कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(४४) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(४४)

उधर कर्बला सेनापति बालभद्र के संग राजनर्तकी के पास चली गई और इधर महाराज गिरिराज ने वैशाली से अपने बिछौने पर बैठने के लिए संकेत करते हुए कहा...
"यहाँ बैठो प्रिऐ !"
और वैशाली महाराज गिरीराज से कुछ दूरी पर बैठी तो महाराज गिरिराज बोलें....
"मेरे समीप बैठो प्रिऐ! इतनी सुन्दर युवती का मुझसे दूर बैठना उचित नहीं है,मैं तो तुम्हें अपने हृदय में स्थान देना चाहता हूंँ और तुम हो कि मुझे दूर जा रही हो",महाराज गिरिराज बोले...
"ऐसी बात नहीं है महाराज! मैं निर्धन आपके बिछौने पर बैठने के योग्य नहीं हूँ",वैशाली बोली...
"नहीं! प्रिऐ! किसने कहा कि तुम निर्धन हो,तुम तो रूप की धनी हो,अप्रितम सुन्दरी हो,वैसे नाम क्या है तुम्हारा"?,महाराज गिरिराज ने वैशाली से पूछा...
"जी! मेरा नाम वैशाली है",वैशाली बोली...
"बड़ा ही सुन्दर नाम है प्रिऐ",महाराज गिरिराज बोले...
"जी! महाराज! मेरा कार्य क्या होगा"?,वैशाली ने पूछा...
"तुम्हारा कार्य केवल मुझे प्रसन्न रखना है वैशाली और तुम केवल वही कार्य करो",महाराज गिरिराज बोले"
"जी! महाराज!",वैशाली बोली...
"अच्छा! अब तुम अपना कक्ष देख लो जहाँ तुम रहोगी,मैं अभी किसी दासी को तुम्हारे संग भेज देता हूँ,वो तुम्हें तुम्हारा कक्ष दिखा देगी",महाराज गिरिराज बोले...
"जी! महाराज! जैसा आप उचित समझें",वैशाली बोली...
अन्ततोगत्वा महाराज गिरिराज ने एक दासी के संग वैशाली को उसका कक्ष देखने भेज दिया,वैशाली का विशेष कक्ष महाराज गिरिराज के कक्ष से तनिक दूर था,इसलिए वैशाली को इसी मध्य उस दासी से बातें करने का अवसर मिल गया,उस दासी का नाम वत्सला था,वैशाली ने वत्सला से पूछा...
"वत्सला! महाराज का व्यवहार कैसा है सभी के संग,वें दासियों के संग कोई दुर्वव्यवहार तो नहीं करते",
"वैशाली! जब तुम यहाँ रहने लगोगी तो स्वतः जान जाओगी कि महाराज का व्यवहार कैसा है"?,वत्सला शुष्क स्वर में बोली....
"मुझे तो उनका व्यवहार कुछ अच्छा सा नहीं लगा",वैशाली बोली....
"महाराज केवल उन दासियों से प्रसन्न रहते हैं जो उन्हें प्रसन्न रख पातीं हैं",वत्सला बोली....
"क्या तात्पर्य है तुम्हारा",?,वैशाली ने पूछा...
तब वत्सला बोली...
"मेरा तात्पर्य ये है सखी! कि उस जैसा कामी और भोगी व्यक्ति दूसरा कोई भी इस संसार में ना होगा,जिस कक्ष में तुम रहने जा रही हो ना! तो वहाँ तुम्हारे जैसी कितनी रूपमती दासियाँ आईं और चलीं गईं,रुपमती दासियों को वो अपने खेलने की वस्तु समझता है,धूर्त,कपटी कहीं का,वो व्यक्ति तो राजा बनने के योग्य ही नहीं है,कहते हैं कि यहाँ के भूतपूर्व राजा बड़े ही दयालु थे,किन्तु उसने यहाँ के भूतपूर्व राजा एवं उसके माता-पिता को बंदीगृह में बंदी बनाकर रखा है ",
ये सुनकर तो जैसे वैशाली बने अचलराज की तो एक क्षण को चेतना ही चली गई किन्तु वो तनिक सन्तुलित होकर बोला...
"क्या कह रही हो वत्सला? भूतपूर्व राजा जीवित हैं"
तब वत्सला बोली....
