एक योगी की आत्मकथा - 32 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 32

{ मृतक राम को पुनः जीवन-दान }

" 'अब लाज़ारस नाम का एक व्यक्ति बीमार था... जब ईसा मसीह ने यह सुना, तो उन्होंने कहा, यह बीमारी मृत्यु की नहीं है, परन्तु परमेश्वर की महिमा के लिये है, जिससे परमेश्वर के पुत्र की महिमा हो सके।' "

एक सुहानी सुबह श्रीयुक्तेश्वरजी श्रीरामपुर के अपने आश्रम की बाल्कनी में बैठकर ईसाई धर्मग्रन्थ पर भाष्य कर रहे थे। गुरुदेव के कुछ अन्य शिष्यों के अतिरिक्त मैं भी राँची के अपने छात्रों के एक दल के साथ वहाँ उपस्थित था।

"यहाँ पर ईसामसीह अपने आप को परमेश्वर का पुत्र कह रहे हैं। यद्यपि वे वास्तव में ईश्वर के साथ एकात्म थे, तथापि यहाँ इस बात के उल्लेख का वैयक्तिकता से परे एक गहन अर्थ निहित है," मेरे गुरुदेव समझा रहे थे। “परमेश्वर के पुत्र का अर्थ है मनुष्य में निहित क्राईस्ट या ईश्वरीय चैतन्य कोई भी मर्त्य मानव ईश्वर की महिमा को गौरवान्वित नहीं कर सकता। मनुष्य अपने स्रष्टा का गौरव एक ही तरीके से बढ़ा सकता है, और वह है उसे पाने का प्रयास करके। मनुष्य किसी ऐसे अमूर्त अस्तित्व का गौरव नहीं बढ़ा सकता, जिसे वह जानता ही न हो। सन्तों के मस्तक के चारों ओर जो तेजोमंडल है उनकी ईश्वर के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करने की क्षमता का प्रतीक है।"

श्रीयुक्तेश्वरजी लाजारस के पुनः जी उठने की अद्भुत कथा को आगे पढ़ते गये। जब कहानी समाप्त हुई, तो गुरुदेव लम्बे समय तक मौन रहे, पवित्र पुस्तक उनकी गोद में खुली रखी हुई थी।

"मुझे भी ऐसा ही एक चमत्कार देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।" मेरे गुरु ने आखिर गहरे भक्तिभाव के साथ कहा। "लाहिड़ी महाशय ने मेरे एक मित्र को मर जाने के बाद पुनः जीवित किया था।"

मेरे पास बैठे बच्चे तीव्र जिज्ञासा से मुस्कुरा उठे। मुझमें भी अभी काफी बचपना था केवल तत्त्वज्ञान का आनन्द लेने का ही नहीं, बल्कि विशेषतर कोई भी ऐसी कहानी, जो लाहिड़ी महाशय से संबंधित अद्भुत अनुभवों पर मुझे श्रीयुक्तेश्वरजी से सुनने को मिल सकती थी।

गुरुदेव ने बताना आरम्भ किया: “मेरा मित्र राम और मैं कभी एक-दूसरे के बिना नहीं रहते थे। वह स्वभाव से बड़ा शर्मीला और एकान्तप्रिय था, इसलिये हमारे गुरु लाहिड़ी महाशय के पास केवल मध्यरात्रि और प्रभात के बीच के समय ही जाना पसन्द करता था, जब दिन में आने वाले भक्तों के समान भीड़ नहीं होती थी। उसका घनिष्ठतम मित्र होने के कारण मुझे वह अपने अनेक गहरे. आध्यात्मिक अनुभव बताया करता था। उसकी आदर्श संगत में मुझे प्रेरणा मिलती थी।" मेरे गुरु के चेहरे पर पुरानी स्मृतियों के कोमल भाव छा गये।

गुरुदेव आगे कहते गये: “अचानक राम की एक कड़ी परीक्षा ली गयी। उसे हैजा हो गया। गम्भीर बीमारियों में डॉक्टरों को बुलाने में हमारे गुरु कभी आपत्ति नहीं करते थे, इसलिये दो विशेषज्ञों को बुला लिया गया। रोगी की सेवा करने की हड़बड़ी के बीच मैं मन ही मन गहराई से लाहिड़ी महाशय की प्रार्थना किये जा रहा था। आखिर जल्दी-जल्दी मैं उनके घर गया और रोते-रोते उन्हें सारी कहानी सुना दी।

" 'डॉक्टर राम को देख ही रहे हैं। वह ठीक हो जायेगा।' मेरे गुरुदेव ने प्रसन्न चित्त से मुस्कराते हुए कहा।

