वर्षों पूर्व भरोड़ा के नाविकों में प्रथम नाम था माधवमल्ल का । नदियों के पथ से समस्त द्वीपों का जितना ज्ञान उसे था , भरोड़ा में और किसी को नहीं था । इसीलिए , व्यापारियों का वह प्रिय था । पुराने ताम्बे - सा रंग और पहलवानी शरीर का बांका जवान था माधवमल्ल । भरोड़ा की कई लड़कियां उससे ब्याह का सपना देख रही थीं , परन्तु माधव के नैन लड़ गये बखरी की गोढ़िन जमुनिया से । जमुनिया के घर वालों को भला क्या आपत्ति होती । माधव जैसा बाँका युवक और कमाऊ दामाद और मिलता कहाँ ? सो , तुरंत ही बात पक्की भी हो गयी । जमुनिया के स्वप्न देखता निहाल हो गया माधव । परन्तु , विधाता की इच्छा होती तो ब्याह होता ! बहुरा के कारण बखरी की युवतियां भैरवी बन चुकी थीं और जिसने भी छिप - छिपाकर ब्याह मण्डप में फेरे लिये , तत्काल विधवा हो गयी । उस दिन अपनी नाव पर वह व्यापारियों को शंखाग्राम लिये जा रहा था , जब बखरी घाट पर रोती हुई जमुनिया आकर उससे • अंतिम बार लिपट गयी थी । हृदय टूटा तो माधवमल्ल ने अपने अंचल को ही त्याग दिया । शंखाग्राम गया तो फिर वह लौटा ही नहीं जा बसा शंखाग्राम में गंगा माता यहीं आकर सागर में विलीन हो जाती थी । चम्पा की तरह सम्पन्न अंचल था शंखाग्राम । यहाँ आकर उसने अपनी नौका कौड़ियों के मोल बेच दी और छोटे - मोटे काम करते - करते शंखाग्राम का आढ़तिया बन बैठा । वर्षों बीत गये , परन्तु आज भी जमुनिया के सजल नैन उसके क्रन्दन और अंतिम आलिंगन को वह भूल न पाया । शंखाग्राम में आढ़तिया माधवमल्ल के भग्न हृदय को जोड़ा अमला तिरहुतिया ने । सांवली - सलोनी अमला तिरहुतिया बंगालन थी । कजरारे नैनों वाली साँवली अमला का तन दुहरा न होता तो सौंदर्यशास्त्र की प्रत्येक कसौटी पर वह खरी उतरती । फिर भी आढ़तिया माधवमल्ल के भग्न हृदय पर जब उसने अपने का मरहम लगाया तो चिरआकांक्षित माधवमल्ल उसके प्रेम में ऐसा अंधा हुआ कि उसे प्रेमिका की वृहत् पृथुल काया दिखी ही नहीं । और अब उसका नाम था आढ़तिया माधव तिरहुतिया । शंखाग्राम का प्रसिद्ध आढ़तिया अमला बंगालन के साथ गृहस्थी बसाकर आनंद में मगन था । भरोड़ा में नाविक का श्रमसाध्य कार्य करने वाला माधव सारे समय अपनी गद्दी पर • विराजमान रहता और ऊपर से अमला के हाथों का स्वादिष्ट गरिष्ठ भोजन ! परिणाम यह हुआ कि शरीर के साथ उसके उदर ने भी प्रगति कर ली । आज सुबह - सबेरे गद्दी पर आकर बैठा ही था कि चंदन सेठ को आते देख वह प्रसन्न हो गया । माधव के लिए वह कामरूप से अन्नादि और ऊन लाया करता था । ' आओ सेठ ... पधारो ! ' प्रसन्न होकर उसने सेठ को गद्दी पर बैठाते हुए कहा ' आज का दिन तो समझो तुम्हें देखते ही सफल हो गया । यात्र कैसी रही ? ' ' कुछ मत पूछो माधव भाई ... ! इस बार जो सामग्री लाया हूँ , उसे देखते ही तुम प्रसन्न हो जाओगे ... और एक विशेष सूचना है तुम्हारे लिए . कामरूप से मेरी नौका में तुम्हारे ही अंचल काएक अद्भुत युवा योगी भी साथ आया है । ' चौंका माधव ! मेरे अंचल का ! ... भरोड़ा का है वह ? ' ' हाँ , माधव भाई ... ! तुम्हारे ही भरोड़ा का है वह । अब क्या बताऊँ तुम्हें ? मैंने अपने जीवन में ऐसा तेजस्वी मनुष्य कभी नहीं देखा । क्या प्रभा - मण्डल है ... और क्या तेज है उसकी आकृति में ! समझो देवदूत ही है ... और क्या कहूँ ? ' तत्काल माधव के अंतस् में कुँवर दयाल की छवि कौंधी । तड़पकर कहा माधव ने अरे तो ... उन्हें कहाँ छोड़ आये सेठ ... ? तुम्हें तो सादर उनको मेरे पास ही लाना उचित था । विशेषकर जब तुमने जान लिया कि वे भरोड़ा के हैं । ' ' वाह ... क्या कहने ! ' हाथों को चमकाते हुए चंदन सेठ ने कहा ' मान न मान , मैं तेरा मेहमान ... ! तुम्हारी इच्छा जाने बिना , कैसे ले आता उनको । ' ' मुझे शीघ्र ले चलो अपने साथ - व्यग्र होकर माधव ने कहा- मैं शीघ्र उनसे मिलना चाहता हूँ । ' ऐसी क्या बात है , माधव भाई ... ! ' विस्मित होकर चंदन सेठ ने कहा- तुम अनायास इतने व्यग्र क्यों हो गये ? तुम्हें अनुमान है ... वे कौन हैं ? ' ' अब वार्तालाप में और विलम्ब न करो ... चलो मेरे साथ ! ' गद्दी से उतरते हुए कहा माधव ने आढ़तिया माधव तिरहुतिया गद्दी से उतरकर झटपट अंदर आंगन में गया । अमला अपराद्द भोजन की व्यवस्था में व्यस्त थी । ' सुनो प्राणप्यारी ' पास जाकर माधव ने कहा- आज हमारे भाग्य खुलने वाले हैं ... संभव है हमारे कुँवर नटुआ दयाल सिंह के मंगल चरण आज तुम्हारी कुटिया में पड़ें ... तुम शीघ्र आभूषणों सहित अपना शृंगार कर लो तथा उनके आतिथ्य की व्यवस्था प्रारंभ करो ... मैं आता हूँ । ' भौंचक अवस्था में पत्नी को छोड़ माधव बाहर भागा । पत्नी पुकारती ही रही और उसे छोड़ चंदन सेठ के साथ दौड़ता माधव , घाट की ओर भागा । राह चलते लोग आश्चर्यचकित हो देखने लगे । क्या हुआ है । हमारे आढ़तिया माधव तिरहुतिया को ? माधवमल्ल की पत्नी अमला ने जब समक्ष खड़े कुँवर दयाल को देखा तो अपलक देखती ही रह गयी । ' देवर का प्रणाम स्वीकार करो बो दी ! ' मुस्कराकर दयाल ने अमला को प्रणाम करने के बाद हँसते हुए माधव से कहा- ' चित्त प्रसन्न हो गया माधव ! भाभी को देखते ही मैंने जान लिया- अर्थोपार्जन में तुमने विशेष उन्नति की है । ' ' वह कैसे कुँवर जी ? ' संकोचपूर्ण स्वर में पूछा माधव ने । ' कैसे क्या ... ? भाभी की स्वस्थ काया ही तो प्रमाण है इसका ... ! कहकर कुँवर पुनः मुस्कराये । माधव तो शर्म से झेंप गया , परन्तु अमला आँखें फाड़े अब तक अर्द्ध चेतना में कुँवर को निहारे ही जा रही थी । वह कुँवर के प्रणाम का उत्तर देना भी भूल गयी । ' क्यों बो ' दी ? ' विनोद किया कुँवर ने- ' अपने भूखे - प्यासे देवर ' क्यों बो ' दी ? ' विनोद किया कुँवर ने अपने भूखे - प्यासे देवर को यों तकती ही रहोगी या कुछ पूछोगी भी ? ' • तत्काल उसकी चेतना लौटी . चैतन्य होते ही लजा गयी अमला । दोनों हाथों से कुँवर की बलैइयां लेती झट अपने कक्ष में भागी और शीघ्र आरती की थाली लिए वापस लौट आयी । ' सबसे पहले तो मैं नजर उतारूंगी , अपने देवर जी की ... ! न जाने कितने राह चलतों ने नजरें गड़ा - गड़ा कर देखा होगा तुम्हें । ' कहकर अमला ने कुँवर की पहले तो नजर उतारी , फिर कुँवर की आरती की- आओ देवर जी ... ! अपनी गरीब भाभी की कुटिया में पधारो । हमारे तो भाग्य ही खुल गए जो आप के चरण हमारे अंगना में पड़े ! ' अमला ने कुँवर का हाथ पकड़कर कहा - ' विराजो