"हाँ! सखी! मैं पहले दासी नहीं प्रशान्त नगर की राजकुमारी थी,इस धूर्त राजा ने मेरे पिता की हत्या कर दी और मेरे राज्य को स्वयं के आधीन ले लिया,इसके पश्चात वो मुझे यहाँ ले आया और मुझसे कुकृत्य करके यहाँ की दासी बना दिया,मैं तब से प्रतिशोध की अग्नि में जल रही हूँ,मेरा वश चलता तो मैं कब की इसकी हत्या कर चुकी होती,किन्तु विवश हूँ,मेरे पास ना तो कोई शक्तिशाली सेना है और ना कोई मेरा यहाँ साथ देने वाला है",
इसी प्रकार बातें करते करते वें कक्ष के समक्ष आ गईं थीं और वत्सला ने कक्ष के द्वार खोले तो वैशाली उस कक्ष की साज-सज्जा देखकर आश्चर्यचकित रह गई और उसने वत्सला से कहा....
"वत्सला! ऐसा कक्ष दासियों हेतु,ये तो अत्यधिक भव्य एवं विलासपूर्ण है,ये कक्ष तो किसी राजमहल से कम नहीं है,यहाँ तो सरोवर भी है"
"हाँ! इस कक्ष की भव्यता देखकर ही तो सुन्दरियाँ अपनी सुध बुध खोकर राजा की सेवा में लग जातीं हैं,ये कक्ष नहीं मायाजाल है",वत्सला बोली....
"आओ सखी! तनिक इसके भीतर बैठकर वार्तालाप करते हैं,मैं जानना चाहती हूँ कि तुम्हारे संग क्या क्या हुआ था",वैशाली बना अचलराज बोला....
"नहीं! सखी! मुझे किसी से कुछ नहीं कहना,यदि तुमने ये बात राजा तक पहुँचा दी तो तब तो राजा मेरे प्राण ही हर लेगें,मुझे अभी जीवित रहना है और इसलिए जीवित रहना कि मैं उससे अपना प्रतिशोध ले सकूँ",वत्सला बोली....
"वत्सला! मैं तुम्हें वचन देती हूँ कि मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी,तुम निश्चिन्त होकर अपना दुःख मुझसे बाँट सकती हो",वैशाली बने अचलराज ने कहा....
"किन्तु!तुम किसी से कुछ कहना मत",वत्सला बोली...
"मैंने कहा ना कि मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगीं",वैशाली बोली....
तब वत्सला ने वैशाली को अपने भूतकाल की कहानी सुनानी प्रारम्भ की वो वैशाली से बोली....
दूर पर्वतों के पार घने वन थे,जहाँ पंक्षियों के कलरव से वहाँ का वातावरण सदैव गूँजता रहता था,घनें वनों के बीच एक नदी बहती थीं, जिसका नाम वत्सला था,उसके समीप एक राज्य बसता था जिसका नाम प्रशान्त नगर था,जहाँ के हरे भरे खेत इस बात को प्रमाणित करते थे कि इस राज्य के वासी अत्यंत खुशहाल स्थिति में हैं, किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हैं,सबके घर धन धान्य से भरे हुए हैं और वहाँ के राजा अत्यंत दयालु प्रवृत्ति के थे,उनका नाम समृद्धिसेन था,वे अपने राज्य के लोगों को कभी भी कोई कष्ट ना होने देते थे,उनकी रानी का नाम अहिल्या था, राजा के विवाह को अत्यधिक वर्ष बीत चुके थे किन्तु राजा के कोई सन्तान ना हो हुई, इस दुख से दुखी होकर रानी अहिल्या ने राजा से कहा कि वे अपना दूसरा विवाह कर लें किन्तु राजा समृद्धिसेन दूसरे विवाह के लिए कदाचित् सहमत ना थे उन्होंने इस विषय पर अपने गुरुदेव से मिलने का विचार बनाया और वो अपने गुरू अरण्य ऋषि से मिलने रानी अहिल्या के साथ अरण्य वन जा पहुंँचे,उन दोनों से मिलने के पश्चात ऋषि अरण्य बोले___
" इतने व्याकुल ना हों राजन!तनिक धैर्य रखें,कुछ समय पश्चात आपको अवश्य संतान की प्राप्ति होगी और सारे जगत मे वो आपका मान-अभिमान बढ़ाएगी"
