प्रेम गली अति साँकरी - 70 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 70

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आखिर अम्मा को बताना ही पड़ा कि मैं श्रेष्ठ के साथ कंफ़रटेबल नहीं थी | दोपहर का समय था, इस समय लगभग शांति सी ही रहती थी संस्थान में ! सुबह की कक्षाएँ समाप्त हो जाती थीं और एक तरह से सबका ही यह‘लेज़ी टाइम’ होता था फिर संध्या की कक्षाएँ शुरू होतीं जिसके लिए संध्याकाल पाँच बजे के करीब फिर से सब संस्थान में आने शुरु होते | 

दोपहर में सब लगभग रिलैक्स मूड में ही होते और अपने घरों को चले जाते या अपने चैंबर्स में संस्थान में ही रिलैक्स करते | एक उत्पल था जो अपने घर नहीं जाता था, खैर उसे फ़र्क भी कुछ नहीं पड़ता था, वह यहाँ रहे अथवा अपने फ़्लैट पर ! बल्कि यहाँ उसे कुछ लोग तो दिखाई देते, वह कुछ न कुछ एडिटिंग करता या कोई अच्छा आर्ट-पीस ही देखता | उसके स्टूडियो में उसकी रुचि की कई चीज़ें थीं जिनमें उसका मन बहुत लगता | घर में भी कौन था उसके लिए इंतज़ार करने वाला! 

अम्मा के पास शीला दीदी और रतनी भी बैठीं थीं आज दोपहर के समय में, कॉफ़ी का दौर चल रहा था और कुछ छुटपुट बातों का भी जिनमें मेरे से ही जुड़ी बात अधिक थी | अब तो डॉली भी स्कूल के आखिरी वर्षों में थी और उसके कॉलेज जाने के सपने देखने के दिन शुरू हो गए थे | मुझे ऐसा लगता था, हाय ! कितने छोटे थे ये दोनों बच्चे डॉली और दिव्य जो युवावस्था में पहुँच गए थे, अपनी उम्र के वर्षों को गिनते हुए मेरी जान निकलने को होती | मैं कभी अपनी उम्र गिनना ही नहीं चाहती थी लेकिन इससे सच्चाई तो नहीं बदली जा सकती न ! 

अभी अम्मा और इन सब लोगों से जब मैंने श्रेष्ठ के बारे में बताया तब सब एक-दूसरे की ओर ऐसे ताकने लगे जैसे मैंने कोई ऐसा निर्णय ले लिया हो जिससे मेरे भविष्य में काली परछाइयाँ सिमट आएंगी | मैंने देखा, सबके चेहरे लटक गए थे | क्यों आखिर? जानती थी लेकिन स्पष्ट नहीं बता पाई थी कि मेरे साथ क्या हुआ अथवा मैंने क्यों श्रेष्ठ के पास से अपना ध्यान हटा लिया? अम्मा-पापा और सभी को यही लग रहा था कि स्टेट्स, व्यक्तित्व और जीवन जीने के सभी अन्य महत्वपूर्ण माध्यमों की कुंजी अगर है तो श्रेष्ठ के पास ही है | शायद वे सब ठीक भी थे, आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए जो कुछ भी इच्छित होता है, वह उसके पास था ही –लेकिन, पर, परंतु-----!! 

सबके चेहरों पर एक ही प्रश्न पसरा हुआ दिखाई दे रहा था कि अब कौन? अम्मा ने अभी यह भी बताया कि पिछले सप्ताह से दो/तीन बार भाई का फ़ोन इसीलिए आ चुका था कि मेरी उम्र निकल रही है, जो भी करना है जल्दी करें | वैसे यह बात कौन नहीं जानता था और स्वीकार नहीं करता था, मुझ समेत ! 

“प्रमेश की दीदी का फ़ोन भी बार-बार आ रहा है, मुझे लगा था कि तुम्हारी जोड़ी श्रेष्ठ के साथ परफ़ेक्ट रहेगी, न जाने क्यों? ”अम्मा ने अपनी बात बीच में ही छोड़ दी थी, हमारे यहाँ कोई किसी से ज़बरदस्ती करता ही नहीं था फिर अम्मा बेचारी ---

जिस प्रकार से मैंने अपनी बात सबके सामने रखी थी, वह काफ़ी था | कुरेदकर पूछने की यहाँ किसी को आदत ही न थी लेकिन मेरा धड़कता मन---श्रेष्ठ के साथ बीते हुए लम्हे मुझे बेचैन करने के लिए काफ़ी थे | अम्मा ने यह भी बताया था कि श्रेष्ठ का फ़ोन उनके पास आया था और मेरे बारे में पूछ रहा था कि मुझे ऐसी उसकी क्या बात पसंद नहीं आई जो मैं उससे अब मिलना नहीं चाहती? अम्मा ने स्वाभाविक था अनभिज्ञता ज़हिर की थी लेकिन वे परेशान थीं और अपनी परेशानी पापा से भी नहीं शीला दीदी और रतनी के सामने ही ज़ाहिर कर सकती थीं | यानि बात गोल-गोल घूमकर शून्य पर ही आ खड़ी हुई थी | बहुत बार मैं भीतर से गिल्ट महसूस करती, यह सही भी था---मेरे कारण ही तो अम्मा-पापा एक दूसरे से कुछ बातें करने में संकोच करने लगे थे | बात गोल-गोल होते हुए शून्य पर आकर अटक जाती और उनके बीच में एक घबराहट भरी चुप्पी ठिठक जाती | 

चुभन थी कि बढ़ती ही जा रही थी, राहें उलझी हुई थीं---मन की भी और जीवन की भी | दिल के धड़कने के सौ कारण लेकिन मुहब्बत का केवल एक और वह एक मुहब्बत न जाने कितनी तहों में छिपी हुई थी | नहीं, छिपी नहीं थी, छिपा रही थी मैं ! आजकल केवल उत्पल ही तो दिखाई देता था, उसके अलावा कुछ नहीं | क्या और कैसे अपने ऊपर संयम करूँ, इतना आसान भी कहाँ था? 

