अब तीनों राजमहल पहुँचकर पहले तो वैशाली के कक्ष में घुसे,इसके पश्चात कालवाची ने सभी का रुप बदला,तत्पश्चात सभी अपने अपने कक्ष की ओर चले गए,दूसरे दिन पुनः महाराज गिरिराज ने वैशाली को रात्रि के समय अपने कक्ष में बुलाया और अपने समीप बैठने को कहा...
वैशाली महाराज गिरिराज के समीप बैठते हुए अत्यधिक भयभीत थी कि कहीं गिरिराज के समक्ष उसका ये भेद ना खुल जाएं कि वो एक पुरूष है स्त्री नहीं, ये सभी विचार वैशाली बने अचलराज के मस्तिष्क में आवागमन कर रहे थे तभी गिरिराज बोला.....
"प्रिऐ! तुम कितनी सुन्दर हो,मैं तुम्हारे समीप आने हेतु कब से ललायित हूँ,परन्तु तुम तो मुझ पर अपना ध्यान केन्द्रित करती ही नहीं,तुम्हें ज्ञात है तुम्हारी ये ये शुष्कता,ये पाषाणता मेरे हृदय को बाण की भाँति वेध जाते थे ,तुम जैसी रूपसी यदि मेरे प्रेम को स्वीकार कर ले तो मैं तो धन्य ही हो जाऊँगा",
तब वैशाली गिरिराज से बोली...
"जी! महाराज! मुझे भी तो आपके दर्शनों की अभिलाषा है, किन्तु मैं चाहती थी कि मैं आपसे एकान्त में मिलूँ,आपका ये पाषाण सा कठोर शरीर,आपकी सुडौल भुजाएँ,आपका ये विशाल उर देखकर मेरा जी चाहता है कि इस पर अपना सिर रखकर चैन से सो जाऊँ,आपकी सुडौल भुजाओं में सदैव के लिए समा जाऊँ,किन्तु ये सब तो कदाचित मेरे भाग्य में ही नहीं है,कहाँ आप इतने विशाल राज्य के महाराज और मैं साधारण सी युवती,मेरी आपसे कोई तुलना ही नहीं हो सकती,मैं स्वयं को आपके योग्य समझती ही नही"
तब गिरिराज वैशाली से बोला....
"ऐसा मत कहो प्रिऐ! मैं तो कब से तुम्हारे गुलाब की कोमल पंखुड़ी के समान होठों का रसपान करने हेतु व्याकुल हूँ,तुम्हारे खिलते हुए यौवन को अपने हृदय से लगाने हेतु आतुर हूँ,चलो बिलम्ब से ही सही तुमने मेरे हृदय की बात तो जानी,इसका तात्पर्य ये है कि मेरे प्रेम ने एक चुम्बकत्व का कार्य करके तुम्हें स्वयं ही मेरी ओर आकर्षित कर लिया,मैं तुम्हारें इस यौवन को अपनी भुजाओं में समेट लेना चाहता हूँ,आओ प्रिऐ मेरी व्याकुलता को आज रात्रि समाप्त कर दो",
तब वैशाली बना अचलराज बोला....
"इतनी भी शीघ्रता क्या है राजन? मैं तो अब आपकी हो ही चुकी हूँ,ये जो तनिक सा अन्तर बचा है हम दोनों के मध्य उसे आज रात्रि मैं समाप्त कर ही देती हूँ,परन्तु पहले आप और मैं तनिक प्रेमभरा वार्तालाप तो कर लें,मैं अपने हृदय की पीड़ा आपको सुनाना चाहती हूँ,लेकिन ना जाने क्यों मेरा हृदय इतनी तीव्र गति से भाग रहा है,कदाचित मुझे अत्यधिक भय लग रहा है,तनिक मेरे हृदय पर अपना हाथ रखकर तो देखिए,तभी तो मेरी पीड़ा आपको अनुभव होगी ,मेरे स्वप्नों के राजकुमार मेरी प्रेमभरी इच्छाओं को आज रात्रि समाप्त कर दीजिए,मेरे इस यौवन पर केवल आपका ही अधिकार है,मेरे शरीर का अंग-प्रत्यंग केवल आपको ही पुकार रहा है,मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार कर लीजिए ,हाय! आपकी समीपता से मेरी विह्वलता तो बढ़ती ही जा रही है,कृपया मेरी इस आतुरता पर अवरोध लगाएं राजन!"
