एक योगी की आत्मकथा - 35 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 35

लाहिड़ी महाशय का अवतार सदृश जीवन

"हमें इसी प्रकार सारी धार्मिक परंपराओं का पालन करना होगा।" बैप्टिस्ट यूहन्ना को यह कहकर उनसे दीक्षा देने का अनुरोध करने में ईसा मसीह अपने गुरु के दिव्य अधिकारों को स्वीकार कर रहे थे।

पौर्वात्य दृष्टिकोण से बाइबिल के श्रद्धापूर्ण अध्ययन और अन्तः प्रेरणा से मुझे यह पूर्ण विश्वास हो गया है कि गतजन्मों में बैप्टिस्ट यूहन्ना ईसा मसीह के गुरु थे। बाइबिल के अनेक परिच्छेदों से यह ध्वनित होता है कि यूहन्ना और यीशु अपने पिछले जन्म में क्रमशः एलाइजा और उनके शिष्य एलीशा थे। (पुराने नियम (Old Testament) में यही नाम दिये गये हैं। यूनानी अनुवादकों ने इन नामों को इलयास और इलीसियस लिखा है; इसलिये नये नियम (New Testament) में नाम इन यूनानी रूपों में ही दिये गये हैं।)

पुराने नियम का अंत ही एलाइजा और एलीशा के पुनर्जन्म की भविष्यवाणी के साथ होता है: “देखो, प्रभु के उस महान और भयंकर दिन के आने के पहले ही मैं एलाइजा पैग़म्बर को तुम्हारे पास भेज दूंगा।” इस प्रकार "प्रभु के आने के पहले" भेजे गये यूहन्ना (एलाइजा) का जन्म ईसा से थोड़ा पहले, उनके अग्रदूत का काम करने के लिये हुआ। पिता जकारिया के सामने एक देवदूत ने प्रकट होकर उन्हें बता दिया था कि उनका होने वाला पुत्र यूहन्ना और कोई नहीं, बल्कि स्वयं एलाइजा होगा।

“परन्तु देवदूत ने उससे कहा, डरो मत ज़केरियास, क्योंकि तुम्हारी प्रार्थना सुन ली गयी है; और तुम्हारी पत्नी एलिजाबेथ एक पुत्र को जन्म देगी और तुम उसका नाम यूहन्ना रखोगे ... और इजरायल की असंख्य संतानों को वह उनके प्रभु ईश्वर की ओर मोड़ेगा। और वह इलयास की तरह ही और इलयास की पूरी शक्ति के साथ उसके पहले जाकर पिताओं के हृदय संतानों की ओर मोड़ देगा, आज्ञा न मानने वालों के हृदय धर्मनिष्ठ लोगों के ज्ञान की ओर मोड़ देगा, और इस प्रकार प्रजा को प्रभु के आगमन के लिये तैयार करेगा ।”

ईसा मसीह ने दो बार निस्संदिग्ध शब्दों में एलाइजा की पहचान यूहन्ना के रूप में बतायी थी: “एलिज़ा पहले ही आ चुके हैं, और लोग उन्हें पहचान नहीं पाये तब शिष्यों की समझ में आया कि ईसा उन्हें द बैप्टिस्ट के बारे में बता रहे थे।" दूसरे एक स्थान पर ईसा मसीह कहते हैं: “क्योंकि यूहन्ना तक के सभी पैगम्बरों और शास्त्रों ने भविष्यवाणी की है। और यदि तुम उसे स्वीकार करो, तो यह वही इलयास है, जिसके आने के बारे में वह भविष्यवाणी थी।"

जब यूहन्ना ने इससे इन्कार किया कि वह इलयास (एलिज़ा) है, तो उनका अभिप्राय था कि यूहन्ना की दीन भूमिका में वे महान् गुरु एलाइजा के बाह्य गौरव एवं प्रताप का प्रयोग नहीं करने वाले थे। अपने पिछले जन्म में उन्होंने अपनी महिमा और आध्यात्मिक संपदा अपने शिष्य एलीशा को दे दी थी। “और एलीशा ने कहा, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आपकी शक्ति दुगुनी होकर मुझ में आ जाय । तब एलाइजा ने कहाः तुमने बड़ी मुश्किल चीज़ माँगी है, फिर भी, जब मुझे तुमसे दूर किया जाये, तब तुम अगर मुझे देख सके, तो तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो जायेगी .... और एलाइजा की पूर्ण आध्यात्मिक संपदा एलीशा में आ गयी।"

भूमिकाओं में अदलाबदली हो गयी, क्योंकि एलाइजा - यूहन्ना के लिये अब आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण हुए एलीशा-ईसा का प्रकट गुरु बनने की कोई आवश्यकता नहीं रही थी।

जब पहाड़ पर ईसा का शरीर दिव्य शरीर में रूपान्तरित हो गया, तब उन्होंने अपने गुरु इलयास को ही मूसा के साथ देखा था। क्रास पर यातना की पराकष्ठा में ईसा पुकार उठे: “एली, एली, लामा साबाक्तानी ? अर्थात् मेरे प्रभु मेरे प्रभु तुमने क्यों त्याग दिया? वहाँ जो लोग खड़े थे, उनमें कुछ ने जब यह सुना, तो उन्होंने कहा, यह आदमी इलयास को पुकार रहा है देखते हैं कि इलयास इसे बचाने के लिये आता है या नहीं।"

