सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 4 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 4

गुरु महिमा

भारतवर्ष के साधकों का विश्वास है कि सद्गुरु की कृपा बिना किसी को अध्यात्म मार्ग में सफलता नहीं मिल सकती। अनेक लोग यही कहा करते हैं कि हमने ग्रंथों का अध्ययन कर लिया अपनी बुद्धि से उनका रहस्य भी समझ लिया अब गुरु की क्या आवश्यकता है ? जो लोग इस प्रकार का विचार रखते हैं, वे अंत में अहंकार के जाल में ही फँसे दिखाई पड़ते हैं। विद्या प्राप्त कर लेने पर भी बिना उपयुक्त मार्गदर्शक के उसे व्यवहार में लाना और पूरा लाभ उठा सकना बहुत कठिन होता है। श्रीमत् शंकराचार्य जैसे महान् मनीषी भी यही कह गये हैं–
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या।
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।।
गुरोरधिपद्म मनश्चेत्र लग्नं।
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं।।

अर्थात्– “यदि तुमने छह अंग सहित वेद और शास्त्र कंठस्थ कर लिए और बढ़िया काव्य तथा गद्य रचना करने लगे, पर गुरु के चरणों में तुम्हारा मन संलग्न नहीं हुआ तो सब निरर्थक है —निरर्थक है।”

तुकाराम महाराज अध्यात्म मार्ग के साधारण पथिक नहीं थे। इसलिए उन्होंने जो कोई मिल गया, उसे यों ही सहज में गुरु नहीं बना लिया। अनेकों को कसौटी पर कसकर देखा और फिर दूर से ही प्रणाम करके विदा कर दिया। जहाँ तहाँ ब्रह्मज्ञान की कोरी बातें सुनने में आई, पर उसके प्रत्यक्ष लक्षण कहीं देखने को नहीं मिले। उन्होंने बार-बार दीनतापूर्वक सद्गुरु के लिए पुकार की, पर उनको सर्वत्र “दिखावटी पहाड़ और नींव रहित दीवारें” ही दिखलाई पड़े। तुकाराम चारों तरफ पाखंड और दंभ देखकर चिढ़ गये और उन्होंने ऐसे दंभी संतों की अपने अभंगों में खूब खबर ली–
काम क्रोध लोभ चित्ती, वारि-वारि दाविती विरक्ती।
तुका म्हणे शब्द-ज्ञानें, जग नाड़ियलें तेणें ।।१।।
रिद्धि-सिद्धि चे साधक, वाचा सिद्ध होती एक ।
त्यांचा आम्हासो कंटाला, पाहों नावड़ती डोलां ।। २ ।।
दावुनि वराग्यची कला, भोगो विषयांचा सोहरणा ।
ज्ञान सांगतो जनांसो, अनुभव नाही आपणोसी ।। ३।।

अर्थात्– “चित्त में तो काम, क्रोध, लोभ भरा हुआ है, पर ऊपर से विरक्त का-सा भाव प्रकट कर रहे हैं। ऐसे गुरु कोरे शब्द ज्ञान से दुनिया को धोखा देते हैं ।।१।।
कोई ऋद्धि-सिद्धि के फेर में पड़ा है, कोई वाक्-सिद्ध बनता है। इन सबसे मेरा मन उपराम हो गया है, उनको मैं देखना भी नहीं चाहता || २ ||
वैराग्य की ‘चमक’ दिखलाते हैं, पर स्वयं विषयों में लिप्त हैं। लोगों को ज्ञान सिखलाते हैं, पर स्वयं कुछ अनुभव नहीं रखते ॥ ३ ॥

