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मौन में बड़ी ताकत होती है लेकिन जो मैं ओढ़-बिछा रही थी वह मौन नहीं था, वह चुप्पी थी| ऐसी चुप्पी जिसमें आग नहीं थी, धुआँ इतना था कि मन के आसमान में कोई सितारा टिमटिमाता दिखाई ही नहीं दे रहा था| अंधकार में भटकता मन अपनी गलियों को भुला रहा था, मार्ग अवरुद्ध थे और प्रकाश में जीने की ललक हृदय की धड़कन को जैसे ‘आर्टिफ़िशियल पंप’ के सहारे जिलाए हुए थी|
नहीं कर पाई मैं कुछ भी, न ही मैडिटेशन और न ही नृत्य---कला की पुजारिन माँ की बेटी रजिस्टरों के बीच फँसी रह गई थी| रह क्या गई थी, खुद को ‘एडमिनिस्ट्रेशन’ में मैंने ही तो फँसाया था| संस्थान में हर क्षेत्र में कार्यरत गंभीर कर्मचारी थे| अम्मा को कुछ भी नहीं देखना पड़ता था केवल मीटिंग्स के व बाहर से आने वाले डैलिगेट्स के साथ मीटिंग्स व चर्चाओं के अतिरिक्त !हाँ, वह अलग बात थी कि उन्हें प्रेम व सम्मान करने वाले चाहते थे कि वे जब अम्मा के स्वागत में कुछ कार्यक्रम बनाएं तो अम्मा की उपस्थिति उन्हें आशीर्वाद देने के लिए वहाँ हो|
उनका यू.के जाना किसी न किसी बात में अटककर रुक ही जाता| वह बात अलग थी कि डैलीगेट्स आकर उनसे मीटिंग्स कर जाते और उनके यहाँ बैठे-बैठे ही सब काम सुचारू रूप से चलते रहते|
ज़िंदगी इतनी आसानी से आराम कहाँ लेने देती है? मैं सोचती ही रह गई कि अम्मा –पापा से अपने मन की बात साझा करके अपनी राह सुनिश्चित कर लूँ लेकिन सोचने और करने में दिनों के फ़ासले होते गए और न जाने कहाँ से अचानक एक विस्फोट हुआ और पूरे विश्व में हा-हाकार मच गया| जो जहाँ था, वहीं अटक गया| अचानक ही सब कुछ पिंजरे में बंद हो गया जैसे !पता चला, कोई ‘कोरोना’नाम की बीमारी चीन से आई है जिसने पूरे विश्व को रातों-रात अपनी जकड़ में ले लिया है|
क्या था यह? किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था| हमारे संस्थान का तो स्टाफ़ ही इतना था कि संस्थान की ‘प्रिमाइसिस’ में कम से कम 12/15 लोग तो अंदर ही रहते थे| जिनका खाना-पीना, रहना-सोना वहीं था| सिंहद्वार का गार्ड तो अपने परिवार के साथ संस्थान के पीछे वाले भाग में ही रहता था| महाराज, उनके हैल्पर्स, और भी कितने ही अलग-अलग सेवाएं देने वाले लोग थे लेकिन सफ़ाई कर्मचारी बाहर से आते थे| भाई यू.के में अम्मा-पापा के आने की कब से प्रतीक्षा कर रहा था और मेरे निर्णय की जिज्ञासा से वह कितना उत्सुक था लेकिन यह तो सब कुछ ठप्प ही हो रहा था|
सब कार्यक्रमों पर जैसे ताले जड़ गए। टी.वी चैनलों और अखबार की सुर्खियों ने आदमी के मन में इतना भय बैठा दिया कि वह सोचने लगा कि अब ज़िंदगी रहेगी भी या नहीं ? अचानक अस्पतालों में रोगियों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि मरीजों को ट्रीटमेंट मिलने के आसार ही जैसे न के बराबर होने लगे| सरकार से बार-बार चेतावनी दी जा रही थी कि मुँह पर मास्क और हाथों को बार-बार साबुन से धोकर सेनेटाइज़र से सेनेटाइज़ किए बिना किसी भी चीज़ अथवा खाद्य-पदार्थ को छूआ भी नहीं जाना चाहिए| ये अद्भुत नज़ारे कुछेक दिनों में ही पूरे विश्व में पसर गए थे|
