सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 2 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 2

बाल्यावस्था में गृहस्थ संचालन

संत तुकाराम जी का जन्म पूना के निकट देहू गाँव में संवत् १६६५ वि० में एक कुनवी परिवार में हुआ था। इस जाति वालों को महाराष्ट्र में शूद्र माना जाता है और वे खेती-किसानी का धंधा करते हैं। पर तुकाराम जी के घर में पुराने समय से लेन-देन का धंधा होता चला आया था और उनके पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। इसलिए उनकी बाल्यावस्था सुखपूर्वक व्यतीत हुई। जब वे तेरह वर्ष के हुए तो उनके माता-पिता घर का भार उनको देकर स्वयं तीर्थों में भगवत् भजन करने के उद्देश्य से चले गये। तुकाराम जी उसी आयु में दुकान का हिसाब-किताब करने में होशियार हो गये थे और पिता ने उनका विवाह भी कर दिया था, पर वे स्वभाव से अत्यंत सरल, सेवाभावी और सत्यवादी थे। इसका परिणाम यह हुआ कि दुनियादार लोगों ने उनका कर्ज चुकाना तो बंद कर दिया और जैसे बने उन्हें ठगने की कोशिश करने लगे।

लोगों की ऐसी मनोवृत्ति देखकर उनका चित्त सांसारिक व्यवहारों से विरक्त होने लगा। पर घर में कई प्राणि स्त्री, भाई, बहिन आदि का निर्वाह करने का भार उनके ऊपर था, इसलिए फुटकर सामान की दुकान खोल ली। पर वे कभी झूठ नहीं बोलते थे, कभी किसी को ठगते नहीं थे, सबके प्रति उदारता का व्यवहार करते थे, इससे स्वार्थी लोग फिर उनके साथ धोखा और ठगी का व्यवहार करने लगे और दुकान में घाटा लग गया। जिन लोगों को उन्होंने उधार दिया था, वे तो देने का नाम नहीं लेते थे, पर जिनको लेना था वे फौरन नालिश करके घर पर जब्ती का हुक्म ले आये। ससुराल वालों ने एकाध बार सहायता भी की, पर सरलता के कारण लोग उनको किसी न किसी प्रकार ठगते ही रहे और उनकी आर्थिक दशा गिरती ही रही।

कई बार उन्होंने माल ले जाकर बेचने का कार्य शुरू किया। एक बार मिर्च लेकर किसी दूर के स्थान में बेचने को गये। वहाँ जो रुपया मिला उसको लोगों ने नकली सोने के कड़े देकर ठग लिया। दूसरी बार स्त्री (द्वितीय पत्नी) ने दो सौ रुपया कर्ज दिलाकर व्यापार करने को भेजा। उसमें पचास रुपया लाभ भी हुआ। पर वहीं पर एक ब्राह्मण ने आकर अपना दुःख बताया और इतनी अधिक विनती की कि सब रुपया उसी को देकर चले आये। इस पर स्त्री ने उनको बहुत खरी-खोटी सुनाई और दंड दिया।

जब उस प्रदेश में भयंकर अकाल पड़ा तो एक बूँद पानी मिलना कठिन हो गया, वृक्ष सूख गये, पशु बिना चारे के मर गये। तुकाराम के घर में अन्न का दाना भी न था। किसी के दरवाजे पर जाते तो वह खड़ा भी नहीं होने देता, क्योंकि दिवाला निकल जाने से उनकी साख पहले ही जाती रही। घर वाले भूखों मरने लगे। तुकाराम हद से ज्यादा परिश्रम करते, पर तब भी पेट नहीं भरता। सब पशु और पहली स्त्री तथा बच्चा इसी में मर गये। इस प्रकार कष्ट सहन करते-करते तुकाराम का मन संसार में विरक्त होने लगा और वह अपना अधिकांश समय परमात्मा के ध्यान और भजन में लगाने लगे। उसकी दूसरी पत्नी जीजाबाई का स्वभाव बड़ा झगड़ालू और लड़ाकु था। इससे घर में रह सकना और भी कठिन हो जाता था। गाँव के लुच्चा-लफंगा व्यक्ति भी उनको अक्सर छेड़ते रहते थे। वे उनको देखकर कहने लगते– “और भगवान् का भजन करो, हरि के नाम ने तुझे निहाल कर दिया।”

वैराग्य और एकांतवास
ऐसी परिस्थिति में भी तुकाराम घर छोड़कर साधू-संत नहीं बने पर उन्होंने चित्त शुद्धि उद्देश्य से कुछ समय एकांतवास करने का निश्चय किया। इसलिए वह निकटवर्ती ‘भामनाथ’ पर्वत पर चले गये और वहाँ पंद्रह दिन तक भगवान् का ध्यान ही करते रहे। जब यह बात गाँव में फैली तो तुकाराम की पत्नी जीजाबाई बड़ी दुःखी हुईं। स्वभाव से वह लड़ाकु और झगड़ा करने वाली अवश्य थी, पर साथ ही पतिव्रता भी थीं। उसने तुकाराम के छोटे भाई कान्हाजी को उन्हें ढूँढ़ लाने को भेजा। इधर-उधर फिरते-फिरते भामनाथ पर उसकी तुकाराम के साथ भेंट हुई। वह उन्हें समझा-बुझा कर घर ले आया।

