अनोखी प्रेम कहानी - 13 Sangram Singh Rajput द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अनोखी प्रेम कहानी - 13

कुँवर ने तत्काल अपने शरीर को देखा । शरीर को पूर्ववत् देख हतप्रभ हो गया । ' यह क्या लीला है माँ ? कौन हो तुम ? " उस अनिंद्य सुंदरी के रक्ताभ अधरों पर स्निग्ध मुस्कान बिखरी । मृदुल वाणी में उसने कहा- मैं कौन यह जानने की तुम्हें आवश्यकता नहीं है पुत्र ! परन्तु मैंने तुम्हें अवश्य जान लिया है । इस अंचल में आने का तुम्हारा प्रयोजन भी मुझसे छिपा नहीं है । कहो तो तत्काल तुम्हारे चक्रों का जागरण क्षणांश में मैं कर दूं ... परन्तु गुरु - आज्ञा मानकर षट्चक्र - नृत्य के माध्यम से ही यह महान कार्य तुम्हारे लिए उचित है ; क्योंकि ज्ञान हो अथवा पुण्य ... स्वयं द्वारा उपार्जित ही श्रेयस्कर होता है पुत्र ! अब तुम सुखपूर्वक जाओ ... मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है । प्रतिपल तुम्हारी रक्षा अब मेरा कर्तव्य है पुत्र ! ' ' मुझ पर प्रसन्न हो तो माते ! इतनी अनुकम्पा और करो । मुझे विस्मित कर अपना परिचय न छिपाओ . ' ' मुझे माता कहा है तुमने और मैंने तुम्हें पुत्र स्वीकार लिया , क्या इतना परिचय पर्याप्त नहीं है पुत्र ? ' ' पर्याप्त है माता ! ' ' तो अब जाओ पुत्र ... ! ब्रह्मपुत्र की धारा को सूर्यास्त के पूर्व पार करो ! ' कहकर उस दिव्य स्त्री ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपनी दाहिनी हथेली ऊपर उठा दी । कुँवर का यश अग्नि की भाँति समूचे अंचल में व्याप्त हो गया । से राह चलते लोग उसे अत्यंत श्रद्धा से निहार प्रणाम करते । पंडा शोभित सारंग पूर्व में धन के लालच में चाटुकारिता करता था , परन्तु अब उसकी भी दृष्टि परिवर्तित हो गयी थी । कामाख्या मंदिर में देवी आराधना के पश्चात् वह नित्य ध्यानस्थ हो पद्मासन में मग्न रहने लगा । कामाख्या मंदिर के पुजारियों का भी वह स्नेह पात्र बन चुका था । अंततः कार्त्तिक अमावस्या का दिवस आया । इस रात्रि की प्रतीक्षा में उसने एक - एक दिवस व्यग्रतापूर्वक व्यतीत किया था । प्रातःकाल ही नित्य कर्म से निवृत्त हो उसने ब्रह्मपुत्र की • निर्मल धारा में स्नान किया । कामाख्या मंदिर में पूजा - अर्चना कर कुँवर ने नवीन पीताम्बर धारण किया तथा ऊपर से लाल रेशमी दुपट्टा बाँधकर वहीं संकल्प लिया कि अर्द्धरात्रि तक वह वहीं पद्मासन में ध्यानस्थ रहेगा । अर्द्ध रात्रि के पूर्व कामाख्या मंदिर के प्रांगण में अपूर्व सुन्दरी कामायोगिनी की घुंघरूयुक्त पदचाप की झन झनन नन ध्वनि वातावरण को मोहित करती गूंजी . कमर लचकाती कामायोगिनी के संग उसका प्रिय मृदंग - वादक हरिहर मृदंग थामे कामायोगिनी के पीछे भूमि पर दृष्टि डाले अपने पग बढ़ा रहा था । मृदंग - वादन में अद्वितीय हरिहर कामायोगिनी की अपूर्व सुन्दरता पर समर्पित था , परन्तु भूलकर भी कभी अपनी दृष्टि उस अपूर्व सुन्दरी के मुख पर नहीं डालता । कामायोगिनी पर जिस किसी की भी कामुक दृष्टि पड़ती , तत्काल उसका विनाश निश्चित था । प्रागज्योतिषपुर के समस्त अंचलों में इस रहस्य को सभी जानते थे , इसीलिये कामाख्या मंदिर के खुले प्रांगण में जब वह सुन्दरी , कार्तिक अमावस्या की अर्द्ध रात्रि में उन्मुक्त नृत्य करती तो सम्पूर्ण प्रांगण जनशून्य रहता ।