मन पिजरे में कैद होने के बहाने तलाश रहा था, यहाँ तो तन को भी बंद करके रखने की नौबत आ गई थी| मैं मन में जो सोच चुकी थी, पक्का कर चुकी थी, उसके साझा करने का भी कोई अर्थ नहीं था अब ! मैं क्या कोई अकेली थी? पूरा विश्व उथल-पुथल हो गया जैसे दुर्वासा से किसी ऋषि या किसी और भी अधिक क्रोधित संत, महर्षि का क्रोध में मुख से निकला श्राप पूरे विश्व में अजगर की भाँति फैलता जा रहा हो| ऑक्सीज़न कम होने से लोगों को साँस लेने की परेशानी, इस बीमारी की दवाई का न होना, और तो और--आखिर यह बीमारी है क्या? इसके बारे में भी अनभिज्ञता ! अस्पतालों में भीड़ और बाजारों, सड़कों पर सूनापन !आदमी सिहर गया, उसके मस्तिष्क में कुछ आ ही नहीं रहा था। देश-विदेशों में चर्चाएं और इस बीमारी को जानने व इससे निकलने के उपायों के साथ ही इसकी दवाई की खोज!बड़े प्रश्न थे जिसके लिए पूरे संसार में त्राहि-त्राहि मची हुई थी|
ऐसे भयावह वातावरण में मृत्यु के मुख में जाते लोग!अस्पतालों में रोगियों को धीरे-धीरे जगह मिलनी बंद हो रही थी | ऊपर से रोगियों को संभालने वाले, उनका ध्यान रखने वालों पर कठोर बंधन कि कोई भी किसी की सहायता करने में लाचार था| डॉक्टर्स व अस्पतालों के सभी कर्मचारियों पर भयानक प्रेशर !
WHO ‘वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन’ने इस बीमारी को महामारी घोषित कर दिया था और 115 से अधिक देश इस महामारी की चपेट में आ चुके थे| विश्वस्त सूत्रों से पता चला था कि इस नए किस्म के कोरोनावायरस की उत्पत्ति एक संक्रमण के रूप में चीन के वुहान शहर में 2019 के मध्य दिसंबर में हुई थी| थोड़ी सी सर्दी-खाँसी में तो पहले किसी को कोई चिंता नहीं होती थी जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि दादी के रहते भी यदि किसी को छींक आतीं तो दादी उसे कहतीं कि उसे अपने मुँह पर कपड़ा रखना चाहिए| खाना बनाने वाले लोगों के लिए दादी के बड़े कड़े नियम थे कि हर बार हाथ धोकर रसोईघर की किसी भी चीज़ को या विशेषकर किसी भी खाद्य-पदार्थ को हाथ लगाने की आदत बहुत जरूरी है | उन्होंने सबको यह आदत डाली हुई थी जिसकी वास्तविक उपयोगिता अब अधिक समझ में आने लगी थी|
उत्पल अपने फ़्लैट पर अकेला ही था| कभी-कभी अम्मा से बातें करता, मुझसे भी। मैं उसके लिए चिंतित हो जाती थी| क्यों आखिर ? बहुत लोग ऐसे में अकेले होंगे, मुझे उसकी ही चिंता क्यों होती थी| अपने से दूर रखने के चक्कर में मुझे लग रहा था कि मैं उसके लिए अधिक कठोर होती जा रही थी|
“उत्पल के पास कोई नहीं है, उसका महाराज भी नहीं आ रहा, पता नहीं कैसे करता होगा लड़का—”एक दिन लंच पर अम्मा के मुँह से निकल गया|
“पता नहीं कितने लोगों की ऐसी स्थिति होगी, कुछ तो मैनेज करता ही होगा ---”मैंने अचानक कहा तो अम्मा को अच्छा नहीं लगा|
“अमी, बेटा, हमारा इतना करीबी है, हमारे संस्थान के सभी लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, फिर कितना संभालता है| हम नहीं सोचेंगे उसके लिए तो कौन सोचेगा ? ” अम्मा को मेरे व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था| उनके अनुसार तो मैं सबकी बहुत परवाह करने वाली थी, सच में थी भी लेकिन मेरी अचानक उत्पल से ही ऐसी क्या नाराज़गी हो गई थी, अम्मा शायद सोच रही थीं |
“नहीं, अम्मा, मेरा ऐसा कुछ मतलब नहीं है---मैं तो वैसे ही---”मालूम नहीं मैं क्या बहाना बनाना चाहती थी?
