मैं तो ओढ चुनरिया - 44 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 44

सारे रास्ते माँ चुपचाप रही । बुलाने पर जितना पूछा जाए , उतना ही जवाब देती । न एक शब्द कम , न एक शब्द ज्यादा । वैसे भी वे कम ही खाती पीती थी घर से बाहर जाकर , केवल बहुत आवश्यक होने पर । पानी भी घूट घूंट ताकि सफर में झज्जर का पानी खत्म न हो जाए पर आज उन्होंने पानी का एक घूंट तक नहीं पीया । सोच में डूबी सीट से सिर टिकाए रही । भाई मेरी गोद में सोया रहा । मेरी पूरी रात जागोमीटी में बीती । कभी झपकी आ जाती , कभी झटके से आँख खुल जाती । पिताजी साथ वाले कूपे में जाकर पंजाब के सरदारों के साथ बातें करने लगे थे । खैर इसी तरह करते सफर बीता । सवेरे गाङी सहारनपुर के स्टेशन पर आ लगी ।
घर पहुँच कर माँ ने संदूकची और थैले से मैने मैले कपङे निकालने शुरु किए तो उस संदूकची में से वह फ्रेम जङी फोटो निकल आई । देखते ही माँ का दो दिनों से रोका हुआ गुस्सा फट पङा । ये यहाँ कहाँ से आई ?
उनकी ऊँची आवाज से मैं डर गई ।
मुझे तो पता नहीं ।
ऐसे कैसे नहीं पता , कपङे लत्ते इकट्ठे करके इनमें किसने भरे थे ।
तब तो इसमें नहीं थी ।
हाँ , अपनेआप उङ कर इसमें घुस गई ।
कल शाम का गुस्सा आँसू बन कर उनके गालों को भिगोने लगा ।
मुझसे तो न पूछने की जरूरत , न सलाह की जरूरत , न किसी छोटे बङे से कुछ पूछना जो महताब और उसके घर वाले ने कह दिया , वही सही है ।
पिताजी ऐसे मौके पर घर से गायब हो जाते थे । कहीं ताश खेल रही मंडली में जाकर शामिल हो जाते और तीन चार घंटे से पहले लौटते नहीं थे । आज भी उन्होंने यही किया । माँ करीब घंटा भर रोती रही और बङबङाती रही फिर धीरे धीरे शांत हो गई । दुकान में मरीज आते रहे और बैठते रहे । उनका इंतजार करते करते एक से पांच छ हो गये थे । फूला ने दरवाजे पर आकर पूछा – बहन जी डाक्टर साहब कहाँ चले गये ।
माँ ने कहा – बनारसी भाई की दुकान के सामने ताश खेल रहे होंगे । और कहाँ जाएंगे । जा जाकर बुला ला ।
फूला गई और बुला लाई । पिताजी आकर मरीज देखने लगे । मैंने पीतल की थाली में दही और रोटी रखी और उन्हें दे आई । रोटी खाकर वह बर्तन रखने भीतर आए । माँ की आँखें लगातार रोने से लाल हुई पङी थी । पिताजी ने देखा तो सही पर बिना बोले दुकान में जाकर कोई धार्मिक ग्रंथ पढने लगे । आजकल ये उनका नियम था । जब दुकान में कोई मरीज नहीं होता था तो वे कोई पुराण पढते रहते । किसी अध्याय के बीच में कोई आ जाता तो वह भी पाठ सुन लेता ।
शाम को छोटे मामा मिलने आए तो माँ उनके गले लग कर एक बार फिर से रो पङी । रोते रोते ही उन्हें बताया कि रानी की सगाई कर आए हैं ।
कहाँ ? तुम लोग तो विनोद की शादी में गये थे न । मामा भी चौंक गये ।
वही महताब के पङोस में । एक ही गली है । उसी की किसी ननद का बेटा है ।
मैं मामा के लिए चाय बना रही थी पर कान मेरे उनकी बातों की ओर ही लगे थे ।
माँ ने कहा – कच्चा घर है । दस बहन भाई यह बीच का है । एक तो इतनी दूर का सफर । ऊपर से अनपढों का कुनबा । इतना बङा परिवार । गाँव का माहौल , कैसे निबाहेगी लङकी । तेरे भाऊ ने तो मिनट लगाया शगण पकङाने में ।