यूहन्ना और ईसा के बीच जो कालातीत गुरु-शिष्य संबंध था, वही बाबाजी और लाहिड़ी महाशय के बीच भी था। मृत्युंजय गुरु अत्यंत वात्सल्य के साथ अपने शिष्य के दो जन्मों के बीच के अथाह सागर को पार कर बालक लाहिड़ी और फिर युवा लाहिड़ी द्वारा उठाये गये कदमों का मार्गदर्शन करते रहे। शिष्य के जीवन के तैंतीसवें वर्ष में पदार्पण करने से पहले बाबाजी ने प्रकट रूप से पुनः उस सम्बन्ध को स्थापित करना उपयुक्त नहीं समझा, जो कभी टूटा ही नहीं था।

रानीखेत के पास अल्प समय के मिलन के बाद निःस्वार्थी गुरु ने अपने प्रिय शिष्य को अपने पास नहीं रखा, बल्कि लाहिड़ी महाशय को जगत् में अपना जीवन कार्य पूरा करने के लिये छोड़ दिया। "मेरे पुत्र! जब भी तुम्हें मेरी आवश्यकता होगी, मैं आ जाऊँगा।" कौन-सा मर्त्य प्रेमी इस प्रकार के वचन में निहित अनंत तथ्यों की पूर्ति कर सकता है ?

सन १८६१ में काशी के एक एकाकी कोने में एक महान आध्यात्मिक पुनरुत्थान का श्रीगणेश हुआ। साधारण लोक समाज इससे पूर्णतः अनभिज्ञ था। जिस प्रकार फूलों की सुगन्ध को छिपा कर नहीं रखा जा सकता, उसी प्रकार आदर्श गृहस्थ का जीवन चुपचाप व्यतीत करते लाहिड़ी महाशय अपने स्वाभाविक तेज को छिपाकर नहीं रख सके। भारत के कोने कोने से भक्त-भ्रमर इस जीवन्मुक्त सद्गुरु से सुधापान करने के लिये मँडराने लगे।

लाहिड़ी महाशय को प्यार से "आनन्दमग्न बाबू" कहने वाले अंग्रेज़ ऑफिस सुपरिटेन्डेन्ट के ध्यान में सबसे पहले यह बात आयी कि उनके कर्मचारी में कोई अज्ञात श्रेष्ठ परिवर्तन आ रहा हैं।

“सर, आप दुःखी लगते हैं। क्या बात है?" एक दिन सुबह लाहिड़ी महाशय ने अपने सुपरिटेन्डेन्ट से पूछा।

"इंग्लैण्ड में मेरी पत्नी गम्भीर रूप से बीमार है। मुझे बहुत चिंता हो रही है।"

“मैं आपको उनका कुछ समाचार ला देता हूँ।” लाहिड़ी महाशय वहाँ से चले गये और एक एकान्त स्थान में जाकर कुछ देरे बैठे रहे। जब वापस आये तो धीरज देने के अंदाज में मुस्करा रहे थे।

“आपकी पत्नी की हालत सुधर रही है; अभी वे आपको पत्र लिख रही हैं।” सर्वज्ञ योगीवर ने पत्र के कुछ अंश भी सुना दिये।

“आनन्दमग्न बाबू! इतना तो मैं पहले ही जान गया हूँ कि आप साधारण मनुष्य नहीं हैं। फिर भी मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा है कि आप अपनी इच्छा मात्र से ही देश और काल की सीमाओं को मिटा सकते हैं।”

अन्ततः वह पत्र आ पहुँचा देखकर सुपरिंटेन्डेन्ट चकित रह गया कि पत्र में न केवल उसकी पत्नी के अच्छी होने का शुभ समाचार था, बल्कि उन्हीं शब्दों में वह वाक्य भी थे जो महान् गुरु ने कई सप्ताह पूर्व कह सुनाये थे।

कुछ महीनों बाद पत्नी भी भारत आ गयी। जब लाहिड़ी महाशय से मुलाकात हुई तो वह श्रद्धा और आदर के साथ उन्हें देखती ही रही। फिर बोली:

"सर, महीनों पहले लंदन में अपनी रुग्णशय्या के पास तेजस्वी प्रकाश में मैंने आपको ही देखा था। उसी क्षण मैं पूर्ण स्वस्थ हो गयी! और थोड़े ही दिन बाद भारत की लम्बी समुद्र यात्रा करने में समर्थ हो गयी। "


दिन प्रति दिन महान् गुरु एक-दो साधकों को क्रिया योग की दीक्षा देते थे। अपने इन आध्यात्मिक कर्त्तव्यों एवं व्यावसायिक तथा पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्वों के अलावा वे शिक्षा के क्षेत्र में भी सोत्साह हिस्सा लेते थे। उन्होंने कई घरों में छोटी-छोटी पाठशालाएँ शुरू करवा दी थीं और काशी के बंगाली टोला मुहल्ले में एक बड़े हाइस्कूल के विकास में सक्रिय योगदान दिया था। साप्ताहिक सभाओं में, जो बाद में "गीता-सभा" के नाम से प्रतिष्ठित हुई, महान गुरु अनेक जिज्ञासुओं को शास्त्रों का अर्थ समझाते थे।