देवर जी ... ! रूखी - सूखी जो है , झट लाती हूँ । ' आढ़तिया माधव तिरहुतिया के आंगन में लगा जैसे स्वयं भगवान ही पधार गये । क्या खिलाए , क्या पिलाए और कहाँ बिठाए ! उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक तभी बाहर मुख्य मार्ग से उभरता कोलाहल अंदर आया । ' यह कोलाहल कैसा है ? ' कहते हुए माधव घबराकर उठ गया । ' घबराओ नहीं ! ' कुँवर ने शांत स्वर में कहा - ' चलो देखते हैं ! ' दोनों बाहर आये तो मार्ग पर कोलाहल मचा था । राजसी वस्त्रों एवं आभूषणों से युक्त एक अति सुन्दर युवक को बेड़ियों में जकड़ बंदी बनाकर ले जाया जा रहा था । युवक के दोनों ओर हाथों में नंगी तलवारें उठाये सैनिक चल रहे थे और देखनेवालों की भीड़ साथ - साथ चल रही थी । युवक की मुखाकृति शांत थी । उसमें भय का कोई भाव नहीं था । शांतचित्त युवक स्थिर कदमों से सैनिकों के साथ चल रहा था । ' कौन है यह भद्र युवक ... ? ' कुँवर ने पूछा- तुम जानते हो इसे ? " ' जानता हूँ कुँवर ! यह उत्कल देश का राजकुमार है । चंद्रचूड़ नाम है इसका । ' ' इसे देखते ही मैंने भी समझ लिया था । इसके परिधान तथा व्यक्तित्व की आभा से ही मुझे लगा था यह अवश्य किसी बड़े अंचल का युवराज है । परन्तु सैनिकों ने इनको बन्दी क्यों बनाया है ... ज्ञात है तुम्हें ? ' कुँवर के प्रश्न पर माधव पहले मुस्कराया , फिर कहा- प्रेम करने के अपराध में इसे बंदी बनाया गया है कुँवर ! ' कोलाहल करती लोगों की भीड़ आगे बढ़ गयी थी । कुँवर की उत्सुक दृष्टि माधव पर पड़ी । माधव ने कहा- हमारे राजा जी की असामयिक मृत्यु के बाद से उनकी अद्भुत पुत्री भुवन मोहिनी ही राज - काज सम्हाल रही हैं , यह तो कदाचित् आप जानते ही होंगे कुँवर ? " ' जानता हूँ , परन्तु भुवनमोहिनी के लिए तुमने ' अद्भुत ' क्यों कहा और इस युवराज को किसके प्रेम दिया गया है माधव ? तुम टुकड़ों में नहीं विस्तार में मुझे सारी बात बताओ ... वास्तव में हुआ क्या है ? ' ' पूरी बात बता दूंगा कुँवर ! आप आंगन में विराजें ! भोजन ग्रहण करें तत्पश्चात् पूरी कथा आप जान जाएँगे । शंखाग्राम के प्रत्येक आगन में आज युवराज चंद्रचूड़ और टंका कापालिक की ही चर्चा हो रही है । ' कहकर माधव कुँवर के साथ आंगन की ओर बढ़ चला । ' बड़ी रहस्यमयी बातें कर रहे हो माधव ! ' कुँवर ने शांत स्वर में ही कहा- ' तुम्हारा शंखाग्राम , लगता है , सामान्य अंचल नहीं अद्भुत नगरी है । मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही है । ' आंगन में भोजन की थाल लिये हर्षित अमला खड़ी थी । इनके पहुँचते ही उसने माधव से पूछा- यह कोलाहल कैसा था स्वामी ? ' ' बंदी युवराज चन्द्रचूड़ को हमारी रानी भुवनमोहिनी के समक्ष प्रस्तुत करने हेतु ले जाया जा रहा है । युवराज को घेरे नंगी तलवारें लिये सैनिक ले जा रहे थे और नगर के लोग कोलाहल करते साथ जा रहे हैं । ' ' अभागा युवराज ! ' अमला ने आह भरते हुए कहा- प्रेम करने के लिए उसे जगत में और कोई न मिला ! ' पत्नी की बात पर हँस पड़ा माधव- ' उसने तुम्हें देखा ही कहाँ था यवान ... अन्यथा । ' | नाटकीय क्रोध से अमला ने अपने पति को देखकर कुँवर से कहा - ' इन्हें