अपना आकाश - 26 - उम्मीद की किरण Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपना आकाश - 26 - उम्मीद की किरण

अनुच्छेद- 26
उम्मीद की किरण

जेठ के दिन। दिन में झुलसाने वाली लू । उत्तर भारत में कितने ही असहाय लू की चपेट में परलोक सिधार जाते हैं। शाम को पछुआ धीमी हुई। चाँद निकला तो कुछ शीतलता का आभास होने लगा। लोग कमीज़, बनियाइन उतार कर गाँव के बाहर बैठते जिससे हवा शरीर में लगे। नन्दू और अंगद ने गाँव में ही कुछ करने की बात क्या चलाई, नर-नारी सभी में उत्साह की एक लहर सी पैदा हो गई। बालिग होते ही लोग बाहर भागते हैं। अब अगर गाँव में ही कुछ काम का जुगाड़ हो सके तो कितना अच्छा होगा। स्त्रियाँ विशेष प्रफुल्लित थीं। थोड़ी मेहनत करके वे भी कुछ कमा सकेंगी।
केन्द्र सरकार की पहल पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना शुरू हुई पर इसमें केवल शरीर से अधिक मजबूत लोग ही काम पाने की आशा कर सकते थे। अधिकतर मिट्टी खुदाई, सड़क पटाई का ही काम मेहनत अधिक और मजदूरी मिलने में भी सौ बाधाएँ। इस पुरवे ने जीते हुए प्रधान को वोट नहीं दिया था। प्रधान से अधिक अपेक्षाएँ नहीं पालते एक बार उन्होंने कहा भी, वोट तो दिया नहीं अब दौड़कर क्यों आते हो? किसी ने जाबकार्ड के लिए आवेदन ही नहीं किया।
नन्दू और अंगद जहाँ कहीं दिखते, लोग यही पूछते भैया क्या सोच रहे हो ? आज दोनों गाँव के बाहर आकर बैठे ही थे कि राम दयाल आ गए। बताया, 'कोतवाल साहब तो गए।'
'कहाँ गए ?' अंगद ने पूछा।
'उनकी बदली हो गई। मैं आज शहर गया था, वहीं पता चला। जिले से बाहर कहीं हुई है।' 'बहुत अच्छा हुआ। कोतवाल साहब ज्यादा दिन रह जाते तो कोई न कोई संकट खड़ा ही करते रहते।' अंगद का चेहरा प्रसन्नता से दीप्त हो उठा। नन्दू सोचने लगे क्या हम लोगों के प्रार्थना पत्र पर यह कार्यवाही हुई या कोई और कारण.....। पता करना चाहिए। कान्ती भाई को मालूम होगा। उनसे मिलकर जानकारी करने की ज़रूरत है।
'कल कान्तिभाई से मिलना है।' नन्दू ने कहा । 'उनसे मिलना है ही । बृजलाल ने मंगल भाई के बारे में जो सूचना दी है, उसके आधार पर क्या हम लोग कुछ कर सकते हैं?' 'अब समझ में आया कि कोतवाल साहब मंगल भाई की लाश की जलवाने में क्यों रुचि ले रहे थे। रामदयाल ने टिप्पणी की।
'मुझे तो तभी शक था काका । पर उस समय किसी ने मेरी बात नहीं सुनी।' नन्दू का दर्द निकल रहा था ।
'तुम सही कहते हो नन्दू । हम लोग कोतवाल साहब के कहने में आ गए।'
राम दयाल भी दुखी हुए।
'यही होता ही है काका । सही समय पर हम कोई कदम नहीं उठा पाते ।' नन्दू की बात पर अंगद बोल पड़े, 'जो हो गया उस पर पछताने से क्या होगा? हम आगे सतर्क रहें, यही ज्यादा ज़रूरी है।'
'यह छोटा पुरवा है भाई अंगद । रोटी-पानी का जुगाड़ करने में ही जिन्दगी खप जाती है। मैं ही तुम लोगों के साथ कहाँ बैठ पाता हूँ? मंगल भाई के साथ रहकर पढ़ना लिखना कुछ हो जाता था पर अब....।'
रामदयाल ने कहते हुए जॅंभाई ली । 'यही सब तो पुरवे में करना है राम दयाल भाई लोग कुछ कमा सकें और आगे बढ़ने के बारे में सोच सकें।'
'तू तो चंडीगढ़ की राह पकड़ोगे पुरवा जहाँ है, वहीं रह जायगा । अकेले नन्दू क्या करेंगे?"