इन बहुमुखी गतिविधियों द्वारा लाहिड़ी महाशय उस सामान्य प्रतिवाद का उत्तर देने की चेष्टा कर रहे थे: "व्यावसायिक और सामाजिक कर्त्तव्यों को निभाते निभाते ध्यान धारणा का समय ही कहाँ बचता है?" इस महान गृहस्थ-योगी गुरु का पूर्ण संतुलित जीवन हजारों नर-नारियों के लिये प्रेरणा का स्रोत बना। केवल साधारण सा वेतन पाते हुए भी, किफायती खर्च करते हुए ये आड़म्बरहीन गुरु, जिनके पास कोई भी पहुँच सकता था, अत्यंत स्वाभाविक तरीके से सुखपूर्वक संयमित सांसारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे।

साक्षात परमात्मा के आसन पर विराजमान होते हुए भी लाहिड़ी महाशय बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों का आदर करते थे। जब उनके भक्त उन्हें प्रणाम करते, तो वे भी उत्तर में उन्हें नमस्कार करते। गुरु के पाँव छूने की प्राचीन पौर्वात्य प्रथा होते हुए भी वे स्वयं ही शिशु सुलभ विनम्रता के साथ दूसरों के पाँव छू लेते थे, पर दूसरों को कभी अपने पाँव नहीं छूने देते थे।

हर धर्म के लोगों को क्रिया योग दीक्षा का दान लाहिड़ी महाशय के जीवन की एक उल्लेखनीय विशिष्टता थी। केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि उनके प्रमुख शिष्यों में मुसलमान और ईसाई भी थे। द्वैतवादी हो या अद्वैतवादी, चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो या किसी भी प्रचलित धर्म को न मानता हो, विश्वगुरु सबका निष्पक्ष रूप से स्वागत करते और उन्हें शिक्षा देते थे। उनके एक मुसलमान शिष्य अब्दुल गफूर खान अत्यंत ऊँची अवस्था में पहुँचे हुए थे। स्वयं सर्वोच्च ब्राह्मण जाति के होते हुए भी लाहिड़ी महाशय ने अपने समय की कट्टर जाति व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में साहसिक कदम उठाये थे। जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों को इस गुरु की सर्वव्यापी छत्रछाया में आसरा मिलता था। सभी ईश-प्रेरित संतों के समान ही लाहिड़ी महाशय ने भी समाज के पतित-दलितों के हृदयों में आशा की नयी किरण जगायी।

“यह याद रखो कि तुम किसी के नहीं हो और कोई तुम्हारा नहीं है। इस पर विचार करो कि किसी दिन तुम्हें इस संसार का सब कुछ छोड़कर चल देना होगा, इसलिये अभी से ही भगवान को जान लो," महान गुरु अपने शिष्यों से कहते। “ईश्वरानुभूति के गुब्बारे में प्रतिदिन उड़कर मृत्यु की भावी सूक्ष्म यात्रा के लिये अपने को तैयार करो माया के प्रभाव में तुम अपने को हाड़-मांस की गठरी मान रहे हो, जो दुःखों का घर मात्र है। अनवरत ध्यान करो ताकि तुम जल्दी से जल्दी अपने को सर्व-दुःख-क्लेशमुक्त अनन्त परमतत्त्व के रूप में पहचान सको। क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग द्वारा देह-कारागार से मुक्त होकर परमतत्त्व में भाग निकलना सीखो।"

गुरुवर अपने विभिन्न शिष्यों को अपने-अपने धर्म के अच्छे परम्परागत नियमों का निष्ठा के साथ पालन करने के लिये प्रोत्साहित करते थे। मुक्ति की व्यावहारिक प्रविधि के रूप में क्रियायोग के सर्वसमावेशक स्वरूप के महत्व को स्पष्ट करने के बाद फिर लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को अपने-अपने वातावरण एवं पालन-पोषण के अनुसार अपना जीवन जीने की स्वतन्त्रता देते थे।

वे कहते थे: “मुसलमान को रोज पाँच बार नमाज़ पढ़ना चाहिये। हिन्दू को दिन में कई बार ध्यान में बैठना चाहिये। ईसाई को रोज कई बार घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करके फिर बाइबिल का पाठ करना चाहिये।”

लाहिड़ी महाशय अत्यंत विचारपूर्वक अपने अनुयायियों को उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग या राजयोग के मार्ग पर चलाते थे। संन्यास लेने की इच्छा रखने वाले शिष्यों को वे आसानी से उसकी अनुमति नहीं देते थे; हमेशा उन्हें संन्यास - जीवन की उग्र तपश्चर्या पर पहले भलीभाँति विचार कर लेने का परामर्श देते थे।

अपने शिष्यों को वे शास्त्रों की अनुमानमूलक चर्चा में न उलझने का परामर्श देते थे। वे कहते: “केवल वही बुद्धिमान है, जो प्राचीन दर्शनों का केवल पठन-पाठन करने के बजाय उनकी अनुभूति करने का प्रयास करता है। ध्यान में ही अपनी सब समस्याओं का समाधान ढूँढो। व्यर्थ अनुमान लगाते रहने के बदले ईश्वर से प्रत्यक्ष सम्पर्क करो।

“शास्त्रों के किताबी ज्ञान से उत्पन्न मतांध धारणाओं के कचरे को अपने मन से निकाल फेंको और उसके स्थान पर प्रत्यक्ष अनुभूति के आरोग्यप्रद मीठे जल को अन्दर आने दो। अन्तरात्मा के सक्रिय मार्गदर्शन से मन की तार को जोड़ लो; उसके माध्यम से बोलने वाली ईश्वर-वाणी के पास जीवन की प्रत्येक समस्या का उत्तर है। अपने आप को संकट में डालने के मामले में मनुष्य की प्रतिभा का कोई अंत प्रतीत नहीं होता, परन्तु उस परम दयालु ईश्वर के पास सहायता की युक्तियों की भी कोई कमी नहीं है।"