मामा चुपचाप सुनते रहे । कहते भी क्या । थोङी देर में पिताजी भीतर आए – भाऊ आपने सगाई कर दी ।
सगाई तो नहीं , हाँ लङका रोक लिया है । आजकल अच्छे लङके मिलते कहाँ है । पढा लिखा लङका है । बी ए पास है । स्टैनो और टाइप का कोर्स किया है । सरकारी नौकरी में लगा है । उम्र भी ज्यादा नहीं है । मुश्किल से तेइस साल का है । फिर अगले ने मांग कर रिश्ता लिया है । निभा तो लेगा ही ।
मामा आखिर उठते हुए बोले । इस हफ्ते किसी दिन भठिंडा मालगाङी लेकर गया तो कोटकपूरे जाकर देख कर आउंगा । तू हौंसला रख बहन ।
मैं चाय लेकर आई तो मामा ने गिलास पकङ लिया – तू बता, कैसा है तेरा दूल्हा ।
मेरा मामा से मामावाला रिश्ता कम था , बहन भाइयों वाला प्यार ज्यादा । मामा के साथ मैंने कितने मेले देखे , कितनी रामलीला और कितनी पिक्चरें कोई गिनती नहीं । लङाई झगङा रूठना मनाना सब उनके साथ चलता था । मुझसे उम्र में बारह साल बङे रहे होंगे पर हर परेशानी में चट्टान की तरह साथ खङे रहते थे ।
पर आज मुझसे कुछ बोला ही न गया । मैं चुपचाप खङी रही फिर कपङों की गठरी छत से नीचे लाकर उन्हें तह करने लगी । मामा जी कुछ देर बैठ कर चले गये । शाम को मामी को साथ लेकर वे दोबारा आए । छोटी मामी भी अपनी माँ की तरह मस्त मौला जीव थी – बहनजी , होता वही है जो नसीब में लिखा होता है । किस्मत जहाँ से जुङी होती है वहीं रिश्ता जुङता है । आपने शादी में जाना था । उसने वहाँ आप लोगों से मिलना था और यह संबंध होना था । सब बंसीवाले की मर्जी है ।
इतने में भाई फोटो उठा लाया और लाकर मामी के हाथ में थमा दी । मामी ने देखा – ओए रानी लङका तो बहुत सुंदर है । यहाँ तो बङा सोहना लग रहा है ।
फोटो मामाजी ने भी देखी – बाबू तूने सुबह तो मुझे दिखाई नहीं ये फोटो । सुबह कहाँ छिपा रखी थी ।
माँ ने सफाई दी – बैग में थी न । थोङी देर पहले कपङे निकाले तो निकाली थी । तुम लोगों को दिखाने के लिए ही लेकर आए हैं ।
बैग में शादी की मिठाई पङी थी पर निकालूं कैसे । मामी को खिलाई तो पता नहीं मामी उसका क्या मतलब निकाले । आखिर माँ को ही ध्यान आय़ा । वे उठी और थैले से मिठाई निकाल लाई । मामा मामी चाय पीते रहे । मैं मामा के बच्चों से उलझी रही । रात की रोटी खा कर मामा मामी चले गये ।
मेरी तो वह रात भी अपने आप से उलझते सुलझते बीती । पता नहीं घर से इतनी दूर में कैसे रह पाऊंगी । घर भी चिङियाघर जैसा । इतने सारे प्राणी । वे भी भांति भांति के । आठ दस तो बच्चे ही थे । फिर तीन बेटियां । तीन बहुएं । तीन चार छोटे बेटे । तीन चार बङे बेटे । हे भगवान । मैंने बाबू को कस कर चिपका लिया और सोने की कोशिश करने लगी पर नींद तो जान की दुश्मन हो गई थी । सारी रात आंखमिचोली खेलती रही । सुबह दिन निकला तो सिर भारी हो रहा था पर लेट कर क्या होना था । दो पेटीकोट और दो फ्राक सिलने को आई हुई थी । फिर चार तकिए के गिलाफों पर गुलाब के फूल काढने थे । पहले ही आठ दिन इस शादी के चक्कर में बर्बाद हो चुके थे तो मैं नहा कर अपनी मशीन लेकर बैठी ।


बाकी फिर ...