसने पूरी कथा सुनायी भी नहीं है कि मध्य में ही बहुरा उत्तेजित हो मारण अनुष्ठान पर आसीन हो गयी।

बहुरा की लाल-लाल आँखों में उसने महाकाल की छाया देखी। तभी चीत्कार कर बहुरा ने कहा-'देखो जय! ...इधर देखो। अभी अविलम्ब भरोड़ा के कुँवर के प्राण हरूंगी मैं। उसने मेरी पुत्री पर दृष्टि डाली है...उसकी उन्हीं आँखों में मेरे सहस्त्रों कील जा घुसेंगे और रक्त-वमन करता हुआ चीत्कार करेगा वह।'

बहुरा की जलती आँखों से निकलते अंगारे और भी तीव्र होते गए. आक्रोश से भरा मुखमण्डल विकृत होता गया और उसने कहा-'इच्छा थी, उसके तप्त रूधिर का स्वयं पान करूँ...! इन अंगुलियों से उसके तन की बोटियाँ नोंच डालूँ...! हाः-हाः हाः... हाः-हाः जा मर...!'

सोचते ही जय का रोम-रोम हर्षित हो गया। चाँदनी रात ढल रही थी... बखरी की सीमा दृष्टिगोचर होने लगी थी। जय के अनियंत्रित दुर्योग से घोड़ी जिस राह आयी थी, वह महाश्मशान की राह थी। बखरी अंचल में प्रवेश हेतु जय को अब महाश्मशान पार करना था। महाश्मशान भी दृष्टि पथ में आ चुका था। हर्षित जय का प्रत्येक रोम-कूप अचानक भयातुर हो सिहर गया। महाश्मशान पार करके जाना होगा उसे। बखरी की डायनें और कापालिकाएँ अन्य अनेक मशानी औघड़ों के साथ यहाँ उपस्थित होंगी। अशरीरी आत्माएँ विद्रूप मुद्राओं से समस्त वातावरण को...ज्यादा सोच न सका वह। सम्पूर्ण शिराओं में सनसनी-सी फैल गयी। क्या करे अब? उसके साहस ने जवाब दे दिया। परन्तु अब तक तो वह अपनी घोड़ी सहित महाश्मशान में प्रविष्ट हो चुका था।

'कौन है मूढ़!' घने वृक्षों के पार से आती चीखती आवाज ने, जय को स्तंभित कर दिया। तभी घोड़ी ने हिनहिना कर अचानक अपने दोनों पैर उठाये और असावधान जय सिंह उसकी पीठ से नीचे गिर पड़ा।

कई काली छायाएँ आकर उसके चारों ओर खड़ी हो गईं। उनका घेरा अब संकुचित होने लगा।

'कौन है?'

जय ने स्पष्ट पहचाना। यह स्वर बहुरा चौधराइन का था। छायाओं के घेरे को काटती बहुरा भूमि पर पड़े भयाक्रांत जयसिंह के समीप आकर खड़ी हो गयी।

अपने समक्ष बहुरा चौधराइन को देखते ही भयातुर जय सिंह के प्राण लौट आये। लड़खड़ाते स्वर में उसने कहा-'ठकुराइन! मैं हूँ सौदागर जय सिंह।'

'तुम! ...सौदागर जय सिंह'-बहुरा ने चौंक कर कहा। क्षण भर के लिए उसकी आकृति पर आश्चर्य के भाव उभरे। परन्तु तुरंत ही मुखमण्डल के भाव बदले और वह मुस्कुराई-'महाकाल ने अपना ग्रास स्वयं भेजा है' , कहकर उसने अट्टाहास करते हुए आज्ञा दी-'इसके मस्तक पर सिंदूर लगाओ. शृंगार करो इसका! कदाचित् महाकाल इस दुष्ट की बलि ग्रहण कर संतुष्ट हो जायें!'

'नहीं चौधराइन...नहीं!' सौदागर चीखा-'मैं तुम्हारी गाय हूँ, चौधराइन ...दया करो! दया करो मुझपर! मैं तुम्हारी कृपा का पात्र हूँ और आज तुम्हारे ही लिए दौड़ता आया हूँ।'

'हाः! हाः! हाः' , विकट हास गूंजा बहुरा का-'मेरी गाय! इस महाश्मशान में इस घड़ी आया ही क्यों? तुझे भली भांति पहचानती हूँ मैं। अवश्य कोई घात है तेरे अंदर। बता इस कुसमय में यहाँ इस भयंकर स्थल में पदार्पण का क्या उद्देश्य है तेरा?'

'मैं अमृता की सूचना देने आया था चौधराइन।'

'अमृता की?' क्रोधित स्वर में चीखी बहुरा-'अपनी जिह्ना से नाम मत ले मेरी पुत्री का! मुझे ज्ञात है तुमने आकाश कुसुम की कुटिल कल्पना पाल रखी है...स्वप्न में भी यदि तुमने उसका चिन्तन किया तो तत्क्षण महाकाल की भेंट चढ़ जाएगा तू!'

काँपते हुए दोनों कर जोड़कर उठ खड़ा हुआ जय सिंह। क्या सोचता आया था-क्या हो गया?

श्मशान की डाकिनी, शाकिनी एवं हाकिनियों का वृत्त सौदागर जय सिंह के चारों ओर और भी संकीर्ण हो गया। चौधराइन की पुतलियाँ चमकने लगीं और जय सिंह को लगा मानो उसका मस्तक लट्टू की भाँति घूम रहा है। भय की अधिकता से थरथराते जय सिंह की चेतना डूबने लगी और वह अचेत होकर पुनः भूमि पर गिर गया।

अभिशाप ही वरदान बन गया।

वणिक जय सिंह की नासिका पर उगा उसका नीला मस्सा जो जन्म के साथ ही उसके दुर्भाग्य का घृणित चिद्द मान लिया गया, महाश्मशान में जय का सौभाग्य-चिद्द सिद्ध हुआ। मशान-शाकिनी ने इसी मस्से के कारण उसे बली के अयोग्य घोषित कर दिया और इसी कारण बेचारे की प्राण-रक्षा हो गयी।

बहुरा के चंगुल से छूटते ही घबड़ाहट में वह ऐसा भागा कि घोड़ी तक की

सुध न रही। जब तक जनपद न आ गया, दौड़ता ही रहा वह। बखरी के निवासियों ने कौतूहल से देखा। सौदागर जय सिंह सिर पर पाँव रखे दौड़ता-हाँफता आ रहा है। चरण पादुकाविहीन थे। वस्त्रभूषण अस्त-व्यस्त और मुखमण्डल त्रस्त।

ब्राह्ममुहूर्त की उस बेला में किसी को कुछ ज्ञात न हो सका। परन्तु सूर्योदय के साथ-साथ सौदागर जय सिंह की कहानी एक मुँह से दूसरे और तीसरे-चौथे से बढ़ती हुई परिवर्तित होती गई और अंततः बखरी सलोना में यह स्थापित हुआ कि 'बहुरा नरभक्षी' डायन बन गयी है। श्मशान में जीवित मनुष्य को अपने नाखूनों से नोंच-नोंच कर खा जाती है। '

बात ही बात में कई प्रत्यक्षदर्शी भी सम्मिलित होने लगे और नई-नई कहानियाँ जुड़ती चली गयीं। बहुरा की दुर्दान्तता के नये-नये किस्से! जितने लोग-उतनी बातें।

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