समझा दीजिए कुँवर जी ... ! " पति - पत्नी के विनोद को देख कर कुँवर को हँसी आ गयी । इसी प्रकार के मनोविनोद के मध्य कुँवर ने सारी कहानी सुनते हुए भोजन ग्रहण किया । भुवनमोहिनी के रूप - लावण्य की ख्याति चर्तुदिक् प्रकाश के सदृश फैली थी । दूर - दूर के अंचलों के युवराज भुवनमोहिनी की सुन्दरता पर मुग्ध थे । परन्तु , भुवनमोहिनी अपनी तांत्रिक नृत्य • साधना में इतनी मगन थी कि उसे तुच्छ सांसारिक बंधनों का कुछ भान नहीं था । राजकीय दैनंदिनी के प्रति भी वह पूर्णरूपेण उदासीन थी । समस्त आदेश - निर्देश राजमाता ही देती थीं । भुवनमोहिनी को अपनी अंकशायिनी बनाने के लोभ में दूर - दूर के अंचलों के अधिपति शंखाग्राम में आकर कई पक्षों तक रहते । भुवनमोहिनी को बहुमूल्य उपहार प्रदान करने की , उसे प्रभावित करने की योजना बनाते रहते । परन्तु कभी कोई सफल नहीं हो पाता । वर्ष में मात्र एक दिवस ऐसा आता , जब भुवनमोहिनी का दुर्लभ दर्शन सामान्य जन को सुलभ होता । वह दिवस होता भगवती बंगेश्वरी के पूजन का परन्तु उत्क युवराज चन्द्रचूड़ ने दुःसाहस की पराकाष्ठा ही लांघ दी थी । चर्चा थी कि उसने भुवनमोहिनी के अपहरण का ही प्रयत्न कर डाला था और असफल होकर बंदी बन गया । माधव ने कुँवर से कहा- ' भगवती बंगेश्वरी के पूजन के पश्चात् हमारी भुवनमोहिनी स्वयं इसे कापालिक टंका को बलि हेतु प्रदान करने वाली हैं । इसके उपरांत नृत्य प्रतियोगिता का भव्य कार्यक्रम होगा कुँवर । इस प्रतियोगिता में प्रत्येक वर्ष विजयश्री भुवनमोहिनी का ही वरण करती आयी है । उनके समक्ष आज तक कोई नहीं ठहर पाया । ' कुँवर आश्चर्यचकित हो गया । क्रूर कृत्य के उपरांत नृत्योत्सव ! परन्तु जहाँ चाह , वहीं राह । कमला मैया सहाय हैं , नहीं तो आते ही गुरु - चरणों के दर्शन का ऐसा सुयोग .... सोचते ही कुँवर के अधरों पर मुस्कान थिरकने लगी । कुँवर को यों मुस्कराते देख माधव ने कहा- समझ गया कुँवर जी ... आज कदाचित् विजयश्री भुवनमोहिनी के गले की माला नहीं बनने वाली । 'प्रत्युत्तर में कुँवर ने कहा- ' नहीं माधव ! ऐसी बात नहीं है । मैं इस नृत्य समारोह में मात्र दर्शक बना रहूँगा । इस अंचल में रहकर इसी अंचल की स्वामिनी को चुनौती देना अशिष्टता है ! यों भी इतनी विख्यात नृत्यांगना को चुनौती देने की धृष्टता मैं नहीं कर सकता । मेरी दृष्टि में भुवनमोहिनी परम आदरणीय साधिका हैं । ऐसे विशिष्ट प्राणी से आशीर्वाद तो लिया जा सकता है , चुनौती नहीं दी जा सकती । ' अपने कुँवर की मुखाकृति को सम्मानपूर्वक निहारता माधव उनके कथन पर मुग्ध हो गया । माधव के मौन पर कुँवर ने पुनः कहा- ' तुमने किसी टंका नामक कापालिक की चर्चा की थी । कौन हैं ये महापुरूष ? ' टंका कापालिक के नाम से माधव का प्रत्येक रोम सिहर उठा ' अत्यंत क्रूर कापालिक है यह । सम्पूर्ण शंखाग्राम में यह सबसे अधिक शक्तिशाली प्राणी है कुँवर । हमारी राज्य सत्ता से भी अधिक शक्तिशाली प्रत्येक वर्ष माता बंगेश्वरी के समक्ष यह टंका कापालिक कृष्णपक्ष चतुर्दशी की रात हमारे एक युवक की बलि देता है । हमारे सेनापति तक इनकी आज्ञा के अधीन रहते हैं कुँवर ! विचित्र कापालिक है वह ! नरबलि