हरिहर की स्थिति बड़ी विचित्र थी । अपूर्व सुन्दरी अक्षत यौवना कामायोगिनी के रूप का चुम्बकीय आकर्षण ही इतना तीव्र था कि दृष्टि उठी नहीं कि जा चिपकी ... और बेचारा हरिहर ! मृदंग वादन में उसकी अद्वितीय निपुणता ही उसके दुर्भाग्य का कारण बनी । प्रत्येक कार्त्तिक अमावस्या को रात्रिपर्यन्त उसे ही कामायोगिनी के नृत्य पर मृदंग बजाना पड़ता । ऐसी अवस्था में वादक की दृष्टि तो नर्तकी पर गड़ी ही रहेगी ... और जगत में ऐसा कौन प्राणी है , जो इस योगिनी को देख मुग्ध न हो जाए ? बेचारा हरिहर ! अंतस् में रोता - कलपता योगिनी के पग - ताल पर ताल मिलाता पग पर ही दृष्टि गिराये मृदंग बजाता रहता । ऐसा ही निरीह प्राणी था सुन्दरी कमायोगिनी का अद्भुत मृदंग वादक , जो नर्तकी के घुंघरू युक्त पग निहारता , सकुचाता डरता हुआ - सा , छोटे - छोटे पग उठाता , पीछे - पीछे चला आ रहा था । इसी क्षण मदमाती कामायोगिनी के घुंघरू युक्त मदमस्त पग अनायास रुक गए . मद - भरी उसकी आँखें उस तेजस्वी युवक की मुखाकृति पर जा ठहरीं , जो उस निस्तब्ध प्रांगण में पद्मासन लगाये बैठा था । कामायोगिनी के अंतस में प्रथम बार काम का प्रहार हुआ । यह तो साक्षात् कामदेव ही है ! पुरुष - सौंदर्य की पराकाष्ठा ! उसने आज तक किसी पुरूष में ऐसा सौंदर्य नहीं देखा था । रूपगर्विता कामायोगिनी तत्काल उसपर आसक्त हो गयी । ' हरिहर ! तनिक देखो तो , कौन है यह युवक ? जीवात्मा में यह अद्भुत सौन्दर्य और तेज तो कदापि संभव नहीं ... फिर कौन है यह ? इसका प्रभामण्डल प्रमाण है कि यह प्रेतात्मा भी नहीं , तो फिर यह अवश्य कोई देवात्मा ही है हरिहर ! ' हरिहर ने दृष्टि झुकाये कहा- मैं अज्ञानी क्या जानं ? आप ही पूछ लें । ' कामायोगिनी कुछ सोचकर मंद - मंद मुस्कुरायी । उसने सोचा यह जो कोई भी है , कामाख्या माता की प्रेरणा से ही इस घड़ी यहाँ उपस्थित है । कामायोगिनी ने माता को प्रणाम कर कहा- ' हरिहर ! इसी स्थल पर नृत्य करूंगी मैं ... मृदंग सम्हाल कर तुम यहीं बैठो । आज देखना मेरा अपूर्व नृत्य ... परन्तु सावधान ! मेरे द्रुत पग पर तुम्हारे मृदंग का ताल भंग न हो ... सचेत रहना । कहते ही कामायोगिनी ने षट्चक्र - नृत्य का आरंभ ही इतने द्रुत ताल पर किया कि हरिहर की आत्मा काँप गयी । यह तो षट्चक्र के समापन का दुरत ताल है । यह क्या किया कामायोगिनी ने ? नृत्य की प्रारंभिक गति यह है तो मध्य क्या होगी ... और समापन की गति तो वह सोच ही न पाया । माता की प्रेरणा से इसी घड़ी कुँवर के नेत्र खुले । हरिहर के मृदंग की ताल और कामायोगिनी का अद्भुत षट्चक्र - नृत्य । नर्तकी को उसने शीश नवाकर शिष्यवत् प्रणाम किया और हरिहर के ताल के साथ मगन हो अपनी हथेलियों से ताल मिलाने लगा । कुँवर को यों ताल मिलाते देख कामायोगिनी के हर्ष का कोई पारावार न रहा । नृत्य के