एक दिन भगवद्गीता पर लाहिड़ी महाशय का प्रवचन सुन रहे शिष्यों को उनकी सर्वव्यापिता की झलक देखने को मिली। लाहिड़ी महाशय सकल स्पन्दनशील सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य का अर्थ समझा रहे थे। तभी हठात् वे हाँफने लगे मानो उनका दम घुट रहा था, और साथ ही चिल्ला उठे:

“जापान के समुद्र तट के पास मैं अनेक लोगों के शरीरों के माध्यम से डूब रहा हूँ!”

कुछ दिनों बाद शिष्यों ने समाचार पत्रों में उस दिन जापान के पास डूबे एक जहाज में यात्रा कर रहे अनेक लोगों की डूबने से मृत्यु का समाचार पढ़ा।

अनेक दूर-दूर तक रहने वाले शिष्यों को अपने इर्दगिर्द लाहिड़ी महाशय की संरक्षक एवं मार्गदर्शक उपस्थिति का अनुभव होता था। जो शिष्यगण परिस्थितिवश उनके पास नहीं रह सकते थे, उन्हें लाहिड़ी महाशय सांत्वना देते हुए कहते थे: “जो क्रिया का अभ्यास करते हैं, उनके पास में सदैव रहता हूँ। तुम्हारी अधिकाधिक व्यापक बनती जाती आध्यात्मिक अनुभूतियों के माध्यम से मैं परमपद प्राप्त करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करूंगा।”

लाहिड़ी महाशय के एक मुख्य शिष्य श्री भूपेन्द्रनाथ सन्याल ने बताया कि १८९२ ईस्वी में, जब वे किशोरावस्था में थे, तो काशी जाने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने आध्यात्मिक उपदेश के लिये लाहिड़ी महाशय से प्रार्थना की लाहिड़ी महाशय ने उनके स्वप्न में आकर उन्हें दीक्षा दी। बाद में किशोर भूपेन्द्रनाथ काशी गये और वहाँ उन्होंने लाहिड़ी महाशय से दीक्षा के लिये अनुरोध किया। लाहिड़ी महाशय ने उत्तर दिया: "मैंने स्वप्न में तुम्हें पहले ही दीक्षा दे दी है।"

यदि कोई शिष्य किसी सांसारिक दायित्व की उपेक्षा करता, तो लाहिड़ी महाशय उसे प्यार से समझाकर रास्ते पर ले आते।

"जब किसी शिष्य के दोषों के बारे में खुले आम बोलने के लिये उन्हें विवश होना पड़ता, तब भी लाहिड़ी महाशय अत्यंत सौम्य और शान्तिदायक शब्दों में बोलते थे," श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक बार मुझे बताया फिर विचारमग्न होते हुए आगे कहाः “कोई भी शिष्य कभी हमारे गुरुदेव की फटकार से बचने के लिये भागा नहीं।” मैं अपनी हँसी को रोक नहीं सका, परन्तु मैंने सच्चे हृदय से अपने गुरु को विश्वास दिलाया कि तीखा हो या कोमल, उनका हर शब्द मेरे कानों के लिये मधुर संगीत के समान है।

लाहिड़ी महाशय ने अत्यंत विचारपूर्वक क्रियायोग को साधक की प्रगति के अनुसार चार क्रमों में दी जाने वाली दीक्षाओं में विभाजित किया साधक की एक निश्चित हद तक उन्नति होने के बाद ही वे उसे तीन उच्चतर क्रियाओं की दीक्षा देते थे। एक शिष्य को ऐसा लग रहा था कि उसका उचित मूल्यांकन नहीं हो रहा है। एक दिन उसने अपना असंतोष शब्दों में प्रकट किया।

उसने कहाः “गुरुदेव! अब तो मैं निश्चय ही द्वितीय दीक्षा पाने के योग्य हो गया हूँ।” उसी समय दरवाजा खुला और एक विनम्र साधक, वृन्दा भगत ने कमरे में प्रवेश किया। वे काशी में पोस्टमैन थे।

"वृन्दा! यहाँ मेरे पास आकर बैठो।" महान् गुरु उनकी ओर देखकर स्नेहपूर्वक मुस्कराये। "यह बताओ कि क्या तुम द्वितीय क्रिया के योग्य हो गये हो ?"