“देख लीजिए, हो सके तो बुलवा लीजिएगा, यही बात है न ? ”मैंने कहा |
“हाँ, अभी तो कुछ कम केसेज़ हो रहे हैं, सुनते हैं अगर दूसरी लहर आई तो बहुत भयंकर होगी---”पापा ने भी कहा|
मैं चुप ही रही जबकि उनके मुँह से सुनकर मैं मन में तो सहम ही गई थी |
इस कोरोना नाम की बीमारी की पहली लहर 377 दिनों तक चली जिसमें 1.08 करोड़ केसेज़ आए थे जिनमें से बताया गया था कि 1.55 रोगी मृत्यु के मुख में चले गए थे | 10 फरवरी 2021 को यह लहर कुछ कमज़ोर पड़ी थी| संस्थान से जुड़े लोगों के बारे में अम्मा-पापा की चिंता बड़ी स्वाभाविक थी इसीलिए वे सबकी खबर रहने की कोशिश करते|
दरसल, हम अपने आपको इतना बहादुर समझते हैं कि ज़रा सी छूट मिली नहीं कि हम अपनी आदतों से बाज़ नहीं आते| मैं अपनी खिड़की में से देखा करती सड़क पार के मुहल्ले वाले कोरोना के समय में भी बाज नहीं आते थे, पुलिस की गाडियाँ लगातार चक्कर मारती रहतीं, एनाउंसमेंट होते रहते लेकिन जहाँ पुलिस की गाड़ी निकली नहीं कि गाड़ियों को देखकर गली में भाग गए लोग फिर से सड़क पर आकर ऐसे जमने लगते जैसे उनके बिना मुहल्ले का का कारोबार ठप्प पड़ जाएगा|
अम्मा को अपने संस्थान के गुरुओं और शिष्यों की भी चिंता थी| वे सब भूल जाएंगे, उन सबके लिए रियाज़ जरूरी होता था लेकिन सवाल यह था कि अभी तो आदमी की ज़िंदगी का सवाल था, कला और शिक्षा तो तभी होगी जब मनुष्य बचा रहेगा|
अम्मा और पापा ने निश्चय किया कि सब गुरुओं के पास उनकी मासिक आय पहुँचनी जरूरी है और उन्होंने सबके एकाउंट्स में पूरी नहीं, लगभग 75/परसेंट सेलरी भिजवा दी |
पहली लहर के कुछ कमज़ोर पड़ जाने पर मैंने अचानक अतिथि-गृह के एक कमरे में हलचल महसूस की|
“हाय!देखो मैं तुम्हारे बिना रह नहीं सका, आ ही गया न !”अपने मूल स्वभाव में उत्पल कमरे से बाहर निकल रहा था|
मैं आश्चर्य में पड़ गई, अम्मा-पापा बात तो कर रहे थे लेकिन इसे कब? उसे देखते ही मेरे दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थीं, मैंने महसूस किया|
“तुम ----कैसे----? ” मेरे मुँह से अचानक टूटे हुए शब्द निकले|
“कल रात गाड़ी भेजकर बुलवाया, खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं, बिस्किट्स और मैगी पर जीवन-यापन हो रहा था| ”अम्मा ने हँसकर ऐसे बताया जैसे उनके सामने ही वह बिस्किट्स और मैगी पर पल रहा था|
“देखो तो, कमज़ोर कितना हो गया है!वैसे ही बड़ा पहलवान था| ”पापा उसे देखकर रिलेक्स महसूस कर रहे थे|
मैंने ध्यान से देखा, सच में कमज़ोर हो गया था| अब भी अपने स्वभाव के अनुसार वैसे ही बिंदास दिखने की कोशिश कर रहा था लेकिन उसकी दृष्टि जैसे मुझसे पूछ रही थी कि मुझे उसकी परवाह नहीं थी क्या?
सबसे बड़ी बात यह थी कि इस पहली लहर में हमारे संस्थान से जुड़े किसी को भी अधिक तकलीफ़ नहीं हुई थी | अम्मा-पापा रोज़ भाई से वीडियो-कॉल करते और ईश्वर का शुक्रिया अदा करते|
मार्च का महीना आ गया था अचानक फिर से संक्रमण के केसेज़ फिर से बढ़ने लगे |