चक्रों की गति और भी द्रुत हो गयी । काँप गया हरिहर । उसके ताल टूटे अथवा हाथ रुके ... तो सर्वनाश निश्चित है । अब वह करे क्या ? इस द्रुत गति से मृदंग वादन क्या संभव है ... यदि संभव हो भी तो कितनी घड़ी ? ... अभी तो अर्द्धरात्रि शेष है ... और क्या पता ... यह अमानवीय • सामर्थ्य की धनी नर्तकी ने गति और तीव्र कर दी तो ? ' रक्षा करना माँ ... ! ' कहकर प्राणपण से हरिहर मृदंग - वादन में तल्लीन हो गया । रात्रि का प्रथम प्रहर बीत चुका था , परन्तु पंडा की आँखों की नींद उड़ी हुई थी । उसका अतिथि अनुपस्थित था । उसे शंका हो रही थी । वह अवश्य इस घड़ी कामाख्या देवी के मंदिर में ही होगा । जबसे उसने इस अपूर्व तेजस्वी युवक को देखा था , तभी से उसके व्यक्तित्व के रहस्य में वह डूबा हुआ था । यह कोई साधारण प्राणी नहीं , ऐसा आभास तो उसे प्रारंभ से ही था । परन्तु जब से कुष्ठग्रस्त उस बुढ़िया को उसने अपनी गोद में ले जाकर ब्रह्मपुत्र में स्नान कराया था , तभी से उसे विश्वास हो गया था कि उसके अतिथि जैसे दीखते हैं , वैसे वे हैं नहीं । आज कार्त्तिक की अमावस्या है । आज ही अर्द्धरात्रि में अनिद्य सुन्दरी कामायोगिनी कामाख्या माता के प्रांगण में नृत्य करेगी । अनायास वह आशंकित हुआ । अतिथि की दृष्टि यदि कामायोगिनी पर पड़ गयी तो क्या होगा ? देवी रक्षा करें उनकी ! तत्काल शय्या त्याग वह उठ खड़ा हुआ । चंदन की लकड़ी वाली पिटारी खोलकर उसने दोनों स्वर्ण मुद्राएँ निकालीं । जलते दीपक के पास आकर दोनों स्वर्णमुद्राओं को देखा ... फिर मुदित हो देर तक उसे निहारता ही रहा । ' हे देवी ! रक्षा करना ... ! ये सुरक्षित रहें तो जाते - घड़ी कदाचित् और दया कर जाएँ । ' कहकर उसने देवी को प्रणाम किया । स्वर्णमुद्राएँ उसी पिटारी में पुनः रख शय्या पर लौटा । परन्तु बारंबार नेत्र बंद करने के पश्चात् भी निद्रा न आयी । उसकी अंतरात्मा कहती थी कि वह अतिथि के रक्षार्थ तत्काल उठकर कामाख्या - मंदिर जा पहुँचे , परन्तु भयभीत मस्तिष्क उसे रोक देता । अंत में , उसने अंगुलियों को ज्ञानमुद्रा की आकृति देकर नेत्र बंद कर लिये । अनिद्रा की स्थिति में पंडा के पास यही विकल्प था । मृदंग पर थाप देती हरिहर की अंगुलियों के पोर - पोर फट गये । मृदंग के दोनों कोरों से बहता रक्त भूमि पर पसरने लगा , उसकी चेतना डूबने लगी और हरिहर की स्थिति से अनभिज्ञ कामायोगिनी नृत्य में उन्मत्त हो चक्रों को और भी द्रुत करती जा रही थी । कुँवर की चिंतित दृष्टि हरिहर की रक्तिम अंगुलियों पर जा ठहरी । तभी उसने देखा मृदंगवादक चेतनाशून्य होता जा रहा है । और मृदंग मौन हो गया । परंतु , अंतिम चक्र तो शेष था ! अधूरे नृत्य का अर्थ था नृत्य की असफलता काँप गयी कामा । क्या होगा अब ? परंतु उसी क्षण मृदंग पुनः बजने लगा । कुँवर की अंगुलियों ने हरिहर के मृदंग को तत्काल सम्हाल लिया था । मदमस्त हो पुनः नाचना प्रारंभ किया उसने । उसकी गति द्विगुणित हो गयी । कुँवर के ताल भी द्विगुणित हो गये । कामायोगिनी के चक्र और तीव्र होते गये । कुँवर की अंगुलियाँ और द्रुत होती गयीं । कार्तिक अमावस्या की निस्तब्ध रात्रि ढलती जा रही थी और कामायोगिनी उन्मादिनी हो नृत्य की गति तीव्र से तीव्रतर करती जा रही थी ।