असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 3 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 3

ईश्वर का संकेत और नारायण का गृहत्याग

नारायण में आए बदलाव माँ की नज़रों से छिपे नहीं थे। पिता के देहांत के बाद बड़े धैर्य से उन्होंने दोनों बच्चों का पालन-पोषण किया था। नाममंत्र मिलने के बाद नारायण शांत और गंभीर हो गए थे। माँ से वे बड़े आदर और प्रेम से पेश आने लगे थे। उनकी हर बात मानने लगे थे। यह देखकर कुछ ही दिनों में माँ ने फिर से नारायण को शादी के लिए मनाना शुरू कर दिया।

एक दिन मौका पाकर, माँ ने नारायण से पूछा, “बेटा, क्या तुम मुझे तकलीफ में देखना चाहते हो?” नारायण ने आश्चर्य से कहा, “नहीं माँ! मैं भला ऐसा क्यों चाहूँगा?”

“तो विवाह के लिए मान जाओ ना बेटा। वंश चलाने के लिए विवाह होना बहुत आवश्यक है।”, माँ ने धीरे से अपनी बात रखते हुए कहा। नारायण के पास इसका समाधान था। “बड़े भैया की शादी हो गई है ना माँ! फिर वंश चलाने के लिए मेरे विवाह की क्या ज़रूरत है?” नारायण ने तर्क दिया।

माँ ने उम्मीद न छोड़ते हुए आगे बात जारी रखी- “बेटा, माँ चाहे बच्चों को सँभालने में कितनी भी सक्षम क्यों न हो लेकिन वह हमेशा यही चाहती है कि बेटे के गृहस्थी की ज़िम्मेदारी बाँटनेवाली बहू घर में आए। उस पर घर की ज़िम्मेदारी सौंपकर माँ निश्चिंत मन से मोक्ष की कामना कर सकती है। क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारा विवाह न कर पाने का दुःख मनाते हुए ही मर जाऊँ?”

यह सुनकर नारायण गहरी सोच में पड़ गए। उनके विवाह के पीछे माँ का ऐसा भी दृष्टिकोण हो सकता है, यह उन्हें ज्ञात ही नहीं था। उन्हें गंभीर होकर सोचते देख माँ की उम्मीद जग गई। उन्हें लगा कि अब वे बेटे से अपनी बात मनवा सकती है। इसलिए बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने नारायण को समझाया, “देखो बेटा, अभी तुम बस हाँ कह दो। अपनी माँ की खुशी के लिए इतना तो कर दो। तुम बस शादी में अंतरपट* पकड़नेे की रस्म तक शादी के लिए मना मत करना। उसके आगे तुम्हारी मर्ज़ी।”

माँ जानती थी कि अंतरपट हटते ही, अगले क्षण नारायण के गले में वरमाला पड़ेगी और नारायण सांसारिक ज़िम्मेदारियों में बँध जाएँगे। उसके बाद उन्हें अपने परिवार के साथ सांसारिक जीवन जीना ही पड़ेगा।

नारायण माँ की बातों में छिपी चालाकी समझ नहीं पाए और माँ का दिल रखने के लिए शादी के लिए मान गए। उन्होंने माँ को वचन दिया कि वे विवाह में अंतरपट पकड़े जाने तक शादी करने से मना नहीं करेंगे। माँ बेचारी मन ही मन खुश हो गई कि कैसे उसने होशियारी से बेटे को मना लिया। लेकिन आगे क्या होनेवाला है, यह वह कहाँ जानती थी! जल्द ही नारायण के लिए सुयोग्य वधु तलाशी गई और अच्छा मुहुर्त देखकर विवाह का समय निश्चित किया गया। देखते-देखते घर में शादी की तैयारियाँ पूरी हो गईं और वह दिन भी आ गया, जिसका माँ को बेसब्री से इंतजार था।

शादीवाले दिन दूल्हे को लेकर बारात दुल्हन के गाँव पहुँची। एक-एक करके शादी की रस्में शुरू हुईं। नारायण सारी विधियों में दिलचस्पी से भाग ले रहे थे। उनके मन में क्या चल रहा है, आगे वे क्या करनेवाले हैं, किसी को खबर नहीं थी।

विधियाँ पूरी होते-होते अंतरपट पकड़ा गया और उपस्थित ब्राह्मण मंगलाष्टक मंत्रों का उच्चारण करने लगे। एक-एक क्षण के साथ अंतरपट हटने का समय नज़दीक आ रहा था। कुछ ही देर में वरमाला पहनाने का समय आ गया और प्रथा के अनुसार ब्राह्मण ने पुकार लगाई... ‘शुभमंगल सावधान...’