'नहीं भैया । मैं अब चंड़ीगढ़ जाने के बारे में नहीं सोचता।'
'तब ठीक है। यहाँ रहिहो तबै कुछ काम बनी । नन्दू भैया, पीठ खुजात है।'
'मैं खुजला देता हूँ काका ।' नन्दू राम दयाल की पीठ खुजलाने लगे ।
'धीरे-धीरे भैया ।' नन्दू के ताकत लगा देने से रामदयाल चिहुँक उठे । नन्दू ढीले हाथों से पीठ खुजलाते रहे।
'कल कब चला जाएगा?' अंगद ने नन्दू से पूछा।
'काका दुपहर बाद चलो । तब तक कुछ घर का काम भी कर लिया जायगा ।' 'ठीक है।' कहकर अंगद उठे, उन्हीं के साथ राम दयाल और नन्दू भी । धीरे-धीरे दिन की गर्मी का असर कम होता जा रहा था। तीनों अपने अपने घरों की ओर चल पड़े।
सायं पाँच बजे कान्ति भाई अपने बरामदे में बैठे चिट्ठी लिख रहे थे । अंगद और नन्दू अपनी साइकिलों से उतरे । प्रणाम किया।
'आओ भाई।' कान्तिलाल प्रसन्न हो उठे। 'बैठो मैं ज़रा इस चिट्ठी पर पता लिख दूँ।' दोनों पास की कुर्सी पर बैठ गए। कान्ति ने पता लिखा । आश्वस्त हो बैठ गए।
'कहो कैसे आना हुआ? पुरवे में कुशल तो है ।'
'पुरवा अपनी जगह पर है। कुशल ही कहना चाहिए।' अंगद ने उत्तर दिया ।
'बाबू जी, क्या कोतवाल साहब की बदली हो गई है?" नन्दू ने पूछा।
'हाँ, बदली हो गई है। वे यहाँ से चन्दौली चले गए हैं।'
'क्या हम लोगों के प्रार्थना पत्र पर यह कार्यवाही हुई है?"
'नहीं नन्दू, तू बहुत भोला है। ऐसे प्रार्थना पत्र रोज आते हैं और एक प्रक्रिया के तहत जाँच और निस्तारण होता रहता है। सरकार नक्सल प्रभावित जिलों में कुछ तेज अधिकारियों की नियुक्ति कर रही है। इसी में वे यहाँ से चन्दौली भेज दिए गए।'
'क्या हम लोगों के प्रार्थना-पत्र पर कोई कार्यवाही नहीं होगी बाबू जी ?”
'होगी क्यों नहीं। कहना चाहिए हो रही होगी। अगर सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगों तो उत्तर मिलेगा- जाँच चल रही है। प्रकरण निस्तारित होते ही सूचना भेज दी जायगी। एक नहीं दर्जनों प्रकरणों में मैं यह देखता रहता 'तो क्या कुछ नहीं होगा बाबू जी ?" नन्दू का आहत मन चुप न रह सका।
'निराश होने की ज़रूरत नहीं है। इन प्रार्थना-पत्रों के निस्तारण में विलम्ब हो सकता है। प्रायः होता ही है। अँधेरा कटेगा।' कान्ति लाल समझाते रहे ।
'कहो तो एक स्मरण पत्र भेज दिया जाए।'
'इससे क्या होगा बाबू जी ?' नन्दू ने पूछा।
'इससे फाइल देखी जायगी। कार्यवाही कुछ गति पकड़ेगी ।'
'एक बात का पता और चला है बाबू जी ।' अंगद बोल पड़े। "क्या?"