कामायोगिनी के सुलझे केश बिखर गये थे । केश के शृंगार में टँके आभूषण भूमि पर खुल कर बिखर रहे थे । श्वेद - बूंदों के कारण उसकी मुखाकृति चमक रही थी । वस्त्र अस्त - व्यस्त होने लगे । श्लथ - श्रांत होती नर्तकी किसी भी क्षण भूमि पर धराशायी होने ही वाली थी । परंतु कुँवर आनंदविभोर हो मृदंग बजाता जा रहा था और तभी थककर चूर कामायोगिनी के एकाएक भूमि पर गिरते ही कुँवर ने जो अंतिम थाप मारी तो मृदंग की चमड़ी ही फट गयी । भूमि पर लेटी कामायोगिनी का उन्नत वक्ष श्वास के आरोह अवरोह में बारंबार ऊपर - नीचे हो रहा था । कुशलतापूर्वक गुंथे केश खुलकर बिखर गये थे । शिष्य - भाव से भरा कुँवर दयाल सिंह अपनी गुरु के निमित्त प्रणम्यमुद्रा में विनीत भाव से बैठा था । दो घड़ी व्यतीत होने के उपरांत श्रम से विश्रांत कामायोगिनी स्थिर हो उठी । विनयावनत मुद्रा में दृष्टि झुकाये कुँवर शांतचित्त बैठा था । मृदंगवादक हरिहर का अचेत शरीर भूमि पर पड़ा था । उसकी विक्षत अंगुलियों से तब भी रक्त प्रवाहित हो रहा था और फटा हुआ मृदंग दूसरी ओर भूमि पर उपेक्षित लुढ़का था । कामायोगिनी खड़ी होकर कुँवर के सौंदर्य को नेत्रों से निर्निमेष निहार कामाख्या देवी के पास जा पहुँची । देवी को नतमस्तक हो प्रणाम कर उसने प्रार्थना की । ' हे देवी ... आदि - शक्ति ! इस जगत में तुम्हारी ही प्रेरणा से सृष्टि होती है । तू ही अपनी कृपा से जीवों का पालन करती है और तू ही इच्छानुसार सृष्टि को विनष्ट कर पुनः उसकी रचना से आनंदित होती है । प्रेतात्मा , जीवात्मा और देवात्मा - सब तुम्हारे ही अंश हैं , मातें ! यह समस्त लीला तुम्हारी ही है । मैं अज्ञानी , तुम्हारी क्रीतदासी , तुम्हारी ही प्रसन्नता हेतु तुम्हारी विद्या तुम्हें • अर्पित करती आ रही हूँ । यदि तू मुझ पर प्रसन्न है माते , तो आज मेरी अभिलाषा पूर्ण कर देवि ! मैं इस अनजाने युवक का वरण करना चाहती हूँ , देवि ! अपना प्रेम , सौंदर्य और युगों से सम्हालकर रखा अपना अक्षत यौवन इस युवक पर न्योछावर कर मैं स्वयं को तृप्त करूँगी ... युगों - युगों की मेरी प्यास बुझा दे माँ ... बुझा दे ... ! ' प्रार्थना के उपरांत कामायोगिनी ने नतजानु होकर माँ से आशीर्वाद की आकांक्षा की । तदुपरांत उठकर धीरे - धीरे पग उठाती अपने प्रिय के समीप आयी । कुँवर पूर्ववत् विनीत बैठा था । गुरु को समीप खड़ी देख आदरपूर्वक वह उठा और पुनः दोनों कर जोड़ दिये । ' मुझ जैसी अक्षतयौवना के इतने समीप खड़े तुम जैसे पूर्ण युवक से मैं इसप्रकार विनय की अपेक्षा नहीं करती । ' कामासक्त कामायोगिनी ने नेत्रों से मद छलकाते हुए कहा ' तुम्हारी मूंछें भी ठीक से अभी तक निकली नहीं हैं , फिर भी तुम्हारे सुगठित शरीर सौष्ठव और सम्मोहित कर लेने वाले तुम्हारे तेजस्वी पुरुषोचित सौंदर्य पर मैं मुग्ध हूँ , युवक ! वय में मैं तुमसे युगों बड़ी हूँ ... परंतु दृष्टि