अपना आकाश - 28 - हम तो अभी डकैत है माँ जी Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपना आकाश - 28 - हम तो अभी डकैत है माँ जी

अनुच्छेद- 28
‌ ‌ हम तो अभी डकैत है माँ जी

हठीपुरवा के किनारे एक छतनार पाकड़ का पेड़ । उसकी छायामें बैठना सुखद। आज पाँच बजे सायं अंगद ने एक बैठक बुलाई है गाँव के विकास के सम्बन्ध में विचार के लिए। अंजली-वत्सला ही नहीं, इसमें कान्तिभाई भी आमंत्रित हैं। पांच बजते बजते कान्तिभाई साइकिल चलाकर तथा अंजली और वत्सला रिक्शे से गाँव पहुँच गए। अंगद ने पाकड़ के नीचे दरी बिछा रखी है। अंजली का कुछ ऐसा आकर्षण है कि उनका रिक्शा दिखते ही पुरवे के नर-नारी उनका स्वागत करने के लिए चल पड़ते हैं। अंजली का रिक्शा पेड़ के निकट पहुँचा । नारियाँ आंचल का खूँट पकड़कर अंजली का चरण स्पर्श करने लगीं। तन्नी, उसकी माँ तथा भाई वीरू ने भी आकर मत्था टेका। अंजली गद्गद् । वत्सला भी नर-नारियों के स्नेह से अभिभूत । कान्तिभाई ने अपनी साइकिल खड़ी की। अंजली और वत्सला के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। जब तक अंगद आकर उनका परिचय कराएँ, वे स्वयं बोल पड़े 'मुझे कान्तिलाल कहते हैं। मानवाधिकार संगठन का एक छोटा सा कार्यकर्ता हूँ।' 'बड़ी खुशी हुई मिलकर।' माँ अंजली और वत्सला ने भी हाथ जोड़ लिया। 'जो अपने को छोटा कहते हैं, वही महान काम करते हैं।'
'नहीं, नहीं महानता से मैं अपने को नहीं जोड़ता ।' कान्तिभाई कुछ सकुचाते मुस्कराते रहे।
'यही शिष्टाचार है भाई साहब,' माँ जी कहाँ रुकने वाली थीं। 'आप बहुत ऊँचा सोचती है माँ जी', कहते हुए कान्तिलाल सहित सभी दरी पर जाकर बैठ गए। बच्चे दौड़कर गुड़ बताशा सामने रखते । पानी पिलाते। यह ऐसी बैठक थी जिसमें शासन का कोई प्रतिनिधि नहीं। प्रधान इस पुरवे से असंतुष्ट थे ही। इक्यावन घरों में से सभी का कोई न कोई प्रतिनिधि उपस्थित था । नन्दू, हरवंश, रामदयाल भी आ रामजुहार कर बैठ गए। माँ अंजली की अध्यक्षता में बैठक शुरू हुई।
नन्दू ने कहा, 'माँ जी, हम लोग चाहते हैं कि गाँव के लोगों को बाहर न भागना पड़े। यहीं कुछ किया जाए। कौन सा काम किया जाए जिससे पुरवे के सभी लोगों का विकास हो सके? हम लोग इसी बात पर विचार करने के लिए आज यहाँ बैठक कर रहे हैं। खेती थोड़ी है उससे रोटी चाहे मिल जाए पर अन्य खर्चे कैसे चलें? यही बड़ा प्रश्न है। इसीलिए अतिरिक्त कमाई के लिए कोई ठोस कार्य करना चाहते हैं। राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना शुरू हुई है पर उसमें एक तो सालभर काम नहीं है दूसरे सभी लोग उस तरह का काम करने में सक्षम नहीं हैं। हमारे पुरवे में किसी ने जाबकार्ड नहीं बनवाया है पर औरों से यह बात मालूम हुई है कि मजदूरी का कुछ हिस्सा और लोगों की जेब में भी जाता है। हम लोग सोचते हैं कोई ऐसा काम हो जिसमें सभी परिवारों को लाभ मिले।'
