शुभ कर्म में बाधा डालने वाले
इस प्रकार जब तुकाराम आत्म शुद्धि और आंतरिक शांति के लिए हरिकीर्तन करने लगे और जनता को भगवद्-भक्ति का उपदेश देना आरंभ किया तो अनेक लोग उनके पास आकर तरह-तरह के तर्क-कुतर्क करने लगे वे तरह-तरह के सिद्धांत उपस्थित करके उनसे वाद-विवाद करने लगते। तरह-तरह की शंकाएँ उठाते इस पर उन्होंने कहा–
“मैं किस आधार पर विचार करूँ? मेरे चित्त को कौन धीरज बँधायेगा? संतों के आदेशानुसार मैं भगवान् के गुण गाता हूँ–सेवा धर्म पर चलता हूँ। मैं शास्त्रवेत्ता नहीं हूँ, वेदवेत्ता नहीं हूँ, सामान्य क्षुद्र जीव हूँ। पर लोग आकर मुझे तंग करते हैं, मुझ में बुद्धिभेद उत्पन्न करना चाहते हैं और कहते हैं– ‘भगवान् तो निराकार है–निर्गुण है।’ इसलिये हे भगवान्! अब तुम्हीं बताओ कि मैं तुम्हारा भजन करूँ या न करूँ ?”
“मैं किसी के घर भीख माँगने नहीं जाता, फिर भी कंटक मुझे दुःख देने को जबर्दस्ती आ जाते हैं। मैं न तो किसी का कुछ खाता और न किसी का कुछ बिगाड़ता हूँ, फिर भी पाखंडी लोग मेरे पीछे पड़े हैं। जिस बात को मैं नहीं जानता उसे वे मुझसे छलपूर्वक पूछते हैं। मैं उनके चरणों में पड़ता हूँ तो भी वे नहीं छोड़ते। अपने अकेले जीव से मैं किस-किस के साथ विवाद करूँ ? तेरे गुण बखानूँ — यथाशक्ति सेवा करूँ या कुतर्की-जनों के साथ बहस करूँ ? एक मुख से मैं क्या-क्या करूँ ?”
तुकाराम जी सीधे, सरल स्वभाव के भक्त थे। उनके सेवा भाव और हृदय से निकले हरिकीर्तन के प्रभाव से जनता के बहुसंख्यक व्यक्ति उनके पास सुनने को आते और उनका सम्मान करते। इससे पुराने ढंग के पंडितों को ईर्ष्या होती थी। वे अपने को शास्त्रों का ठेकेदार और बहुत उच्च समझते थे, पर इस अहं-वृत्ति के कारण साधारण जनता के व्यक्ति उनके पास बहुत कम जाते थे। साधारण लोगो को तुकाराम अपने में से ही एक जान पड़ते थे, उनकी बातें भी खूब समझ सकते थे, इसलिए उनके कीर्तन में झुंड के झुंड लोग आ जाते थे। इससे पंडितों के मन में जलन होती थी और वे तरह-तरह के प्रश्न करके तुकाराम से बहस करना चाहते थे, जिससे उन्हें नीचा देखना पड़े। पर तुकाराम जी ने तो भक्ति और सेवा का सरल मार्ग अपनाया था, उन्हें शास्त्रों के शुष्क वितंडावाद से क्या मतलब ? इसलिए अकारण समय नष्ट करने के व्यवहार से वे दुःखी होते थे और उनसे बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना करते थे।
तुकाराम महाराज ने सैकड़ों अभंगों में अपने को हर प्रकार से नीच, कपटी, पापी, दोषी प्रकट किया है और भगवान् से शरण देने की प्रार्थना की है। अनेक लोग इन बातों को निरर्थक मानते हैं, पर संत इनके द्वारा अपनी अहंवृत्ति पर विजय पाने की चेष्टा करते हैं। अहंकार मनुष्य का बहुत बड़ा शत्रु है और अनेक बार सज्जन और भले व्यक्तियों के भी पतन का कारण बन जाता है। दूसरा कारण यह भी था कि वे स्वयं ही अपने को दीन-हीन और दूषित मानते थे, जिससे दूसरों के दोष ढूँढ़ने वाले आलोचकों और बड़े बनने वाले अहंकारियों की निगाह से बचे रहें।
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