अब तुकाराम ने संसार के झगड़ों को सदा के लिए मिटाने का निश्चय किया। उन्होंने पिता के समय के सब दस्तावेज (ऋण-पत्र ) निकाले, जो कर्ज लेने वालों ने लिखकर दिये थे। उन सबको वह गाँव के पास वाली इंद्रायणी नदी में डुबाने चले। यह देखकर छोटे भाई ने कहा— “आप तो 'साधू' हो गये। परंतु मुझे तो बाल-बच्चों का पालन करना होगा। अगर आप इन सब दस्तावेजों को इस तरह डुबा देंगे तो मेरा काम कैसे चलेगा ?” तुकाराम ने उत्तर दिया– “ठीक है, तुम इनमें से आधे दस्तावेज निकाल लो और अलग रहकर अपनी गृहस्थी चलाओ। मेरा सब भार तो विट्ठल भगवान् पर है। अब मेरा जीवन-क्रम सदा ऐसा ही रहेगा और मेरा निर्वाह भगवान् पांडुरंग ही करेंगे। पर मैं यह नहीं चाहता कि मेरे कारण तुमको किसी तरह की हानि पहुँचे। इसलिए तुम अपना भाग लेकर अलग हो जाओ और मेरी चिंता न करो।” यह कहकर उन्होंने आधे ऋण-पत्र कान्हाजी को दे दिए और अपने हिस्से के उसी समय नदी में प्रवाहित कर दिए।

इस घटना का वर्णन करते हुए कुछ समय पश्चात् संत तुकाराम के एक शिष्य ने लिखा था–
“जब तक अनुभव न हो तब तक पुस्तकों में लिखा ज्ञान प्रायः निरर्थक रहता है। इसी प्रकार हमारा जो धन दूसरों के कब्जे में है, वह भी व्यर्थ होता है। इससे मन में हमेशा खराबी पैदा होती रहती है। अमुक मनुष्य के पास से इतना लेना है, पर देगा या नहीं देगा ? न जाने क्या होगा ? इस प्रकार की तरह तरह की चिंताएँ और दुराशा मन में लगी रहती हैं। इसलिए तुकाराम ने अपने सारे कागज पत्र इंद्रायणी नदी में डाल दिये। इसके पीछे उन्होंने कभी द्रव्य का स्पर्श नहीं किया। दरिद्रता के सब प्रकार के दुःख उन्होंने सहन कर लिए माँगकर भी निर्वाह कर लिया, पर द्रव्य को कभी न छूने का निश्चय करके वे धन के फंदे से सदा के लिए छुटकारा पा गये।”

जीवन को सुखी बनाने के लिए ऐसे कार्यों से बचना आवश्यक है, जिनमें अन्य लोगों से विवाद, झगड़ा और संघर्ष होने की विशेष रूप से संभावना रहती है। लेन-देन अथवा ब्याज पर रुपया उधार देने का पेशा प्रशंसनीय नहीं है। इसमें प्रायः अभावग्रस्त व्यक्तियों के शोषण की भावना निहित रहती है और इसलिए इस पेशे को करने वाले व्यक्तियों में स्वार्थपरता की भावना बढ़ जाती है, साथ ही अन्य व्यक्तियों के प्रति उनमें सहानुभूति की भावना भी कम हो जाती है। तुकाराम की प्रकृति जन्म से ही इस कार्य के अनुकूल नहीं थी, इसलिए उन्हें इस पुश्तैनी पेशे में आरंभ से ही असफलता होने लगी। और बाद में तो उसके कारण वे नई-नई कठिनाइयों में फँसते चले गये। इसलिए दस्तावेजों को नष्ट करके अपने मन को इस उलझन से मुक्त कर लेना उचित था। अध्यात्म मार्ग के पथिक को जीवन निर्वाह का पेशा भी ऐसा चुनना चाहिए, जो अपनी आंतरिक प्रकृति के अनुकूल हो और जिसमें अन्य व्यक्तियों के अनहित की कोई संभावना न हो।

इस प्रकार अपना जीवन मार्ग सुनिश्चित करके तुकाराम अपने को आध्यात्मिक जीवन के उपयुक्त बनाने के लिए साधना करने लगे। प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर, विट्ठल भगवान् की पूजा करके वे नदी के पार किसी पर्वत पर चले जाते और वहाँ 'ज्ञानेश्वरी' अथवा 'एकनाथी भागवत' का पारायण करते। इसके बाद जो समय बचता उसमें नाम जप करते। संध्या के समय गाँव में वापस आकर मंदिर में कीर्तन सुनते और फिर स्वयं आधी रात तक कीर्तन करते। फिर थोड़ी देर सो लेते थे और ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्य कर्मों में लग जाते थे।

इस प्रकार विरक्त अवस्था में रहकर उन्होंने भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य को जीत लिया। गीता के अनुसार ‘युक्ताहार विहार' होने से सब इंद्रियाँ वश में आ गई। समय-समय पर वे तीर्थयात्रा को भी जाते थे, पर वे तीर्थ आस-पास ही होते थे। अपने पूर्वजों के नियमानुसार आषाढ़ और कार्तिक की पूर्णिमा को पंढरपुर तो जाते ही थे। ज्ञानेश्वर महाराज की जन्मभूमि 'आलंदी' तथा एकनाथ जी का निवास स्थान 'पैठण' उनके गाँव से पास ही थे। फिर एक बार तेईस-चौबीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने समस्त भारत के तीर्थों की यात्रा करके भारतीय समाज की अवस्था और तत्कालीन समस्याओं की जानकारी प्राप्त की। पर तीर्थों की दशा उस समय भी बहुत त्रुटिपूर्ण हो गई थी और सब जगह धर्म जीवियों ने उनको पेट भरने का साधन बना लिया था। इसलिए सब तीर्थों को देख लेने पर उन्होंने यही कहा–
वाराणसी गया पाहिली द्वारका।
परि नये तुका पंढरी च्या।।
अर्थात् — “काशीजी की यात्रा की और द्वारका भी देखी, पर हमको तो पंढरपुर ही सर्वोत्तम लगता है।”

To be continued..