'बात तो बहुत अच्छी है', माँ जी बोल पड़ीं। कान्तिभाई ने भी समर्थन किया। 'पहले यह तय कर लो कि ईमानदारी से कमाना चाहते हो या बेईमानी से ।' माँ जी कहकर मुस्करा पड़ीं। 'हम लोग समझ नहीं पाए, माँ जी, राम दयाल ने अपनी बात रखी।
माँ जी हंस पड़ीं। 'इतनी सीधी बात समझ में क्यों नहीं आ रही, रामदयाल जी?" कमान माँ जी के हाथ में 'भाई लोग, आप मिलकर काम करना चाहते हैं। इक्यावन परिवार हैं। सबको काम चाहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि कोई सामूहिक प्रयत्न किया जाए। सामूहिक काम में बेईमानी नहीं चल सकती। एक पैसे की भी बेईमानी नहीं। इसीलिए मैं कहती हूँ कि पहले यह तय कर लो कि ईमानदारी से कमाना चाहते हो या नहीं। अगर ज़रा भी बेईमानी से कमाने की इच्छा हो तो सामूहिक काम की बात छोड़ो।' बात लोगों की समझ में आने लगी। अंगद ने खड़े होकर पूछा, 'भाई लोगो, माताओं, बहनों सोच लो । माँ जी पूछती हैं- ईमानदारी से कमाओगे या बेईमानी से ।' 'हमें ईमानदारी से ही कमाना चाहिए।' तन्नी बोल पड़ी। तन्नी के कहते ही सभी बोल पड़े, 'ईमानदारी की रोटी चाहिए।'
'तब ठीक है । अब सामूहिक काम की बात करो।' माँ जी के तेवर और उनकी समझ से कान्तिभाई लहालोट । 'यही है सामाजिक कार्यकर्त्ता का असली तेवर', वे माँ जी के चेहरे को निहारते रहे। 'क्या किसी काम के बारे में सोचा है अंगद जी आपने?' माँ जी ने ऐनक को साफ करते हुए पूछा 'माँ जी, अंगद चाचा चंडीगढ़ में डेयरी में काम कर चुके हैं। उनके पास अनुभव है। उनके अनुभव का लाभ लेते हुए हम लोग सामूहिक डेयरी का काम शुरू करें।' नन्दू ने प्रस्ताव किया । 'प्रस्ताव तो उत्तम है। दूध की खपत है पर जोखिम भी है। यों तो दुध हा गाँव गाँव फैले हैं। आपको कुछ विशेष करना होगा।' माँ जी की बात को लोगों ने समझने का प्रयास किया। 'माँ जी जो बात कह रही हैं उसे समझने की कोशिश करो।' कान्तिभाई तर्जनी से नाक सहलाते हुए बोल पड़े।
'हमने कुछ बातें सोचा है माँ जी । इक्यावन घर हैं पुरवे में। सभी को सदस्य बनाया जाय। सैंतीस घरों में दूध के जानवर हैं। नौ परिवारों में (गाभिन होने के लिए तैयार ) कलोर और ओसर हैं। साल भर बाद वे दूध देने लायक हो जायँगी। पाँच घरों में अभी कोई जानवर नहीं है। धीरे-धीरे उनके लिए भी कलोर का प्रबन्ध किया जायगा।' अंगद ने खाका रखा। 'दूध' को इकट्ठा किया जायगा और शहर में बेचने का प्रयास होगा।' नन्दू ने जोड़ा। 'इसमें केवल दूध इकट्ठा कर बेचना ही नहीं होगा। जानवरों की अच्छी परवरिश भी करनी होगी। इसके लिए सभी को बताना होगा। चारा और खली-दाना का प्रबन्ध करना होगा। महीने में एक बार, डाक्टर को बुलाकर जानवरों को दिखाया जायगा।' अंगद अपनी कापी हाथ में लिए बताते रहे ।