पोस्टमैन ने दीनभाव से हाथ जोड़ दिये और चौकन्ने होकर कहाः “गुरुदेव! अब मुझे और कोई दीक्षा नहीं चाहिये! किसी उच्चतर शिक्षा को अब मैं कैसे आत्मसात् कर सकता हूँ? आज तो मैं आपका आशीर्वाद माँगने ही आया था, क्योंकि प्रथम क्रिया से ही मुझे ऐसा दिव्य नशा चढ़ जाता है कि ठीक से अपना पत्र बाँटने का काम भी नहीं कर पा रहा हूँ।"

"वृन्दा ब्रह्मानन्द सागर में पहले ही तैर रहा है।" लाहिड़ी महाशय क मुख से ये शब्द सुनकर उस द्वितीय दीक्षा माँगने वाले शिष्य ने शर्म से अपना सिर झुका लिया और कहाः

"गुरुदेव! मेरी समझ में आ गया है कि मैं एक ऐसा घटिया कारीगर हूँ, जो अपने औजारों को ही दोष दिया करता है।"

बाद में उस दीन, अशिक्षित पोस्टमैन ने क्रिया के द्वारा अपनी अंतर्दृष्टि को इतना विकसित कर लिया कि कभी-कभी विद्वान और पंडित भी शास्त्रों के जटिल मुद्दों पर उसका मत जानने के लिये उसके पास पहुँच जाते थे। वाक्यों और शब्दों की रचना से तथा अहंकार और पाप से अनभिज्ञ वृन्दा विद्वान पंडितों में प्रख्यात हो गया।

काशी के असंख्य शिष्यों के अतिरिक्त भारत के सुदूर भागों से भी सैंकड़ों लोग लाहिड़ी महाशय के पास आते थे। लाहिड़ी महाशय स्वयं भी अपने दो पुत्रों के ससुराल वालों से मिलने के लिये अनेक बार बंगाल में जाते थे। इस प्रकार बार-बार उनकी उपस्थिति से पावन हुए बंगाल में क्रिया योगियों की छोटी-छोटी मंडलियों का जाल-सा बन गया। विशेषतः कृष्णनगर एवं विष्णुपुर जिलों में चुपचाप अपनी साधना करने वाले अनेकानेक साधकों ने आज तक आध्यात्मिक ध्यान की अदृश्य धारा को बहती रखा है।

लाहिड़ी महाशय से क्रिया दीक्षा प्राप्त करने वाले अनेकानेक संतों में काशी के प्रख्यात स्वामी भास्करानन्द सरस्वती तथा देवघर के अत्यंत उच्च कोटि के तपस्वी बालानन्द ब्रह्मचारी भी थे। कुछ समय के लिये लाहिड़ी महाशय काशी के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह बहादुर के पुत्र के निजी शिक्षक भी रहे थे। उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों को पहचान कर महाराजा एवं उनके पुत्र, दोनों ने लाहिड़ी महाशय से क्रिया दीक्षा ली। महाराजा ज्योतीन्द्र मोहन ठाकुर ने भी उनसे दीक्षा ली।

लाहिड़ी महाशय के अनेक शिष्य समाज में ऊँचे-ऊँचे स्थानों पर थे और वे प्रचार द्वारा क्रियायोग का प्रसार करना चाहते थे। परन्तु लाहिड़ी महाशय ने इसकी अनुमति नहीं दी। एक शिष्य काशी नरेश के राजवैद्य थे। उन्होंने लाहिड़ी महाशय को "काशी बाबा" नाम देकर उस नाम का प्रसार करने का संगठित प्रयास किया। लाहिड़ी महाशय ने इस बात के लिये भी मना कर दिया।

वे कहते थेः "क्रियायोग रूपी पुष्प की सुगंध को स्वाभाविक रूप से अपने आप फैलने दो। क्रिया योग का बीज आध्यात्मिक दृष्टि से उर्वरा हृदय-भूमियों में निश्चित रूप से जड़ पकड़ेगा।

लाहिड़ी महाशय ने संगठन या मुद्रणालय के आधुनिक माध्यम से प्रचार करने की पद्धति का अवलम्ब नहीं किया, तथापि वे जानते थे कि उनके सन्देश की शक्ति रोकी न जा सकने वाली बाढ़ की भाँति उमड़ पड़ेगी और अपने शक्तिवेग से मानव-मनों में घुस जायेगी। उनके शिष्यों का परिवर्तित और शुद्ध हुआ जीवन क्रिया की अमर अपार शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण था।

रानीखेत में दीक्षा ग्रहण करने के २५ वर्ष बाद सन १८८६ ईस्वी में लाहिड़ी महाशय पेन्शन पर रिटायर हो गये। अब दिन में भी उनके उपलब्ध होने के कारण उनके पास आने वाले भक्तों की संख्या में अधिकाधिक वृद्धि होती गयी। अब महान गुरु अधिकांश समय निश्चल पद्मासन में मौन बैठे रहते थे। वे सदा अपने छोटे-से बैठकखाने में ही बैठे रहते थे; यहाँ तक कि कभी टहलने जाने या घर के दूसरे हिस्सों में जाने के लिये भी वे शायद ही कभी वहाँ से उठते थे। गुरु के दर्शन के लिये शिष्यों के आगमन का क्रम लगभग अखंड रूप से चलता रहता था।

लाहिड़ी महाशय के शरीर में अधिकांश समय अतिमानवी लक्षणों का दिखायी देना प्रायः दर्शनार्थियों को चिंता और विस्मय में डाल देता था; जैसे श्वासरहितता, निद्रारहितता, नाड़ी और हृदय की धड़कन का रुका हुआ होना, घंटों तक पलकें झपकाये बिना शान्त आँखों का खुला होना, और उनके चारों ओर शान्ति का प्रगाढ़ वलय होना। वहाँ से लौटने वालों में कोई ऐसा नहीं होता था जो दिव्य प्रेरणा से भारित न हुआ हो। सभी को यह ज्ञान हो जाता था कि उन्हें एक सच्चे भगवत-स्वरूप संत का मौन आशीर्वाद प्राप्त हो गया है।