उठाकर मेरा निरीक्षण करो ... ! मैं आज भी षोडषवर्षीय यौवना के सदृश हूँ , प्रिय ! ... और युग युगांतर तक माता की कृपा से ऐसी ही रहूँगी ... एक बार मुझे दृष्टि भर कर निहारो , प्रियतम ! जगत की समस्त सुख - संपदा तुम्हारे पग चूमेंगे और मैं तुम्हारी समर्पिता बनकर तुम्हें निहाल कर दूंगी । मैं कामायोगिनी , आज तुम पर आसक्त होकर तुम्हारी याचिका बनी तुम्हारे समक्ष उपस्थित हूँ । युगों - युगों की काम - प्यासी अपनी दासी की काम पिपासा आज शांत कर दो प्रियतम ! शांत कर दो । ' ' हे माते ! फिर से कैसी परीक्षा ले रही हो तुम ? ' कुँवर ने नेत्र बंद कर प्रार्थना की । ' किस विचार में मग्न हो गए प्रिय ? देखो ... माता कामाख्या हमें ही निहार रही हैं । इनकी आज्ञा लेकर ही तुम्हारे समक्ष याचना करने आयी हूँ मैं । ' ' देवी ! ' आंखें खोलकर कुँवर ने कहा- मेरे दुर्भाग्य ने आपको भ्रांत कर दिया है । मैं तो आपके द्वार पर शिष्य बनकर आया हूँ , यदि मुझ पर प्रसन्न हों तो कृपा करो मुझ पर मैं तुम्हारा पुत्रवत् - शिष्य बनकर विशेष अभिलाषा लिये सुदूर अंचल से आया हूँ ! मुझ पर कृपा करो और शिष्य को दीक्षित कर कृतार्थ करो । ' कामायोगिनी की चेतना पर तुषारापात हो गया । • विस्मित दृष्टि से युवक को निहारती उसने विनोदपूर्ण स्वर में कहा- मुझ जैसी अक्षतयौवना का शिष्य बनकर क्या करोगे योगी ? ' ' षट्चक्र - नृत्य की शिक्षा ! " ' अच्छा ! क्या करोगे इसे जानकर ? " ' सुप्त चक्रों के जागरण हेतु , देवी ! ' कुँवर की अभिलाषा सुनते ही खिलखिलाकर हँस पड़ी वह हँसते हुए ही उसने कहा - ' इन चक्रों के जागरण का परिणाम भी जानते हो , योगी ? ' ' ज्ञात है माता ! ' ' मिथ्याभाषण मत करो ! जिसे स्वयं जाना जाए , वही ज्ञात होता है । सत्य वही है , जो स्वयं जाना जाए . शक्ति जागरण का प्रथम परिणाम है अपनी निजता का साक्षात्कार और इस साक्षात्कार का परिणाम है - शून्य में प्रवेश तुम्हारी अपनी सत्ता , निजता और चेतना , उस शून्य के सायुज्य में विलीन हो जाएगी प्रिय ! ... क्या तुम स्वयं को खो देना चाहते हो ? तुम्हारा मनोरथ अवांछित है । माता आदि शक्ति ने सृष्टि की रचना इसलिए नहीं की कि सृष्टि के प्राणी प्रलय के पूर्व ही अपने अंश से बलात् मुक्त हो जाएँ और तुम तो अभी पूरी तरह युवा भी नहीं हुए . | जीवन के रस का आस्वादन भी कदाचित् तुम्हें प्राप्त नहीं हुआ । जीवन - रस के विन्यास से तृप्त हो लो , फिर संन्यास लेना । आओ ! मेरी कोमल बाँहों की परिधि में सिमट मुझे अपनी सशक्त भुजाओं में जकड़ लो प्रिय ! ' ' यों मेरी अग्नि परीक्षा मत लें , देवी . मैं अपनी गुरु आज्ञा के ● अधीन , अपने परिजनों के कल्याणार्थ आपके पास उपस्थित हुआ हूँ । मैं विवाहित हूँ , देवी ! तथा एकपत्नीव्रत से भी बँधा हूँ । मेरी नवविवाहिता की अश्रुपूर्ण आँखें मेरी प्रतीक्षा में मेरा पथ निहार रही हैं । मुझ पर दया करो देवी ! कृपया शिष्य रूप में मुझे स्वीकारो ! " काम के आवेग से तप्त कामायोगिनी सहसा क्रोधित हो गयी । जिसके सौंदर्य की दीप्ति में पुरुष पतंगे की