तब महाराज गिरिराज वैशाली से बोले...
"ओहो....वैशाली! तुमने ये कहकर मेरी आकांक्षाओं को और भी बढ़ा दिया है,तुम्हारे वार्तालाप ने तो मुझे भाव-विभोर कर दिया है मेरी प्राणप्यारी,मेरी प्रेमसंगिनी!"
तब वैशाली गिरिराज से बोली....
"महाराज! मैं एक बात और कहना चाहती थी आपसे"
"हाँ! कहो ना! प्रिऐ!,निःसंकोच कहो",गिरिराज बोला...
"वचन दीजिए कि आप क्रोध नहीं करेगें,वैशाली ने गिरिराज के कपोलों पर प्रेमभरा स्पर्श करते हुए कहा...
"कदापि नहीं प्रिऐ! आज अपने हृदय किवार खोल दो,निःसंकोच सब कह दो,आज रात्रि सबकुछ कह डालो,कुछ शेष ना रहे, गिरिराज बोला...
"महाराज ! मैं चाहती थी कि आज मैं मदिरापान करके आपके संग प्रेमालाप करूँ,ताकि मेरी लज्जा कुछ समाप्त हो जाए एवं मैं इस क्षण का मुक्त होकर आनन्द उठा पाऊँ",वैशाली बोली...
"मैं भी यही चाहता था वैशाली! तो बिलम्ब किस बात का देवी!स्वयं के संग संग मुझे भी मदिरापान कराओं,मैं तो कब से आतुर हूँ एवं कब से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था,गिरिराज बोला...
"ओह....महाराज! आज तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे मैं स्वर्ग का भ्रमण कर रही हूँ ",वैशाली बोली...
तब गिरिराज बोला...
" एवं मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे स्वर्ग से कोई अप्सरा भूतल पर उतर आईं हो एवं उसके रूप और यौवन ने मुझे सम्मोहित कर दिया हो एवं मैं उसकी मधु जैसी मीठी मीठी बातों से भाव विभोर हुआ जा रहा हूँ",
"कैसी बातें करते हैं महाराज? मैं इतनी सुन्दर नहीं कि आप मुझे अप्सरा कहें",वैशाली बोली...
"ओह...प्राणप्यारी! तुम्हें नहीं ज्ञात कि तुम मेरे लिए क्या हो? बस तुम ऐसा ही मीठा मीठा मधु समान वार्तालाप करती रहो,अच्छा लगता है ,अत्यधिक आनन्द आ रहा है",गिरिराज बोला...
वार्तालाप करते करते वैशाली अपना कार्य प्रारम्भ कर चुकी थी,उसने गिरिराज को मदिरापान कराना प्रारम्भ कर दिया था,वो अपना पात्र भी मदिरा से भर लेती एवं उसे बिछावन के समीप रखें,फूलदान में डालती जाती,परन्तु गिरिराज मदिरा से भरें सभी पात्र पीता जाता,जब वैशाली को लगा कि अब गिरिराज कुछ अचेत सा हो रहा है तो उसने इस अवसर का लाभ उठाना उचित समझा,तब उसने उसके काँधे पर अपना सिर रखते हुए कहा.....
"महाराज! आप अत्यधिक साहसी है,आपके पिता महाराज भी आपकी ही भाँति वीर एवं साहसी रहे होगें,तभी उन्होंने आपके करकमलों में इस राज्य का कार्यभार सौंप दिया,सच महाराज आप इस राज्य के योग्य होगें तभी तो उन्होंने ये शुभ कार्य किया"
"ना...ना..प्रिऐ! ये राज्य मेरे पिता महाराज का नहीं था",गिरिराज बोला...
"सत्य महाराज! ये राज्य आपके पिता महाराज का नहीं था तो किसका था?",वैशाली ने पूछा...
तब गिरिराज अचेत अवस्था में बोला...
"ये राज्य तो मैंने युद्ध करके जीता था",
"तो क्या भूतपूर्व राजा की आपने हत्या कर दी"?,वैशाली ने पूछा...