ऐसे दंभी अधकचरे और गुरु बनकर पेट भरने वाले 'संत' जगह-जगह बहुत से मिल गये, पर तुकाराम महाराज की शुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि को सच्चे और झूठे की परख करते कितनी देर लगती थी ? उन्होंने उसी समय कह दिया– “भजन और स्तुति रचने वाले संत नहीं हैं। संतों के परिवार वाले भी संत नहीं हैं। अपना घर भरकर दूसरों को वैराग्य का उपदेश करने वाले संत नहीं हैं। केवल कथा बाँचने वाले कीर्तन करने वाले माला-मुद्रा धारण करने वाले, भस्म लपेटने वाले जंगलों में रहने वाले अथवा जप-तप करने वाले भी संत नहीं हैं। ये सब बाहरी लक्षण हैं, इनसे किसी की साधुता (आध्यात्मिकता) प्रकट नहीं होती।” अंत में तुकाराम ने किस प्रकार इस समस्या को हल किया, उस संबंध में अपना अनुभव वे इस प्रकार प्रकट करते हैं–
“मैंने ज्ञानियों के यहाँ भगवान् को ढूँढ़ने की चेष्टा की, परंतु देखा कि उनके पीछे तो अहंकार पड़ा हुआ है। शास्त्र-परायण पंडितो को देखा तो वे एक-दूसरे को नीचा दिखलाने में ही लगे थे। आत्म-निष्ठा देखने का प्रयत्न किया तो उनकी चेष्टाएँ उलटी ही दिखाई पड़ी। योगियों को देखा तो उनमें भी शांति नहीं है, क्रोध के वशीभूत होकर एक-दूसरे को घुड़की देते रहते हैं। इसलिए हे भगवान्! अब मुझे किसी के सम्मुख विवश न कराओ। मैंने इन सब उपायों से थककर अब दृढतापूर्वक आपके चरण ही पकड़ लिए हैं।”

जब तुकाराम को ढूँढ़ने पर भी अपनी पसंद के माफिक सच्चा गुरू न मिला और संभवतः ब्राह्मणों ने शूद्र मानकर उनको दीक्षा का पात्र भी न समझा तो उन्होंने विट्ठल भगवान् से ही गुरू बतलाने की प्रार्थना की। भगवान् ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके एक पुरातन संत 'बाबाजी चैतन्य' द्वारा स्वप्न में उनको मंत्र-दीक्षा दिलवाई। इस संबंध में एक अभंग में कहा गया है–
“गुरूदेव ने सचमुच मेरे ऊपर बड़ी कृपा की, पर मुझसे तो उनकी कोई सेवा न बन पड़ी। स्वप्न में इंद्रायणी की तरफ स्नान के लिए जाते हुए मार्ग में वे मिले और मेरे मस्तक पर हाथ रख दिया। उन्होंने भोजन के लिए एक पाव घी माँगा, पर उसे लाना तो मैं भूल गया था। फिर कोई अनिवार्य आवश्यकता आ पड़ने से वे शीघ्र ही चले गये और मुझे गुरू परंपरा का नाम इस प्रकार बतला गये कि प्रथम गुरु ‘राघव चैतन्य’ उनके शिष्य ‘केशव चैतन्य’ और फिर अपना नाम ‘बाबाजी चैतन्य’ बतलाया। मुझे ‘राम-कृष्ण-हरि’ मंत्र दिया। माह सुदी दशमी, गुरुवार को गुरु का वार समझकर मुझे स्वीकार कर लिया।”

तुकाराम जी ने 'स्वप्न दीक्षा' देने वाले अपने गुरु का जो परिचय दिया था वह काल्पनिक नहीं था। मराठी के 'चैतन्य कथा कल्पतरु' नामक ग्रंथ में लिखा है कि 'राघव चैतन्य' एक बड़े तपस्वी हुए थे। उन्होंने माँडवी में पुष्पवती नदी के तट पर वर्षों तक घोर तपस्या की थी। उनके शिष्य 'कृष्ण चैतन्य' हुए। एक बार किसी घटनावश इन्होंने हैदराबाद के निजाम को कुछ चमत्कार दिखाया, जिससे वह इनका भक्त हो गया और इनके सम्मानार्थ दो स्मारक बनवाये। इन्हीं 'केशव चैतन्य' के शिष्य 'बाबाजी चैतन्य' हुए, जिन्होंने तुकाराम को स्वप्न-दीक्षा दी।