भाँति भस्म होने को लालायित रहते हैं , इस क्षण वही सौंदर्य - दीप्ति इस मूर्ख की हठ की आंधी में बुझती जा रही है । कामायोगिनी का सौंदर्याभिमान चूर - चूर होकर बिखरने लगा । क्या करे वह ? इस मूर्ख को दंडित करे अथवा पुरस्कृत ! परंतु यह मूढ़ है कौन ? उसी क्षण कामायोगिनी स्वयं को शांतकर भूमि पर पद्मासन में बैठ गयी । उसकी अंगुलियों ने ज्ञान मुद्रा धारण कर ली और तत्काल नेत्र बंदकर वह ध्यानस्थ हो गयीं ।मृदंग - वादक की चेतना शनैः शनैः लौट रही थी । कष्ट से कराहते हुए उसने आँखें खोलीं । कुछ क्षणों में वह पूर्ण चैतन्य हुआ । कुँवर उसके समक्ष बैठा था । ' अब कैसे हो , मित्र ? ' मुस्कुराकर कुँवर ने पूछा । उत्तर न देकर हरिहर कराहता हुआ उठकर बैठा । उसकी दृष्टि चतुर्दिक घूमी । कामायोगिनी ध्यानस्थ थीं । तभी टूटे मृदंग को देख विस्मय से उसकी आँखें विस्फारित हो गयीं । हरिहर के मनोभावों का ज्ञान होते ही कुँवर हँस पड़ा । उसने कहा - ' तुम्हारा अपराधी मैं हूँ , मित्र ! इसे मैंने ही फोड़ा है , परंतु विवशता ही समझो इसे ... नृत्य की गति ही इतनी द्रुत होती गयी कि तुम्हारे दुर्बल मृदंग - चर्म ने संगत से ही मना कर दिया । ' ' आश्चर्य ! घोर आश्चर्य ! ... तदनन्तर उसने भरपूर दृष्टि से कँुवर को निहारते कहा- ' आप तो वही हैं , जो इस प्रांगण में ध्यानस्थ थे ! ' ' सत्य है मित्र ... ! ध्यान की अवधि थोड़ी लम्बी हो गई , परंतु उचित अवसर पर ही माता ने मेरे नेत्र खोल दिये । मैंने आपका अद्भुत मृदंग - वादन सुना और माता का षट्चक्र - नृत्य भी देखा । ' ' अवस्था से तो आप अभी बालक ही हैं , परंतु मैंने संसार देखा है । आपकी आँखें बताती हैं कि आप या तो महायोगी हैं अथवा सिद्ध ... ! अन्यथा देवी के षट्चक्र - नृत्य की संगत ... विशेषकर आज के इनके उन्मादित द्रुत नृत्य में साक्षात् गंधर्वराज के अतिरिक्त और भला कौन कर सकता था ? ' कुँवर की मुखाकृति पर मुस्कान थिरकती रही । कुछ क्षण सम्मोहित दृष्टि से निहारते रहने के उपरांत हरिहर ने कहा- देवी ने भी आपको देखते ही जो कहा था उस पर मुझे अब तक विश्वास नहीं हो रहा , प्रभो ! ... परंतु , आप हैं कौन महाराज ? ' ' मैं बताती हूँ , हरिहर ! ' कामायोगिनी के शांत - मृदुल स्वर ने दोनों को विस्मित किया । कामायोगिनी की दृष्टि खुली थी । अधरों पर स्निग्ध मुस्कान पसरी थी । नेत्रों से मादकता के स्थान पर वात्सल्य छलक रहा था । अनुराग भरे नेत्रों से वह कुँवर को निहार रही थी । कार्तिक अमावस्या की संपूर्ण रात्रि पंडा ने उनींदी आँखों में काट दी थी । सूर्योदय के पूर्व नींद भरी आँखों के साथ उसने शय्या त्यागा । पंडा के नेत्र आँसुओं से भर गए . दाता नहीं लौटे । अवश्य ही कामायोगिनी के बंधन में पड़ गये । मूर्खता उसी की थी , उसने सोचा । बिचारे को क्या पता कार्तिक अमावस्या की रात कामाख्या मंदिर में क्या होता है । बैठ गये होंगे ध्यान में हा देवी ! अनर्थ हुआ मेरे साथ ऐसा दयालु - दाता फिर कब आएगा , देवी ? यों ही रोते - कलपते उसने अपना नित्यकर्म पूर्ण किया । जलपान ग्रहण