"नहीं! मैनें उसे कारागार में बंदी बनाकर रखा है",गिरिराज बोला...
"ये तो अत्यधिक कठिन कार्य था महाराज!, आप जैसा महान योद्धा ही ही ये कार्य कर सकता है",वैशाली बोली।।
"तुम्हें मुझ पर इतना विश्वास है सुन्दरी!" गिरिराज ने पूछा...
"अब इस विषय में और अधिक वार्तालाप मत कीजिए, लीजिए ! मदिरा लीजिए ताकि मैं और आप अचेत होकर बस एकदूसरे में खो जाएं",वैशाली बोली।।
इसके पश्चात वैशाली गिरिराज को मदिरापान कराती गई...कराती गई....कराती गई.....और कुछ समय पश्चात गिरिराज अपने बिछावन पर पूर्णतः अचेत होकर लेट गया.....
गिरिराज के गहरी निंद्रा में चले जाने के उपरान्त वैशाली ने गिरिराज के वस्त्रो को अस्त व्यस्त सा कर दिया और बिछावन की दशा भी कुछ बिगाड़ सी दी ताकि ये लगने लगें कि उस बिछावन पर प्रेमालाप जैसा कुछ हुआ है,अन्त में उसने अपने वस्त्रों को सँवारा,अपना श्रृंगार ठीक किया और गिरिराज के कक्ष से बाहर चली आईं,कक्ष के द्वार पर खड़े सैंनिको के समक्ष उसने उनसे लजाने का अभिनय किया एवं मुस्कुराते हुए अपने कक्ष की ओर चली गई......
प्रातः हुई तो गिरिराज निंद्रा से जागते ही वैशाली को खोजते हुए उसके कक्ष में जा पहुँचा,कक्ष में वैशाली एकदम अकेली थी,वैशाली ने ज्यों ही गिरिराज को देखा तो अपनी ओढ़नी को अपने मुँख में दबाते हुए लजाई और बोली....
"महाराज! आप तो बड़े वो हैं,रात्रि में आपने मुझे कितना सताया"
"क्यों सुन्दरी ? तुम्हें आनन्द नहीं आया क्या?",गिरिराज ने पूछा...
"आनन्द की मत पूछिए महाराज! वो तो अत्यधिक आया,आपके स्पर्श से तो मैं धन्य ही हो गई", वैशाली बोली...
"मैंने कदाचित अत्यधिक मदिरापान कर लिया था ,इसलिए इतना कुछ तो मुझे याद नहीं", गिरिराज बोला....
"परन्तु! मुझे तो सब याद है,वो मेरे जीवन की सबसे मधुर रात्रि थी,ये सुखद क्षण मैं कभी ना भूलूँगीं,अब ना जाने वो रात्रि पुनः कब आएगी?" वैशाली बोली...
"तुम चाह लो तो आज रात्रि फिर से वो रात्रि आ सकती है",गिरिराज बोला....
"सच! महाराज! मेरे तो अहोभाग्य!" वैशाली बोली....
"तो पुनः आज रात्रि मेरे कक्ष पर आ जाना",गिरिराज बोला...
"मैं आ जाती महाराज! किन्तु! आज मुझे कुछ आवश्यक कार्य है",वैशाली बोली...
"तो कल रात्रि तो आ सकती हो ना!",गिरिराज बोला...
"हाँ! महाराज!",वैशाली बोली...
कुछ समय तक दोनों के मध्य वार्तालाप हुआ एवं इसके पश्चात गिरिराज वैशाली के कक्ष से चला गया,रात्रि में कालवाची पुनः अचलराज के कक्ष में आई और उससे पूछा...
" तो सखी वैशाली!कैसी बीती महाराज के साथ मधुर रात्रि की बेला"?
"छीः... उस साँड़ के भाँति मनुष्य की समीपता से ही मुझे उबकाई आने लगती थी,उसके प्रस्वेद(पसीने) की दुर्गन्ध को रात्रि भर मैंने कैसें झेला,ये केवल मैं ही जानता हूँ",वैशाली बना अचलराज बोला...
अन्ततोगत्वा अचलराज की बात सुनकर कालवाची हँसने लगी....
क्रमशः....
सरोज वर्मा.....