“ मैं खुशी-खुशी अपने मित्र की रुग्णशय्या के पास लौट आया। देखा तो वह मरणासन्न था।

" 'यह एक-दो घंटे से अधिक नहीं जी सकता,' एक डॉक्टर ने निराशाजनक हाव-भाव के साथ मुझे बताया फिर से मैं तुरन्त लाहिड़ी महाशय के पास जा पहुँचा।

" 'डॉक्टर लोग अपना काम जानते हैं और उन्हें अपनी जिम्मेदारी का पूरा एहसास है। मुझे पक्का विश्वास है कि राम ठीक हो जायेगा।' गुरुदेव ने आनन्दपूर्वक मेरी बात काट दी।

"जब मैं राम के घर पहुँचा, तो देखा कि दोनों डॉक्टर वहाँ से चले गये थे। उनमें से एक ने मेरे लिये एक चिठ्ठी छोड़ी थी: 'हम जो कुछ कर सकते थे, हमने कर लिया, परन्तु इसके बचने की कोई आशा नहीं है'

“मेरा मित्र सचमुच आखिरी साँसें लेता प्रतीत हो रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि लाहिड़ी महाशय के शब्द असत्य कैसे सिद्ध हो सकते थे, परन्तु राम का बुझता जा रहा जीवनदीप बार-बार मेरे मन में यही विचार ला रहा था: 'अब सब कुछ खत्म हो गया।' इस प्रकार विश्वास और सन्देह के बीच डाँवाडोल मन से मैं यथाशक्ति अपने मित्र की सेवा करता रहा। अचानक चौकस होकर उसने जोर से कहा:

" 'युक्तेश्वर! दौड़कर गुरुदेव के पास जाओ और उन्हें बता दो कि मैं चला गया। मेरी अन्त्येष्टि होने से पहले मेरे शरीर को आशीर्वाद देने के लिये उनसे प्रार्थना करना।' इन शब्दों के साथ ही राम ने गहरा निःश्वास छोड़ा और प्राण त्याग दिये।

"मैं उसकी शय्या के पास बैठा एक घंटे तक रोता रहा। उसे हमेशा ही शान्ति प्रिय रही थी, अब उसे मृत्यु की सम्पूर्ण शान्ति प्राप्त हो गयी थी। इतने में एक अन्य शिष्य वहाँ आ पहुँचा। मैंने उसे अपने लौट आने तक वहीं रुकने के लिये कहा। बेसुध-सा मैं बोझिल कदमों से फिर गुरुदेव के घर की ओर चल पड़ा।

‘‘ ‘अब राम कैसा है ?’ लाहिड़ी महाशय ने मुस्कराते हुए पूछा।

" 'आपको जल्दी ही पता चल जायेगा वह कैसा है, गुरुदेव!' मैंने भावुकता के आवेग में कह दिया। 'कुछ ही घंटों में उसके शव को श्मशान घाट ले जाया जायेगा, तब आप देख ही लेंगे।' मैं फफककर रो पड़ा और वहाँ सबके सामने ही विलाप करने लगा।

" 'युक्तेश्वर! अपने आप को सम्हालो। शान्त हो कर बैठ जाओ और ध्यान करो।' मेरे गुरुदेव समाधि में चले गये। वह दोपहर और पूरी रात अखंड निःस्तब्धता में बीत गयी। मैं आंतरिक शान्ति बनाए रखने का असफल प्रयास करता रहा।

"भोर के समय लाहिड़ी महाशय ने मुझ पर सांत्वनापूर्ण दृष्टि डाली। 'मैं देख रहा हूँ कि तुम अभी भी अशान्त हो। कल ही तुमने मुझे स्पष्ट क्यों नहीं बता दिया कि तुम मुझसे राम के लिये ठोस सहायता चाहते हो किसी दवा के रूप में ?' गुरुदेव ने एक दीये की ओर संकेत किया जिसमें अरंडी का तेल था। 'किसी छोटी-सी शीशी में उस दीये का तेल भर लो और राम के मुँह में उसकी सात बूँदें डालो।'

"मैंने प्रतिवादसूचक स्वर में कहा: 'गुरुदेव! वह कल दोपहर से मृत पड़ा है। अब इस तेल से क्या लाभ ?'