इस बात से राजा समृद्धिसेन अत्यधिक प्रसन्न हुए और अरण्य वन में एक दो दिन ठहर कर अपने गुरदेव से आज्ञा लेकर लौट ही रहे थे कि मार्ग में उन्हें बालकों के रोने का स्वर सुनाई दिया जिससे उनका मन द्रवित हो गया और रानी अहिल्या भी व्याकुल हो उठीं,तब राजा समृद्धिसेन ने सारथी से अपना रथ रोकने को कहा,सारथी के रथ रोकते ही वें अपने रथ से उतरे और उन्होंने देखा कि कहीं दूर से झाड़ियों से वो स्वर आ रहा हैं,वो दोनों उस झाड़ी के समीप पहुंँचे, देखा तो वहाँ वस्त्र की तहों में एक डलिया में दो जुड़वांँ शिशु रखें हैं,अहिल्या से उन शिशुओं का रोना देखा ना गया और शीघ्रता से उन्होंने उन दोनो बालकों को अपनी गोद मे उठा लिया,
अन्ततः उन्होंने उन शिशुओं के अभिभावकों को आसपास बहुत खोजा ,परन्तु कोई भी दिखाई ना दिया, तब दोनों ये निर्णय लिया कि दोनों शिशुओं को वो अपने राज्य ले जाएंगे, उन शिशुओं में से एक बालक था और एक बालिका, दोनों पति पत्नी की जो इच्छा थी वो अब पूर्ण हो चुकी थीं,दोनों खुशी खुशी अब उनका लालन पालन करने लगें,उन्होंने बालिका नाम उस राज्य की नदी के नाम पर वत्सला रखा जोकि मैं हूंँ और बालक का नाम चन्द्रभान रखा, धीरे धीरे दोनों बड़े होने लगें और कुछ सालों बाद दोनों अपने यौवनकाल में पहुंँच गए,
इसी मध्य एक दिन वत्सला नौका विहार हेतु नदी पर गई, वहांँ उसने अपनी सखियों और दासियों से हठ की कि वो नाव खेकर अकेले ही नौका विहार करना चाहती हैं,सखियों ने बहुत समझाया,पर उसनें किसी की एक ना सुनी और अकेले ही नाव पर बैठकर नाव खेने लगी,कुछ समय उपरांत नदी में एक भँवर पड़ी जिसे दूर से ही देखकर,सारन्धा बचाओ...बचाओ... चिल्लाने लगी क्योंकि उसे नाव की दिशा बदलना नहीं आता था,उसका स्वर वहांँ उपस्थित एक नवयुवक ने सुना और वो उसे बचाने नदी मे कूद पड़ा,वो तीव्र गति से तैरता हुआ वत्सला की नाव तक पहुंँच कर शीघ्रता से नाव पर चढ़ा और उसने नाव को दूसरी दिशा में मोड़ दिया, वत्सला ने नीचे की ओर मुँख करके लजाते हुए उस नवयुवक को धन्यवाद दिया, तब उस नवयुवक ने वत्सला से उसका परिचय पूछा,तब वत्सला बोली....
"मैं प्रशान्त नगर के राजा समृद्धिसेन की पुत्री हूँ,नौका विहार के लिए अकेले ही निकल पड़ी,मार्ग में भँवर देखकर सहायता हेतु चिल्लाने लगी और आपका परिचय"?
"जी! मैं अमरेन्द्र नगर का राजकुमार सूर्यदर्शन,आखेट के लिए यहाँ आया था,आपका स्वर सुना तो विचलित होकर यहाँ आ पहुँचा",सूर्यदर्शन बोला...
"आपने आज मेरे प्राणों की रक्षा की हैं इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद"वत्सला बोली....
"धन्यवाद किस बात का प्रिऐ!ये तो मेरा कर्तव्य था",सूर्यदर्शन बोला....
" वो सब तो ठीक हैं महाशय! परन्तु मैं आपकी प्रिये नहीं हूंँ, वत्सला बोली....
"नहीं हैं तो हो जाएगीं,आप जैसी सुन्दर राजकुमारी को कौन अपनी प्रिये नही बनाना चाहेगा", सूर्यदर्शन बोला.....
" आप भी राजकुमार! कैसा परिहास कर रहें हैं मुझसे", वत्सला बोली......
"ये परिहास नहीं है राजकुमारी! ये सत्य हैं,ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी सुन्दरता पर मैं अपना हृदय हार बैठा हूँ" सूर्यदर्शन बोला.....
"अब रहने भी दीजिए राजकुमार! अत्यधिक बातें बना लीं आपने,कृपया कर अब मुझे मेरे राज्य तक पहुंँचा दीजिए,वत्सला बोली.....
अन्ततः सूर्यदर्शन ने वत्सला को अपने अश्व पर बैठाकर उसे उसके नगर तक पहुँचा दिया,धीरे धीरे वत्सला और सूर्यदर्शन के मध्य समीपता बढ़ी औंर वें एकदूसरे से प्रेम करने लगे थे,जब ये बात राजा समृद्धिसेन ने सुनी तो वे अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और राजकुमारी वत्सला का विवाह सूर्यदर्शन से करने को सहमत हो गए, बडी़ धूमधाम से विवाह सामारोह की तैयारियांँ होने लगी और विवाह वाला दिन भी आ पहुँचा परन्तु उस दिन जो हुआ उसकी आशा किसी को नहीं थी....

क्रमशः___
सरोज वर्मा__