'बाबू जी, नागेश लाल के यहाँ दूकान पर एक आदमी काम करता था बृजलाल । उसने अब नौकरी छोड़ दी है। मुझे बाज़ार में मिला था । उसने बताया कि मंगल भाई को दरोगा जी अपनी बुलेट पर पीछे बिठाकर थाने ले गए थे।'
'और तड़के वे मरे पाए गए। हम और नन्दू तो तभी शक कर रहे थे। क्यों नन्दू?' 'हाँ बाबूजी ।' नन्दू ने उत्तर दिया ।
'इसका मतलब तो यह हुआ बाबू जी कि पुलिस थाने में ही मंगल भाई को तंग किया गया और उनकी लाश को रास्ते में बरामद दिखाया गया। अंगद ने कहा । 'आप मौके पर थे नहीं। हम और नन्दू यही सोच रहे थे । इसीलिए पुलिस अधीक्षक से मिलकर आवेदन दिया पर तब तक लाश जलवा दी गई और हम लोग कुछ नहीं कर सके।' कान्तिभाई बताते रहे ।
'क्या अब कुछ हो सकता है बाबू जी? हमें एक सबूत मिल गया है। नन्दू ने जिज्ञासा प्रकट की।
"क्या वह आदमी शपथ पत्र देने के लिए तैयार होगा ?"
"उसने वादा किया है बाबू जी ।' अंगद ने बताया । 'यदि वह शपथ पत्र दे कि मेरे सामने दरोगा जी मंगल को अपनी बुलेट पर बिठा कर ले गए और तड़के वे मरे पाए गये तो कार्यवाही को आगे बढ़ाया जा सकता है।' कान्ति भाई ने कलम को उठाकर किनारे रखा।
'बृजलाल शपथ-पत्र देने के लिए तैयार हो जाएँगे बाबू जी ।' अंगद आश्वस्त थे ।
'तो ठीक है, उन्हें कचहरी में लाकर शपथ पत्र बनवा लो। हम रहेंगे मजमून बनवा देंगे। फिर प्रार्थना पत्र के साथ शपथ पत्र नत्थी कर मामले को आगे बढ़ाया जायगा। उम्मीद है सुनवाई होगी। मानवाधिकार आयोग को लिखा जाएगा। वह ज़रूर सक्रिय होगा।' कान्तिभाई को उम्मीद की एक किरन दिखी । 'ठीक है बाबू जी । आप सोच विचार कर लो। हम बृजलाल को लेकर आएँगे । आपके सामने ही शपथ पत्र बनवाया जायगा। अंगद ने आश्वस्त किया।
अंगद और नन्दू दोनों उठे । कान्तिभाई भी उठ पड़े । द्वार तक तीनों साथ साथ चले। द्वार के बाहर होते ही नन्दू और अंगद ने कान्तिभाई को प्रणाम किया। उन्होंने भी हाथ जोड़ लिया।
लौटते हुए कान्तिभाई गुनगुनाने लगे। उनका दिमाग दौड़ने लगा । यदि हम लोग अदालत में सिद्ध कर ले गए तो कोतवाल की कचूमर निकल आएगी। बच्चू को नानी याद आ जाएगी। पता चल जाएगा कि किसी आदमी से पाला पड़ा है। शायद जिन्दगीभर फिर कभी वे कोई कहानी गढ़ने का प्रयास न करें। उन्नीस सौ सत्तर- अस्सी का दशक होता हो अनशन-आन्दोलन से कचहरी पट जाती । एक ध्रुवीयता, वैश्वीकरण के इस दौर में आन्दोलन खड़ा करना कितना मुश्किल हो गया है? सरकारें लोक कल्याणकारी दायित्वों से हटना चाह रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य सभी निजी संस्थाओं के हवाले। सार्वजनिक संस्थानों को बेचा जा रहा है। सब कुछ निजी हाथों में बहुराष्ट्रीय उद्यमों का ही राज चलेगा क्या ? ओ जन! तुम्हारा क्या होगा?....... तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना होगा । उंगली पकड़ चलने से कितनी दूर की यात्रा हो सकेगी ?