" 'उसकी चिन्ता मत करो, केवल मैं जो कह रहा हूँ, वह करो।' मेरे गुरुदेव का प्रसन्न भाव मेरी समझ में नहीं आ रहा था; मैं अभी तक शोक की भीषण वेदना से व्यथित था। थोड़ा सा तेल निकालकर मैं राम के घर की ओर चल पड़ा।

"मेरे मित्र का मृत शरीर सख्त हो गया था। उसकी भयंकर अवस्था की ओर ध्यान न देते हुए मैंने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से उसके होंठ खोले और बायें हाथ से शीशी के ढक्कन की सहायता से किसी प्रकार बूँद-बूँद तेल उसके पक्के बैठे दाँतों पर डालने लगा। जैसे ही सातवीं बूंद ने उसके ठंडे होठों का स्पर्श किया, राम का शरीर ज़ोर से काँपने लगा। सिर से पाँव तक उसकी सारी माँसपेशियाँ काँपती रही और वह आश्चर्य करता हुआ उठ बैठा।

" ' मैंने प्रखर प्रकाश में लाहिड़ी महाशय को देखा।' वह चीख पड़ा। 'वे सूर्य की भाँति चमक रहे थे। “उठो, निद्रा त्याग दो," उन्होंने मुझे आदेश दिया। “युक्तेश्वर के साथ मुझसे मिलने आओ।” '

“जब मैंने राम को उठकर अपने हाथों से कपड़े पहनते देखा और उस मरणान्तक बीमारी के बाद भी हमारे गुरु के घर की ओर चलने की शक्ति उसमें आ गयी थी, तो मैं अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सका। वहाँ पहुँचकर राम ने लाहिड़ी महाशय को साष्टांग प्रणाम किया। उसकी आँखों से कृतज्ञता के आँसू बह रहे थे।

“गुरुदेव को भी अत्यन्त आनन्द हो रहा था। मेरी ओर शरारती आँखों से देखते हुए उन्होंने कहाः

" 'युक्तेश्वर ! अब तो निश्चय ही तुम हमेशा अपने पास अरंडी के तेल की बोतल रखोगे। जब भी किसी लाश को देखो, तो उसके मुँह में वह तेल डाल देना। क्यों अरंडी के तेल की सात बूँदें अवश्य ही यमराज की शक्ति को निष्क्रिय करने के लिये पर्याप्त हैं!'

" 'गुरुजी! आप मेरा मजाक उड़ा रहे हैं। मैं समझा नहीं; कृपा कर मेरी भूल का स्वरूप समझा दीजिये ।'

" 'मैंने दो बार तुमसे कहा कि राम ठीक हो जायेगा; फिर भी तुमने मुझ पर पूरा विश्वास नहीं किया," लाहिड़ी महाशय समझाने लगे। 'मेरे कहने का यह अर्थ नहीं था कि डॉक्टर उसे ठीक कर पायेंगे; मैंने केवल इतना ही कहा था कि वे उसे देख रहे हैं। मैं डॉक्टरों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था; आखिर उन्हें भी तो जीविका कमानी है।' इसके बाद आनन्द से भरे स्वर में मेरे गुरु ने कहा: 'सदा याद रखो कि सर्वशक्तिमान परमात्मा किसी को भी ठीक कर सकते हैं; डॉक्टर हो या न हो।'

" 'मुझे अपनी भूल समझ आ गई है, ' मैंने पश्चाताप के साथ स्वीकार किया। 'अब मेरी समझ में आ गया कि आपका एक साधारण सा शब्द भी पूरे ब्रह्माण्ड के लिये बाध्यकारी है।'

श्रीयुक्तेश्वरजी की यह रोमांचक कहानी जैसे ही पूरी हुई, राँची के एक बच्चे ने उनसे प्रश्न पूछा, जो बच्चे के मुख से स्वाभाविक ही था।

उसने पूछा: “महाराज! आपके गुरुदेव ने अरंडी का तेल ही क्यों भेजा ?”

"तेल देने का कोई विशेष अर्थ नहीं था, बेटा! मैंने कोई प्रत्यक्ष वस्तु चाही थी, इसलिये लाहिड़ी महाशय ने पास पड़ा तेल ही दे दिया, जो मुझमें अधिक विश्वास जगाने के लिये एक वस्तुगत प्रतीक मात्र था।

गुरुदेव ने राम को इसलिये मर जाने दिया, क्योंकि मैंने आंशिक संदेह किया था। परन्तु वे जानते थे कि जब उन्होंने कह दिया था, तो राम ठीक होकर ही रहेगा, चाहे उन्हें उसे मृत्यु के बाद ही क्यों न ठीक करना पड़े जो साधारणतया अंतिम बीमारी होती है।

श्रीयुक्तेश्वरजी ने बच्चों को बाहर भेज दिया और मुझे अपने चरणों के पास रखे कंबल के एक आसन पर बैठने का संकेत किया।

असाधारण गम्भीरता के साथ उन्होंने कहाः “योगानन्द ! तुम जन्म से ही लाहिड़ी महाशय के शिष्यों से घिरे रहे हो। महान् गुरु ने अपना महिमामय जीवन कुछ हद तक एकान्त में ही जिया और अपनी शिक्षाओं पर आधारित कोई संस्था या संगठन बनाने की अनुमति अपने अनुयायियों को देने से वे निरन्तर इन्कार करते रहे। फिर भी उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण भविष्यवाणी की थी।