बाद में लाहिड़ी महाशय ने अपने एक शिष्य पंचानन भट्टाचार्य को कोलकाता में "आर्य मिशन इंस्टिट्यूट" नाम से एक योग केन्द्र स्थापित करने की अनुमति दी। यह केन्द्र कुछ जड़ी-बूटियों की यौगिक औषधियाँ* वितरित करता था और उसने बंगाल में भगवद्गीता का प्रथम सस्ता-सुलभ संस्करण प्रकाशित किया था। हिंदी और बंगाली में प्रकाशित यह "आर्य मिशन गीता" हजारों घरों में पहुँची।

*[ हिंदू औषधिशास्त्र को आयुर्वेद कहते हैं। वैदिक काल के वैद्य नाजुक, बारीक शल्यक्रिया उपकरणां से शस्त्रक्रिया करते थे, प्लास्टिक सर्जरी करते थे, विषैले वायु के प्रभावों को मिटाने का उन्हें ज्ञान था, सिशरियन आपरेशन और दिमाग के आपरेशन भी वे करते थे और औषधियों को आवश्यकता के अनुसार शक्ति देने में वे कुशल थे। हिप्पोक्रेट्स (ईसापूर्व ४थी शताब्दी) ने अपनी मटेरिया मेडिका में डाला हुआ बहुत सा ज्ञान इस हिंदू स्रोत से ही लिया है। ]

साधारणतया लोगों को विभिन्न रोगों के निवारण के लिये लाहिड़ी महाशय प्राचीन परम्परा के अनुसार नीम का तेल देते थे। जब वे किसी शिष्य को तेल निकालने के लिये कहते, तो वह शिष्य आसानी से तेल निकाल लेता। अन्य कोई यदि वह तेल निकालने का प्रयास करता, तो उसके सामने विचित्र बाधाएँ खड़ी हो जाती थीं; जैसे जब वह आसवन के लिये आवश्यक प्रक्रिया पूरी करता, तो उसे दिखायी देता कि पूरा तेल ही भाप बनकर उड़ चुका है। स्पष्ट है कि गुरु का आशीर्वाद उस प्रक्रिया में एक आवश्यक तत्त्व था।

लाहिड़ी महाशय की बंगाली में लिखावट तथा हस्ताक्षर का नमूना ऊपर दिखाया गया है। ये पंक्तियाँ उनके द्वारा एक शिष्य को लिखे गये एक पत्र से ली गयी हैं, जिसमें गुरुदेव एक संस्कृत श्लोक का अर्थ इस प्रकार बता रहे हैं: "शान्ति की ऐसी अवस्था जिसने प्राप्त कर ली हो कि उसकी पलकें नहीं झपकतीं, उसने शाम्भवी मुद्रा* सिद्ध कर ली है।"

५ श्रावण, ‌ (हस्ताक्षर) श्री श्यामाचरण देवशर्मन

*[ शाम्भवी मुद्रा का अर्थ है दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करना जब योगी शान्ति की एक विशिष्ट अवस्था में पहुँच जाता है, तब उसकी पलकें नहीं झपकतीं। वह आंतरिक जगत में लीन हो जाता है।
मुद्रा का साधारणतः अर्थ होता है उँगलियों और हाथों की विशिष्ट स्थिति अनेक मुद्राएँ ऐसी हैं जिनका नाड़ियों पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि उससे शान्ति उत्पन्न होती है। हिंदू शास्त्रों में ७२००० नाड़ियों का और मन के साथ उनके सम्बन्ध का सूक्ष्म वर्णन है। इस प्रकार पूजाविधियों में तथा योगसाधना में प्रयुक्त की जाने वाली मुद्राओं के लिये वैज्ञानिक आधार है। मुद्राओं की भाषा का विस्तृत परिचय भारत के मूर्तिशिल्पों में तथा शास्त्रोक्त नृत्यों में भी मिलता है। ]

अन्य अनेक महान संतों की भाँति ही लाहिड़ी महाशय ने स्वयं कोई पुस्तक नहीं लिखी, परन्तु शास्त्रों पर अपनी व्याख्याओं का अनेक शिष्यों को उपदेश दिया। लाहिड़ी महाशय के पौत्र और मेरे प्रिय मित्र श्री आनन्दमोहन लाहिड़ी ने लिखा है:

"भगवद्गीता तथा महाभारत के अन्य हिस्सों में भी अनेक ग्रन्थियाँ (व्यासकूट) हैं। उन व्यासकूटों का विचार न किया जाये, तो उनमें केवल ऐसी कथाएँ मिलती हैं जो विचित्र भी लगती हैं और जिन्हें कोई भी गलत समझ सकता है। इन ग्रन्थियों को स्पष्ट न किया जाये, तो एक ऐसा विज्ञान हमारी दृष्टि से ओझल ही रहेगा जिसे हजारों हजारों वर्षों के प्रयोगों के अनुसन्धान के बाद भारतवर्ष ने अतिमानवी धैर्य के साथ सम्हाल कर रखा है।"*