कर , नये यात्री की आस में द्वार पर रखी चौकी पर आ विराजा । सूर्योदय की पहली किरण प्रस्फुटित हुई थी । इसी क्षण उसके द्वार पर एक पालकी उतरी । ' इस धर्मशाला के पंडा आप ही हैं ? ' रेशमी परिधान में सज्जित एक षोडषी ने पालकी से निकल सारंग से पूछा । शंकित पंडा की स्वीकारोक्ति पर उस युवती ने लाल मखमल की छोटी - सी थैली बढ़ाते हुए कहा- यह आपके लिए देवी कामायोगिनी का उपहार है । इसे स्वीकार कर कृपया प्राप्तिबना दीजिए . ' ' कामायोगिनी का उपहार ! ' - विस्मय में उसके होठों से निकला । ' आदर से बोलिए , श्रीमान् ! ' रूष्ट स्वर में उस स्त्री ने कहा । ' क्षमा करें , देवी ने मुझ निर्धन के लिए उपहार भेजा है ! ... यह | तो कदाचित् मुद्राओं की थैली है ? " ' हाँ श्रीमान् ... स्वर्णमुद्राओं की थैली । ' ' स्वर्ण मुद्रा ! ' कहकर उसने चौकी पर थैली का मुख उलट दिया । ढेरों स्वर्णमुद्राएं चौकी पर बिखर गई । ' इसे समेट लें श्रीमान् । स्वर्णमुद्राओं का इस प्रकार प्रदर्शन कदाचित् उचित नहीं । ' ' सत्य वचन , माता ! ' कहते ही विक्षिप्तों की भांति उसने मुद्राओं को तत्काल • समेटकर थैली में डाला । थैली की रेशमी डोर को बांधकर उसने | खींसें निपोड़कर कहा- देवी की क्या आज्ञा है मेरे लिए , आदेश दें ! मैं प्राणपण से तत्काल उनकी आज्ञा की करूँगा । ' ' आपके लिए देवी की कोई आज्ञा नहीं है । आपने उनके सम्मानित अतिथि की जो सेवा की है , यह उसी का पुरस्कार है । आपकी धर्मशाला में उनकी एक मंजूषा है । आप कृपया ले आयें । वे अब वहीं निवास करेंगे । ' उसने सोचा जानता ही था । वे जो दिखते थे , वे वह नहीं थे । ' किस चिंता में खो गये श्रीमान् ... ? विलंब हुआ तो देवी क्रुद्ध हो जाएँगी । ' क्षमा करें देवी ... ! मैं तुरंत आया । ' कहते - कहते पंडा शोभित सारंग मंजूषा लाने दौड़ पड़ा । ब्राह्ममुहूर्त की बेला । चिड़ियों का संगीत और वायु की मंद - शीतल बयार में कुँवर दयाल सिंह के साथ कामायोगिनी अपने आश्रम लौट रही थी । कामायोगिनी की पालकी सोलह रूपवती षोषियों के कांधों पर हौले - हौले चली जा रही थी । सोलहों के रेशमी परिधान पीतवर्णी थे । इनके केश जूड़ों में बंधे थे और उनमें जूही के सुगंधित पुष्प गुंथे थे । पुष्टकाय सुन्दरियों की मुखाकृति पर गर्वीली मुस्कान ठहरी थी । इन्हें गर्व था कि ये कामायोगिनी को पालकी में बिठा अपने कंधों पर लिये जा रही हैं और आज तो स्वामिनी की पालकी में एक ऐसी अद्भुत सौंदर्य की मूर्ति उपस्थित है , जिसके दर्शन | मात्र से इनके भाग्य ही खुल गए थे । इसीलिये तो पालकी - वाहिनियों के पग आज धरती पर पड़ ही नहीं रहे थे । गुदगुदाते अंतस् और मुस्कराते अधरों के साथ कजरारी आँखों वाली कहारिनें पालकी उठाये इठलाती चली जा रही थीं । मृदंगवादक हरिहर अपने घोड़े पर बैठा पालकी के पीछे - पीछे जा रहा था । निद्रा से भारी हरिहर की पलकों की भांति उसका मन भी भारी था । आज कामायोगिनी की संगत में उसके मृदंग - ताल हार गये थे । हार की अनुभूति का बोझ उठाये हरिहर गर्दन झुकाये घोड़े पर मौन बैठा था ।