अम्मा, शीला दी, रतनी की बैठक से निकलकर मेरे पाँव फिर उत्पल की ओर बढ़ गए | धड़कता दिल, लड़खड़ाते पैर, आँखों में शरारत के साथ आशा की एक रमक और एक अजीब से विश्वास की अनुभूति लेकर मैं उसके चैंबर में पहुँच गई | बाहर खड़े होकर मैंने अपनी धड़कन को संभालने का यत्न किया | जैसे ही नॉक करने लगी आवाज़ आई ;

‘’ आ जाइए न---” बहुत कठिनाई से मैंने खुद को संभाला और उसके चैंबर में प्रवेश कर गई | 

“क्यों परेशान हो रही हैं ? ” मेरे चेहरे पर अपनी स्नेहसिक्त नज़र फिराते हुए उसने स्पष्ट रूप से पूछा और आगे बढ़कर खुद ही मेरा हाथ पकड़कर मुझे कुर्सी पर बैठा दिया | उसकी छुअन ने फिर से मेरे शरीर में कंपकंपाहट भर दी थी | 

“ठीक तो हैं न ? ”उसने मुझे बैठाकर ग्लास का कोस्टर हटाकर मुझे पानी दिया | मैंने ग्लास हाथ में पकड़ लिया था लेकिन मेरे हाथ कंपकंपा रहे थे | 

अपनी भावनाएं छिपाना बड़ा कठिन होता है | शायद इसीलिए यह कहा गया है कि ‘इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते’! प्रश्न यह भी उकेरता था कि मैं सच में ही क्या प्रेम की गहराइयों में थी या वह सब तमाशा था? कुछ घूँट पानी पीकर मैंने ग्लास मेज़ पर रख दिया और आँखें मूंदकर कुर्सी की बैक से सिर टिका लिया | 

“कुछ तो है---” उत्पल अचानक मेरी कुर्सी के पास ज़मीन पर पैरों को मोड़कर झुककर बैठ गया | 

“नहीं, कुछ खास नहीं है उत्पल----”किसे बहला रही थी मैं? 

“आपको पता है जब मैं यू.के कोर्स करने गया था, वहाँ मेरी दो गर्ल-फ्रैंडस बनी थीं | ”उसने मुझे अचानक बताया | क्यों बताया उसने मुझे? अचानक ही ! 

मेरा सारा ध्यान अपनी धड़कनों से हटकर उसकी बात पर जा अटका | मैं भूल ही गई कि वह मुझसे और मैं उससे आकर्षित थे, मैं यह भी भूल गई कि मैं उसके पास कैसी मानसिक स्थिति को लेकर पहुंची थी | कमाल ही था, उसके एक वाक्य ने मुझे अचानक मेरे ऊहापोह से निकाल लिया था | 

“अच्छा! हम्म ---तुम तो कई साल थे न वहाँ पर ? ”जैसे एक झटके में मैं किसी गड्ढे से निकलकर स्प्रिंग की तरह ऊपर उछल आई | शायद मेरी आँखें भी फट गई होंगी, मुझे अचानक अपने आप ही महसूस हुआ | 

“हाँ, लगभग छह साल----”उसने बताया | 

“अच्छा, फिर कहाँ गईं तुम्हारी दोस्तें---? ”भूल गई सब कुछ और उसके चेहरे पर आँखें गडा दीं मैंने | 

“संबंध कुछ चले नहीं, एक लड़की से मेरे संबंध शायद छह-आठ महीने रहे और दूसरी से शायद तीन महीने---” ओह! कितना ईमानदार है यह बंदा! मैंने मन में सोचा लेकिन पता नहीं मन क्यों बुझ सा गया | युवा लड़का था, खुले मस्तिष्क का, ज़िंदगी की जरूरतों के साथ ! यह उसकी ईमानदारी थी कि उसने सब कुछ साफ़-साफ़ बता दिया था | वैसे मुझे क्यों अजीब सा लगा होगा ? मैं अचानक भीतर से जैसे मरने लगी | कितनी दूरी थी मेरे और उसके बीच ! क्या मैं उससे कुछ अपेक्षा करने लगी थी? वह करता था, मैं जानती थी लेकिन मैं? जो इतनी समझदार तो थी ही कि अपने लिए एक सुरक्षित भविष्य के बारे में तय करना मेरे लिए जरूरी था | प्रश्न यह भी था कि विवाह के बाद सुरक्षा की कोई गारंटी होती है क्या ? 

मन ने कहा कि सबको बता देना चाहिए कि मैं विवाह की उलझन से खुद को दूर ही रखना चाहती हूँ | संभव नहीं हुआ, इसके भी पचास कारण थे | ऐसा भी कहा जा सकता है कि मैं स्वयं दुविधा में थी | स्थिति कुछ ऐसी कि त्रिशंकु बनी हुई थी | उत्पल की बात जानकर एक और अजीब सी स्थिति में आ गई जबकि कोई ज़रूरत नहीं थी, मैं उसका भविष्य या वह मेरा भविष्य बन तो सकते नहीं थे लेकिन एक जो आँख-मिचौनी हमारे बीच थी, वह क्यों थी ? आज फिर से मुझे जैसे एक शॉक लगा था लेकिन क्यों?