वे आकर बरामदे की अपनी कुर्सी पर बैठ गए। यदि बृजलाल शपथ-पत्र दे देगा तो इस मुकदमें को लड़ा जाएगा। पुरवे के लोगों के पास अधिक पैसा नहीं तो क्या हुआ ? माँग- जाँच कर खर्च पूरा किया जाएगा। एक उत्तम समाज की निर्मिति के लिए सार्थक प्रयत्न ही नहीं, दृष्टि भी रखनी होगी ।
आज़ादी के बाद की 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' और 'समाजवादी प्रारूप के प्रत्यय धूल चाट रहे हैं। पूँजी और तकनीक के अबाध आवागमन के लिए उदारीकरण के राजमार्ग पर चल पड़े हैं लोग । पर श्रमिकों की आवाजाही पर प्रतिबन्ध और कड़े किए जा रहे हैं। पेटेन्ट कानूनों से फायदा कौन उठा रहा है ? वंचितों को कब मिलेगा अपना वाजिब हक?
सरकारें बहुराष्ट्रीय उद्यमों से भीख माँगने लगी हैं। पिछले दस पन्द्रह वर्षों से नियोजन की दिशा ही बदल गई है। किसान आत्महत्या कर लेता है तो सरकार कुछ चारा डाल देती है । उसमें भी बावन दलाल । फेंका हुआ चारा नहीं, हक चाहिए। गाँव के लोगों.... छोटे छोटे पुरवों का भविष्य क्या है? क्या बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खेतिहर बन जाएँगी? किसान के बेटे मजदूरी करेंगे? समानता का प्रत्यय समदृष्टि में बदल गया। उत्तरजीविता, असमानता ही मार्गदर्शी सिद्धान्त बनता जा रहा है। कमजोरों की गरिमा कैसे बचेगी? मानवाधिकार की दुहाई देने से ही व्यक्ति की गरिमा कब बच सकी है ? उत्तर फोर्डवाद आर्थिक मंदी से जूझ रहा है। सरकारें हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य हुईं। क्या यह बाज़ार के अर्थ शास्त्र पर प्रश्न चिह्न नहीं है ? भारत में आर्थिक संकट का प्रभाव कम पड़ा केवल इसलिए कि यहाँ सार्वजनिक क्षेत्र अभी निष्प्राण नहीं हुआ है। पश्चिम के पीछे भागों नहीं, विकल्प बनाओ। नव जवान भीख नहीं, काम चाहता है। तुम कहते हो हमें सक्षम, कुशल व्यक्ति चाहिए । तुम तो अक्षम हो। पर अक्षम किसने बनाया इन्हें? क्या तुमने नहीं बनाया? बहुत आसान होता है नव जवानों को अस्वीकार कर देना। बहुत कठिन होता है उन्हें सक्षम, कुशल बनाकर खड़ा कर देना । तुमने अपना दायित्व जो नहीं निभाया, नव जवानों को उसी की सज़ा देना चाहते हो। कितना जरूरी हो गया है सही ढांचे का विकल्प । ठोस कदम....। कामयाबी एक दिन में तो नहीं मिलेगी पर……… । कान्ति भाई विचारों के समुद्र में गोते लगा रहे थे कि पत्नी शची की आवाज़ आई, 'खाना तैयार है ।'
कान्तिभाई उठे। हाथ मुँह धोया और पीढ़े पर जा बैठे। इस इक्कीसवीं सदी में भी कान्तिभाई को पीढ़े पर बैठकर खाने में आनन्द आता है। प्रकृति ने पत्नी की गोद सूनी रखी। कान्तिभाई ने दुनिया भर के बच्चों को अपना बच्चा मान लिया । पत्नी कभी कोख के बच्चे के लिए अहकती तो उन्हें भी समझाते । अब तो दोनों पचास पार कर चुके हैं। पत्नी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाती हैं। स्वयं जीवन बीमा निगम के अभिकर्ता हैं। गाड़ी खिंचने में कोई दिक्कत नहीं आती। अपनी अपेक्षाएँ भी वे सीमित रखते हैं । कान्तिभाई मानवाधिकार संगठन से जुड़े हैं। जनपदीय सचिव हैं। जनहित का काम उन्हें अपना काम लगता है। इसीलिए पाँव में शनिश्चर का वास । निराशा और थकान का कहीं नाम नहीं ।
खाना खाते हुए भी कान्तिभाई का दिमाग चल रहा है। एक ही कौर में चटनी चटकर गए। पत्नी हँस पड़ी कहा, 'खा लो तब सोचो।'
'यह संभव नहीं है', कह कर कान्तिभाई मुस्करा उठे।