हेतु प्राप्त तरुण से वह पाँच विचित्र प्रश्न करके प्रतिज्ञा करता है कि यदि उसके प्रश्नों के सही उत्तर उसे प्राप्त हो गये तो वह उसे मुक्त कर देगा । परन्तु उसका प्रत्येक प्रश्न ऐसा जटिल होता है कुँवर कि आज तक किसी ने उसके एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया । प्रश्न करके वह , विकट अट्टहास करते हुए अपने भयाक्रांत बलि को खींचता ले जाता है । कमला मैया ही जानें इस अंचल को टंका कापालिक से कब मुक्ति प्राप्त होगी ? सम्पूर्ण शंखाग्राम को इस कापालिक ने त्रस्त कर रखा है कुँवर ! ' ' नरबलि ! ' कुँवर ने आश्चर्य व्यक्त किया । ' हाँ कुँवर जी ... ! यह क्रूर कापालिक महासिद्ध है । इसकी सिद्धियों के डर से राजसत्ता तक भयभीत रहती है । राजमाता की अनुनय - विनय का परिणाम मात्र यह हुआ कि नरबलि के लिए कापालिक स्वयं किसी का अपहरण नहीं करता । शंखाग्राम की ओर से प्रत्येक वर्ष कापालिक की सेवा में एक युवक को बलि हेतु दे दिया जाता है । यह अधोर कापालिक प्रत्येक वर्ष एक ही बलि प्राप्त कर संतुष्ट हो जाता है । ' यह बड़ी विचित्र कहानी थी । पूरी राजसत्ता एक कापालिक के समक्ष असहाय बन जाये , वह भी महान साधिका भुवनमोहिनी के राज्य में ! यह भला संभव कैसे है ? ऐसी ही जिज्ञासा में कुँवर मौन हो विचार - मग्न हो गये । सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था । | क्षितिज में लालिमा भरी थी । परकोटे पर खड़ी राजमाता उदास आँखों से डूबते हुए सूर्य को देख रही थीं । लाल सूर्य का वृत्त • आज उन्हें रक्त का विशाल गोला लग रहा था । आकाश की लालिमा के नेपथ्य में उन्हें युवराज चन्द्रचूड़ के बहते हुए रक्त के दर्शन हो रहे थे । चन्द्रचूड़ का दोष क्या था ? यही न कि उसने उसकी पुत्री भुवनमोहिनी को हृदय से प्रेम किया था , प्यार किया था उससे और प्रेम की गहराई ने उसे विवश कर दिया । करता भी क्या वह ? विकल्प ही क्या छोड़ाथा उसकी योगिनी पुत्री ने ? यौवन के प्रारंभ में ही उसने यौवन से मुख मोड़ लिया । परमात्मा ही जाने उसके राज्य का भविष्य क्या होगा । पति ने असमय ही साथ छोड़ दिया और इकलौती संतान ने जग से ही नाता तोड़ लिया । चन्द्रचूड़ जैसे सुदर्शन युवराज को देखते ही उसके डूबते अंतस् में आशा की एक छोटी - सी किरण जगी थी । लगा था भुवनमोहिनी के शुष्कहृदय में रस का संचार कदाचित् हो जाए . चन्द्रचूड़ जैसे दामाद को प्राप्त कर शंखाग्राम न केवल अपना राजा पा लेगा , बल्कि उत्कल की शक्ति भी उसकी अपनी शक्ति बन जाएगी । परन्तु विधना को अंचल का सुख न भाया । हा विधाता ! कितने निष्ठुर हो तुम ! चन्द्रचूड़ जैसे निरपराध , सुदर्शन और अबोध युवक के प्राण हरकर यदि तुम्हें संतोष प्राप्त होता हो तो हर लो उस अभागे के प्राण ! परन्तु स्मरण रख , ऐसे पुत्र के वियोग में उसके माता पिता भी रो - रो कर अपने प्राण त्याग देंगे । ... दया कर विधाता ... दया कर .. सोचते - सोचते राजमाता के नयनों से नीर बहने लगे । तुंरत ही उन्होंने स्वयं को सम्हाला और आदेशपाल को आज्ञा दी - शीघ्र कारागार जाकर मेरा आदेश दो । बंदी युवराज चन्द्रचूड़ को मेरे कक्ष में अविलंब उपस्थित किया जाए . '