*["सिंधु घाटी के पुरातत्त्व स्थल से हाल ही में निकाली गयी कलाकृतियों पर ध्यान की मुद्रा में बैठे मनुष्य दिखाये गये हैं। ये ध्यान मुद्राएँ ठीक वैसी ही है जैसी अब योग पद्धति में प्रयोग में लायी जाती हैं। इन पुरातात्विक कलाकृतियों का काल-निर्धारण ईसापूर्व तीसरी सहसाब्दी में जाता है। इस से साफ पता चलता है कि उस समय भी योग के मूल तत्वों का ज्ञान था। इससे यह निष्कर्ष निकालना कुछ गलत नहीं होगा कि प्रक्रियाओं का अध्ययन कर सिलसिलेवार विधिवत विश्लेषण करने की पद्धतियों का भारत में पाँच हजार वर्षों से प्रयोग किया जाता आ रहा है।" प्रोफेसर डब्लू. नॉर्मन ब्राउन, "बुलेटिन ऑफ द अमेरिकन कौंसिल ऑफ लर्नेड सोसाइटीज," वाशिंगटन डी. सी. में।
फिर भी, हिन्दू शास्त्रों से यह सिद्ध है कि भारत में योगविद्या असंख्य सहस्त्राब्दियों से सुप्रचलित है।]

“लाहिड़ी महाशय शास्त्रों की कल्पनासृष्टि के गूढ़ वाक्यों में कुशलतापूर्वक छिपाये गये धर्म विज्ञान को रूपकों से अलग कर प्रकाश में लाये। शास्त्र कूटवाक्यों का शब्दजाल मात्र नहीं रहे। लाहिड़ी महाशय ने सिद्ध कर दिया कि वैदिक पूजा विधियों के पीछे वैज्ञानिक अर्थ है।

"हम जानते हैं कि मनुष्य कुप्रवृत्तियों के आवेगों के आगे साधारणतया असहाय हो जाता है, परन्तु जब क्रियायोग के अभ्यास से उसकी चेतना में इंद्रियसुख से कहीं अधिक श्रेष्ठ और चिरस्थायी आनन्द जागृत हो जाता है, तब वे कुप्रवृत्तियाँ बलहीन हो जाती हैं और उनकी ओर प्रवृत्त होने की मनुष्य के मन में कोई इच्छा नहीं रह जाती। इसमें तुच्छ इच्छाओं का परित्याग और श्रेष्ठ विचारों की प्राप्ति की प्रक्रिया साथ-साथ घटित होती है। ऐसी प्रणाली के बिना, केवल निषेधात्मक निर्देश देने वाले नैतिक विधि-नियम हमारे लिये किसी काम के नहीं होते।

“समस्त गोचर अभिव्यक्तियों के पीछे शक्ति का महासागर, अनंत ईश्वर ही है। सांसारिक कार्यों के प्रति हमारी आतुरता हमारे श्रद्धायुक्त विस्मय भाव को नष्ट कर देती है। आधुनिक विज्ञान हमें प्रकृति की शक्तियों का उपयोग कैसे किया जाता है यह सिखाता है, इसलिये समस्त नाम-रूपों में निहित महाप्राण शक्ति को हम समझ नहीं पाते। प्रकृति के साथ घनिष्ठता के कारण उसके चरम रहस्यों के प्रति हमारे मन में आदर समाप्त हो गया और उसके साथ हमारे सम्बन्ध ने व्यावहारिक व्यवसाय का रूप ले लिया। एक प्रकार से कहा जाय तो हम उसके साथ छेड़खानी करते रहते हैं ताकि हमें पता चले कि किस-किस प्रकार से उसे हमारे उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विवश किया जा सकता है। हम उसकी शक्तियों का उपभोग तो करते हैं, पर अभी तक हमें उन शक्तियों के स्रोत के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। विज्ञान के मार्ग में प्रकृति के साथ हमारा सम्बन्ध ऐसा है जैसा एक दास के साथ उसके अहंकारी, हेकड़ मालिक का होता है, या दार्शनिक दृष्टिकोण से कहें तो प्रकृति को मानों बन्दी बनाकर साक्षी के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। हम उससे प्रतिप्रश्न करते हैं, उसे चुनौति देते हैं और उसकी साक्ष्य को बारीकी से मानवीय तराजुओं में तोलते हैं, जो उसके छिपे मूल्यों को कभी नाप नहीं सकते।

"दूसरी ओर, आत्मा जब उच्चतर शक्ति के साथ एकाकार हो जाती है, तब प्रकृति बिना किसी ज़ोर-जबरदस्ती के मनुष्य की इच्छा का पालन करती है प्रकृति पर इस अनायास प्रभुत्व को अबोध भौतिकवादी 'चमत्कार' कहते हैं।


“लाहिड़ी महाशय के जीवन ने एक उदाहरण स्थापित कर दिया, जिससे यह गलत धारणा दूर हो गयी कि योग एक गूढ़ साधना है। भौतिक विज्ञान की यथार्थता के बावजूद प्रत्येक मनुष्य को क्रियायोग के माध्यम से प्रकृति के साथ अपने सच्चे सम्बन्ध को समझने का और प्रकृति की समस्त घटनाओं के प्रति आध्यात्मिक आदर एवं श्रद्धा अनुभव करने का कोई न कोई तरीका मिल ही सकता है, चाहे वे घटनाएँ गूढ़ प्रतीत होने वाली हों या दैनन्दिन जीवन की साधारण घटनाएँ हों। हमें यह याद रखना चाहिये कि आज से हजार वर्ष पूर्व जो गूढ़ लगता था, वह अब गूढ़ नहीं रहा, और आज जो कुछ गूढ़ लग रहा हो वह कुछ ही वर्षों में आसानी से समझने वाला तथ्य बन सकता है।