सिद्ध को भी साधना करने की आवश्यकता
कुछ लोग ऊपर लिखी घटना में यह शंका प्रकट करते हैं कि तुकाराम जी तो सिद्ध पुरुष थे और अपने अनुयायियों के मतानुसार संसार के कल्याणार्थ उनका आगमन बैकुंठ लोक से हुआ था, फिर उनको चित्त शुद्धि और अन्य साधनों की क्या आवश्यकता थी ? उनके अभंगों में एकाध जगह कहा गया है कि “संसार को धर्म-नीति का मार्ग दिखलाने, भगवत् भक्ति का डंका बजाने और संतों का रास्ता साफ करने के लिए मैं भगवान् का संदेश लेकर आया हूँ।” तो फिर सामान्यजनों की भाँति चित्त शुद्धि के उपाय ढूँढ़ना और उन साधनों को करके लोक कल्याण का काम पूरा कर सकने का रहस्य क्या है ? संसार का उद्धार करने के लिए ही जिनका आविर्भाव हुआ है, उनका चित्त मलिन कैसे हो सकता है ?

इस शंका का समाधान यह है कि भगवान् के अंश स्वरूप अवतारों के भी जो चरित्र वर्णन किये गये हैं, वे सामान्य मनुष्यों के अनुरूप ही हैं। यदि वे अध्ययन, मनन, साधन, अभ्यास आदि के बिना ही महान् कार्यों को करके दिखला दें तो उनका उदाहरण सामान्य मनुष्यों के किस काम का ? संभव है उनको कुछ विशेष दैवी विभूतियाँ बाद में प्राप्त हो जाती हों, पर मनुष्य देह धारण करने पर उनको मनुष्योचित व्यवहार ही करना चाहिए। महात्माओं के चरित्र के दो अंग होते हैं एक दैवी और दूसरा मानुषी। दैवी अंग द्वारा वे कुछ विशेष कार्यों की पूर्ति करते हैं, जिनका कर सकना अन्य लोगों के लिए कठिन होता है, परंतु अपना सामान्य जीवनक्रम वे अन्य सब लोगों के समान ही रखते हैं, जिससे उनका चरित्र हमारे लिए दृष्टांत, स्वरूप और अनुकरणीय हो सके। भगवत् गीता के अनुसार भगवान् ने आवश्यकता पड़ने पर अर्जुन को विराट् रूप का दर्शन कराया, पर साथ में यह भी कह दिया–
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः। –(गी० ३-२३)
इस कथन द्वारा उन्होंने वर्णाश्रम धर्म के पालन और लोक-संग्रह के आदर्श का अनुसरण करने का निर्देश किया है। तुकाराम जी के चरित्र में भी ये दोनों अंग दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने बिना किसी विशेष प्रभाव के महाराज शिवाजी और ब्राह्मणत्व के अभिमानी, सुप्रसिद्ध पंडित रामेश्वर को अपना अनुयायी बनाकर अपनी दैवी शक्ति का परिचय दे दिया। पर वैसे सदा बिलकुल सामान्य और गरीब गृहस्थ की तरह जीवन बिताया, शारीरिक परिश्रम करके उदर निर्वाह किया, आजन्म गृहस्थी की कठिनाइयों को सहन करते हुए स्त्री-बच्चों का भी पालन करते रहे। ये बातें उनकी बहुत बड़ी विशेषताएँ और महानता हैं। यदि वे संसार को त्यागकर साधु अथवा चमत्कारी बाबा बन जाते तो उनका चरित्र जन साधारण के लिए निरुपयोगी होता। लोग उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति रख सकते थे, पर उनका अनुकरण करके कोई लाभ नहीं उठा सकते थे। पर उन्होंने अध्यात्म मार्ग में उच्च कोटि की योग्यता प्राप्त करके भी अपना जीवन और रहन-सहन एक साधारण गृहस्थ के समान बनाये रखा, यही सबसे अधिक महत्त्व की बात है, जिससे सामान्य व्यक्ति भी शिक्षा ग्रहण कर सकता है। __