'बात तो तुम लोगों की ठीक है। दूध खराब न हो, शुद्ध हो, समय से बिक जाए, इसका प्रयास करना होगा। यहाँ उपस्थित सभी लोगों से यह कहना चाहूँगी कि दूध में एक बूँद भी पानी न डालो। तुम्हारी गाय-भैंस के थन को कुछ न होगा। यह भ्रम है कि दूध में पानी नहीं डाला जाएगा तो थन फट जाएगा'
'माँ जी ठीक कहती है' कान्तिभाई ने भी समर्थन किया।
'सभी घरों से सदस्यता शुल्क लेकर 5100 रुपया जमा किया गया है माँ जी।' नन्दू ने बात आगे बढ़ाई अंगद चाचा को अध्यक्ष और तन्नी को मंत्री बनाया गया है।
'और तुम?" माँ जी ने पूछा ।
'हम तो अभी डकैत हैं माँ जी।' नन्दू के कहते सभी हँस पड़े।
'क्या सदस्यता शुल्क से काम प्रारम्भ हो सकेगा? माँ जी ने अंगद की ओर देखते हुए पूछा। 'कोशिश की जाएगी माँ जी।' अंगद ने कुछ सोचते हुए कहा ।
'कुछ बड़े बर्तन भी खरीदनें होंगे। दूध को पैक करने के लिए भी मजबूत बोतलें या डिब्बे खरीदनें होंगे। पाँच हजार में मुश्किल पड़ेगी। मैं चाहती हूँ कि शुरुआत ठीक ढंग से हो। जितना तुम लोगों ने सदस्यता से इकट्ठा किया उतना ही मुझसे भी ले लो।' कान्तिभाई के साथ सभी की तालियाँ बज उठीं। पर अंगद कुछ संकोच में। मुँह से निकला, 'माँ जी ।' 'इसमें संकोच क्यों कर रहे हो अंगद भाई । मैं सामाजिक कार्यकर्त्ता रही हूँ । वत्सला के पिता समाज के लिए आजीवन दौड़ते रहे। मैं पेंशन पाती हूँ। उसमें से इतना निकाल देना मेरे लिए कठिन नहीं है। यह पुरवा अपने पैर पर खड़ा होकर एक विकल्प प्रस्तुत करेगा कान्तिभाई।' 'अवश्य, अवश्य।' कान्तिभाई ने भी इसे एक सार्थक पहल स्वीकार किया। सभी के चेहरे पर प्रसन्नता का भाव उभरा। माँ जी और वत्सला गद्गद् । 'डेयरी का नाम आपके नाम पर कर दिया जाय माँ जी।' अंगद और तन्नी परामर्श करते बोल पड़े। 'राम राम! कभी सोचो भी नहीं । वत्सला के पिता को मैं क्या उत्तर दूँगी ? हम लोग अपने लिए नहीं सबके लिए कुछ करते हैं। यही सीखा है हमने कोई और नाम सोचो।' माँ जी जैसे कोई मार्गदर्शी सिद्धान्त स्थिर कर रही हों। मैं सुझाव दूँ, अंगद भाई।' कान्तिभाई कसमसा उठे ।
'जरूर-ज़रूर आप बताइए।' सभी बोल पड़े।
"माँ जी ने अभी कहा है कि यह पुरवा एक विकल्प प्रस्तुत करेगा। क्यों न डेयरी का नाम 'विकल्प' ही रखा जाय?"
"बहुत सही सुझाव है आपका।' अधिकांश लोग बोल पड़े। पुनः तालियाँ बज उठीं।
'हम लोगों की योजना है कि पहली तारीख से दूध का काम शुरू किया जाए। अभी दस दिन का समय है। इसी में सभी व्यवस्था कर ली जायगी।' अंगद भाई बताते रहे। तन्नी और नन्दू एक थाली बताशा लिए सबके आगे करते । एक बताशा उठा लोग खाते, पानी पीते ।
तन्नी माँ जी के पास पहुँच गई। माँ जी, वत्सला तथा कान्तिभाई ने एक एक बताशा लिया।
बैठक समाप्त हुई। सभी माँ जी को भेजकर ही घर जाना चाहते हैं । माँ जी वत्सला के साथ रिक्शे पर बैठते हुए बोल पड़ीं, 'अंगद भाई कल आकर मुझसे रुपये ले लेना ।' पुरुषों महिलाओं में माँ जी को प्रणाम करने की होड़ । रिक्शा रेंग चला।
कान्तिभाई भी साइकिल पर बैठ, राम राम का उत्तर देते चल पड़े।