"क्रिया योग का विज्ञान शाश्वत है। यह गणित के समान सत्य है; संख्याओं को जोड़ने और घटाने के सीधे-सादे नियमों की तरह ही क्रियायोग का नियम भी कभी नष्ट नहीं हो सकता। भले ही गणित की सारी पुस्तकों को जलाकर राख कर दिया जाय; तर्कबुद्धि से युक्त लोग तब भी गणित के सारे सत्यों को फिर से खोज निकालेंगे। इसी तरह योग की भी सारी पुस्तकों को दबा दिया जाय, तब भी जब शुद्ध भक्ति और उस भक्ति से उत्पन्न होने वाले शुद्ध ज्ञान से युक्त कोई महात्मा आयेगा, तब योग के सारे मूलभूत तत्त्व उसके सामने अपने आप प्रकट हो जायेंगे।"

जिस प्रकार बाबाजी "महावतार" या सबसे महान अवतारों में हैं और श्रीयुक्तेश्वरजी को "ज्ञानावतार" कहना सार्थक होगा, उसी प्रकार लाहिड़ी महाशय "योगावतार" थे।

गुणवत्ता और परिमाण, दोनों ही मापदण्डों से इस महान गुरु ने समाज के आध्यात्मिक स्तर को उन्नत किया। अपने अन्तरंग शिष्यों को ईसा मसीह के समान उच्च अवस्था में पहुँचा देने की शक्ति और जनसाधारण में व्यापक स्तर पर उनके द्वारा दिये गये सत्य के ज्ञान से लाहिड़ी महाशय की गणना मानवजाति के उद्धारकों में होती है।


गुरु के रूप में उनकी अपूर्व विशिष्टता यह है कि उन्होंने एक निश्चित प्रणाली क्रियायोग पर व्यवहारिक जोर देते हुए प्रथम बार सभी मनुष्यों के लिये योग साधना का द्वार खोल दिया। उनके अपने जीवन के असंख्य चमत्कारों के अतिरिक्त, योग मार्ग की प्राचीन जटिलताओं को सर्वसामान्य लोगों की समझ में आसानी से आने लायक प्रभावशाली सरल रूप देकर योगावतार ने सब प्रकार के चमत्कारों की पराकाष्ठा कर दी।

चमत्कारों के विषय में लाहिड़ी महाशय प्रायः कहा करते थे "सामान्य जन के लिये अज्ञात (चमत्कारों के) सूक्ष्म नियमों के परिचालन की पात्र-अपात्र का सारासार विचार किये बिना सार्वजनिक चर्चा नहीं करना चाहिये, न ही उन्हें छाप कर प्रकाशित करना चाहिये।" यदि इन पन्नों में कहीं मैं उनकी इस चेतावनी का उल्लंघन करता प्रतीत हो रहा हूँ, तो उसका कारण यह है कि उन्होंने मुझे इसके बारे में आंतरिक आश्वासन दिया है। परन्तु फिर भी बाबाजी, लाहिड़ी महाशय और श्रीयुक्तेश्वरजी के जीवन के विषय में लिखते हुए मैंने कुछ चमत्कारों की कहानियों को न लिखना ही उचित समझकर उन्हें छोड़ दिया है। गूढ़ और समझने में अत्यंत कठिन तत्त्वों पर स्पष्टीकरणों का एक पूरा ग्रंथ ही लिखे बिना उन कहानियों को मैं इस पुस्तक में डाल भी नहीं सकता था।

लाहिड़ी महाशय स्वयं एक गृहस्थ-योगी थे और उन्होंने जो संदेश इस संसार को दिया है, वह आज के संसार की आवश्यकताओं के अनुरूप ही है। प्राचीन भारत की उच्च कोटि की आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियाँ अब नहीं रहीं। इसलिये भिक्षापात्र लिये भ्रमण करते रहनेवाले योगी के प्राचीन आदर्श को उन्होंने प्रोत्साहन नहीं दिया, बल्कि उन्होंने इस बात को अधिक लाभदायक बताते हुए उसी पर जोर दिया कि योगी को अपनी आजीविका का स्वयं उपार्जन करना चाहिये, उसे पहले ही भार के नीचे दबे समाज पर अपने पोषण का और बोझ नहीं डालना चाहिये तथा अपने घर के एकांत में ही उसे योग साधना करनी चाहिये। इस उपदेश में उन्होंने स्वयं अपना ही ज्वलंत उदाहरण जोड़कर उसे और भी अधिक बल प्रदान किया। वे एक ऐसे आदर्श आधुनिक योगी थे जिन्होंने आधुनिक समय की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए अनन्त की साधना के महत्त्वहीन अंगों को स्वयं ही तिलांजलि दे दी थी। बाबाजी ने ही उनके जीवन के तरीके की योजना बनायी थी जो कि विश्व के सब भागों में रहने वाले योगसाधनाकांक्षियों को मार्ग दिखाने के लिये ही बनी थी।

नये मनुष्यों के लिये नयी आशा! योगावतार ने घोषणा कर दी थी: “ईश्वर साक्षात्कार आत्मप्रयास से संभव है, किसी धार्मिक विश्वास या किसी ब्रह्माण्ड नायक की मनमानी इच्छा अनिच्छा पर निर्भर नहीं है।”

जो लोग किसी भी मनुष्य के देवत्व पर विश्वास नहीं कर सकते, वे क्रिया की कुंजी को प्रयुक्त कर अंततः स्वयं अपने में पूर्ण देवत्व का दर्शन करेंगे।