‘सावधान...!’ यह शब्द सुनते ही नारायण सतर्क हो गए। मानो उनके लिए यह ईश्वर का संकेत था। उनके अंदर की आवाज़ कहने लगी, ‘सावधान...! पैरों में गृहस्थाश्रम की बेड़ी पड़नेवाली है... सावधान...!’

अब नारायण बेचैन हो गए। उन्हें चिंता होने लगी कि अभी इसी क्षण कुछ नहीं किया तो गले में वरमाला के साथ सांसारिक बंधन भी पड़ेगा। यह बंधन उनके विश्वकल्याण के उद्देश्य में बड़ी बाधा साबित होगा।

अंतरपट हटाने का समय आ चुका था और माँ को दिया हुआ वचन यहाँ पूर्ण हुआ था। एक क्षण का भी विलंब किए बिना नारायण छलाँग लगाकर विवाह वेदी से नीचे उतरे और अगले ही क्षण, कमान से निकले तीर की तरह वहाँ से ऐसे दौड़े कि किसी को कुछ समझ में आने से पहले मंडप से गायब हो गए।

आज तक सुप्त अवस्था में छिपा रजोगुण इस वक्त काम आया था। वायुगति से वे इस तरह भाग निकले कि किसी के हाथ न आए।

‘दूल्हा भाग गया...! दूल्हा भाग गया...!’ कहते हुए मंडप में हाहाकार मच गया। माँ पर मानो आसमान टूट पड़ा और वह रोते हुए अपने आपको कोसने लग गई। माँ को शांत कराकर गंगाधर बारातियों को लेकर नारायण को ढूँढ़ने निकले। लेकिन आस-पास के परिसर में उन्हें कहीं न पाकर मायूस होकर लौटे। न जाने नारायण कहाँ चला गया था...!

जय जय रघुवीर समर्थ..

लक्ष्य साफ है तो मार्ग अपने आप मिलता है। लक्ष्य दमदार है तो जोखिम भरा मार्ग रुकावट नहीं बल्कि चुनौती बनता है।


करी काम निःकाम या राघवाचें। करी रूप स्वरूप सर्वां जिवांचे॥ करी छेद निर्द्वंद्व हे गूण गातां। हरीकीर्तनीं वृत्तिविश्वास होतां॥77॥

अर्थ - राघव का नामस्मरण सभी कामों (वासनाओं) को निष्काम करता है। राम नाम लेनेवाले को सभी जीवों में स्व-स्वरूप ही नज़र आता है। राम के गुणगान से द्वंद्व (द्वैतबुद्धि) समाप्त हो जाति है। हरिकीर्तन (नामस्मरण) में विश्वास होने पर यह संभव होता है।

अर्क - नामस्मरण द्वारा जब स्व-स्वरूप (आत्मबोध) उजागर होता है तब यह साक्षात्कार होता है कि हरेक में वही ईश्वर है, जो मुझमें है। इसके बाद हर जीव में ईश्वर ही नज़र आता है। नामस्मरण का भक्तिमार्ग में बहुत महत्त्व है। इसके द्वारा उपास्य और उपासक के एक ही होने की अनुभूति होती है।

क्रियेवीण नानापरी बोलिजेतें। परी चीत दुश्चीत तें लाजवीतें॥ मना कल्पना धीट सैराट धांवे। तया मानवा देव कैसेनि पावे॥104॥

अर्थ - सिर्फ बोलते हैं, करते कुछ नहीं हैं, ऐसे लोग दुनिया में बहुत होते हैं। ऐसे लोगों को एक दिन शर्मिंदगी महसूस करनी पड़ती है। मन अनेक कल्पनाओं में दौड़ता रहता है। ऐसे में इंसान को ईश्वर दर्शन कैसे संभव है?

अर्क - जिनके भाव-विचार-वाणी और क्रिया में एकरूपता होती है, वे विश्वासपात्र होते हैं। ऐसे लोगों को आदर स्वतः ही मिलता है। वरना मन शेखचिल्ली की तरह कल्पना में ही डूबा रहे तो सही कार्य नहीं कर पाता। कल्पना की आदत ही मन को ईश्वर दर्शन से दूर रखती है। ईश्वर के रूप की कल्पना करने की वजह से असली ईश्वर को वह जान नहीं पाता। इसलिए समर्थ रामदास मन को कल्पना में न दौड़ने का उपदेश देते हैं।