प्रेम गली अति साँकरी - 68 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 68

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दिनोंदिन मन की आकांक्षा मुझे उत्पल की ओर खींचती रही और मैं असहज होती रही | बार-बार लग रहा था, अपना मन उसकी ओर से हटा लेना चाहिए लेकिन किसी दिन दिखाई न दे तो बेचैनी से मन घबराने लगे | ये प्यार के अलावा और क्या हो सकता है जो विवश कर देता है | अम्मा-पापा कुछ कहें न कहें, उनकी कातर दृष्टि में मुझे जो असहाय और करुणा दिखाई देती कि लगता, जीवन की हर अमीरी, प्रसिद्धि, सुख-सुविधाएँ होने पर भी वे ताउम्र कितने बेचारा सा महसूस करते रहे हैं और मैं जैसे उनकी अपराधी थी | थी भी, अगर उन्हें मेरी चिंता न होती जो वे दोनों कब के भाई के पास चले गए होते या आते-जाते रहते | या इस अंतिम उम्र के मोड़ पर अपनी मर्ज़ी से तो जीते | 

मोह के धागे नहीं छूटते मनुष्य से, जैसे चातक मुँह बाए आकाश की ओर ताकता है, वैसे ही प्रेमी हर पल अपने दिल की आँखों में आस की बूँद भरे रखता है लेकिन वह टपके किस पर? प्रश्न महत्वपूर्ण था न ! किसी मीठे पल की कल्पना में भीगता रहता है मन, वह सपनों में, जागृति में, अर्ध-जागृति में एक ही ख्याल में डुबकी लगाता रहता है | मज़े की बात यह है कि वह जान भी नहीं पाता कि उसकी आस, विश्वास में परिणित होगी अथवा नहीं ? वह ताउम्र अपने सपनों को साकार करने का प्रयास करता रहता है, बेचैनी से फड़फड़ाता रहता है | 

आजकल भी मैं अपने कमरे की उस खिड़की में ही झाँकते हुए सुबह की कॉफ़ी लेती थी | जगन के जाने और शीला दीदी के परिवार और सबके यहीं शिफ़्ट करने के बाद मेरा सड़क पार देखने का कुछ विशेष औचित्य नहीं रह गया था लेकिन वह खिड़की मेरे जीवन की हर भोर का एक अंग बन चुकी थी जिसे सब लोग ही जानते थे |  इसीलिए महाराज प्रतिदिन सुबह नॉक करके जब मेरा अखबार और कॉफ़ी लाते उस खिड़की वाली मेज़ पर ही रखते थे | वॉशरूम में जाने से पहले मैं अंदर से अपना कमरा खोल जाती थी | कभी आलस्य में उठने का मन नहीं होता तब मुझे उस समय तो उठना ही पड़ता जब महाराज आते | कई बार तो बेचारों को दो/तीन बार भी आना पड़ जाता जिस दिन मेरी रात करवट बदलते हुए बीतती और सुबह न जाने किस समय मेरी आँखों में नींद भर जाती | 

वैसे जब रातों में मैं सो नहीं पाती थी, वे सपनों के कारण नहीं, बेचैनी के कारण ! उत्पल की बातें भीतर से उद्वेलित करतीं और मुझे महसूस होता वह मेरे सामने क्या मेरे पास ही है | उसकी छुअन महसूस करती, उसकी बातों पर बिना बात ही मुस्कुराती और कभी गुनगुनाती भी—‘रंजिश ही सही---’उस मोह से निकलना बहुत जरूरी था | लेकिन कैसे? 

विदेशों में अम्मा के संस्थान बड़ी ख्याति पा रहे थे और मुझसे जो उत्पल ने एक बार ज़िक्र किया था कि अम्मा को शायद जाना ही पड़ेगा | अम्मा को कितने लंबे समय से आमंत्रित किया जा रहा था लेकिन सब तैयारी के बाद भी किसी न किसी कारण अम्मा का जाना स्थगित हो ही रहा था |  अब शीला दीदी, रतनी, दिव्य, डॉली और हाँ उत्पल सब मिलकर संस्थान को इतनी अच्छी तरह संभाल रहे थे, अम्मा का एक बार तो जाना जरूरी ही था | उन्होंने कई कारणों से कितने सम्मान छोड़े थे | वैसे सम्मान की कभी उन्हें कभी कोई लालसा नहीं रही लेकिन सम्मान देने वालों के सम्मान की चिंता करना भी तो एक संवेदनशील व्यक्ति का कर्तव्य होता है न ? 

उस दिन सुबह ही हुई थी कि शीला दीदी ने मेरे कमरे में नॉक किया | हर रोज़ की तरह मैं दरवाज़ा खोलकर फ़्रेश होने गई थी | शीला दीदी मेरे कमरे में आकर खिड़की के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गईं |  जानती थीं मेरा रोज़ाना का कार्यक्रम | 

“अरे ! गुड मॉर्निंग शीला दीदी, आपके दर्शन सुबह-सुबह! ”फ़्रेश होकर बाहर आते ही शीला दीदी को देखकर मैं प्रसन्न हो उठी थी | सच तो यह था कि हम सब ही उन लोगों को देखकर चहक जाते थे | 

“आहा! आज तो आपके हाथ की कॉफ़ी मिल रही है | ” मैंने मेज़ पर दो कॉफ़ी देखकर चहककर कहा | 

“नहीं, मेरे हाथ की कहाँ, बनाई तो महाराज ने ही है]मैंने उनके हाथ से ले ली, बस-–लेकर ही मैं आई हूँ | ”उन्होंने कहा और मग हाथ में उठा लिया | 

तब तक मैं भी चैतन्य हो चुकी थी | उनके सामने बैठकर मैंने भी कॉफ़ी उठा ली और सिप लेते हुए पूछा –

“और बताइए दीदी, कैसी चल रही है जीवन की गाड़ी--? ”मैंने शरारत से अपनी आँखें उनकी ओर मिचमिचा दीं---”

“मुझे आपसे पूछना है, आप एवाइड क्यों कर रही हैं? ”शीला दीदी ने मेरे चेहरे पर आँखें गडा दीं | 

“मेरे पास कुछ नया हो तो बताऊँ—आप भी दीदी---”

“तो क्यों नहीं है? होना चाहिए न ! मैडम भी आपसे बात करना चाह रही थीं। उनको भी नहीं बताया आपने कुछ ! ”उनके स्वर में शिकायत स्पष्ट थी | उनको अधिकार था ऐसे प्रश्न करने का, वे संस्थान का, हमारा भाग थीं न ! 

“क्या बताऊँ दीदी, जब कुछ है ही नहीं—” मैंने आँखें नीची करके कहा | 

“कोई डिसीज़न लीजिए न, सर और मैडम अब रिलैक्स हों तो बाहर जा सकें | ”

“हाँ, अम्मा-पापा जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं क्या? उत्पल एक दिन ऐसे ही बोल तो रहा था | ”हद ही थी न, परिवार की बेटी को दूसरों से अपने माता-पिता के बारे में पूछना पड़ रहा था | 

“हाँ, इस बार तो दिव्य का भी नं आ ही गया ---”शीला दीदी ने खुश होकर बताया | 

“यह तो बड़ी अच्छी बात है, दिव्य अपनी पूरी ऊर्जा से लगा हुआ है अपने संगीत में---”मैंने कहा तो सही लेकिन मेरा मुँह उतर गया था |  संस्थान में होते हुए भी मैं सब सूचनाओं से कितनी दूर होती जा रही थी | गलत था, मुझे अपने संस्थान की बातों से परिचित रहना चाहिए  था |