"उन्होंने कहा था: 'पश्चिम में योग के प्रति गहरी रुचि पैदा होने के कारण मेरे देहत्याग के पचास वर्ष बाद मेरा एक जीवनचरित्र लिखा जायेगा। योग का संदेश सारे विश्व में फैल जायेगा। इससे सभी के एकमात्र परमपिता की प्रत्यक्ष अनुभूति पर आधारित एकता के कारण मानवजाति में विश्व बंधुत्व स्थापित होने में सहायता होगी।'

श्रीयुक्तेश्वरजी ने आगे कहाः “मेरे पुत्र योगानन्द ! उस संदेश को फैलाने में और उस पवित्र जीवन चरित्र को लिखने में तुम्हें अवश्य अपने हिस्से का कार्य करना होगा। "

१८९५ में लाहिड़ी महाशय ने देहत्याग किया। १९४५ में उनके देहत्याग के पचास वर्ष पूरे हुए। उसी वर्ष यह पुस्तक पूरी हुई। यह संयोग देखकर मैं आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकता कि १९४५ के वर्ष के साथ ही क्रांतिकारी आण्विक शक्तियों का नया युग भी आरम्भ हुआ। सभी विचारी मनुष्यों का ध्यान शान्ति और विश्वबंधुत्व की अत्यंत महत्वपूर्ण समस्याओं की ओर अभूतपूर्व व्यग्रता के साथ लग गया है, कि कहीं ऐसा न हो कि भौतिक बल के निरन्तर प्रयोग से समस्याओं के साथ-साथ मानवजाति का ही अन्त हो जाए।

मनुष्य की सारी उपलब्धियों का काल या बम के कारण नामोनिशान मिट जाय, तब भी सूर्य अपनी दिशा नहीं बदलेगा और तारे भी अपनेअपने स्थान पर रहकर पृथ्वी को देखते रहेंगे। सृष्टि नियम को स्थगित नहीं किया जा सकता, न ही उसे बदला जा सकता है। मनुष्य के लिये बेहतर यही होगा कि वह उसके अनुसार जीना सीखे। पूरा ब्रह्माण्ड जहाँ बल प्रदर्शन के विरुद्ध है, सूर्य भी जहाँ तारागणों के साथ कोई युद्ध छेड़े बिना उन्हें अपने स्वल्प प्रकाश को प्रकट करने का अवसर देने के लिये यथासमय आकाश से हट जाता है, वहाँ हमारे बल प्रदर्शन से लाभ ही क्या होने वाला है? क्या उससे कोई शान्ति उत्पन्न हो जायेगी? सृष्टि का आधार क्रूरता नहीं, सद्भावना है। शान्ति सद्भावना में जीने वाली मानवजाति ही विजयश्री के अनंत फलों का रसास्वादन कर सकेगी, जो स्वाद में रक्तसिंचित भूमि में उत्पन्न किसी भी फल से कहीं अधिक मधुर होंगे।

मानव-हृदयों का बेनाम, स्वाभाविक संघ ही प्रभावी राष्ट्रसंघ बन सकेगा। इस जगत् के दुःखों को दूर करने के लिये जिन व्यापक सहानुभूतियों की और गहराई में देख पाने वाली दृष्टि की आवश्यकता है वह केवल मानवजाति की विविधता के बौद्धिक आकलन से नहीं, बल्कि मानवजाति की सबसे गहरी एकता – ईश्वर के साथ संबंध – के ज्ञान से आयेगी। विश्वबंधुत्व द्वारा शान्ति की स्थापना संसार का सर्वोच्च आदर्श है। इस आदर्श को मूर्त रूप देने के लिये योग, जो ईश्वर के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क करने का विज्ञान है, का यथोचित समय सारे विश्व के समस्त लोगों तक प्रसार हो।

भारत की संस्कृति अन्य किसी भी देश की संस्कृति से कहीं अधिक प्राचीन है, फिर भी बहुत कम इतिहासकारों ने इस बात की ओर ध्यान दिया है कि उसका अभी तक सुरक्षित रहना कोई संयोग मात्र नहीं है, बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारत ने अपने महापुरुषों के माध्यम से जो सनातन सत्य प्रस्तुत किये हैं, उनके प्रति भक्ति का तर्कशुद्ध परिणाम है। युग-युगांतरों से (वह भी कितने ? क्या कोई गवेषक कभी सच-सच बता
भी पायेगा!) निरन्तर विकारहीन अस्तित्व बनाये रखकर, काल की चुनौती का किसी भी देश की अपेक्षा केवल भारत ने ही सर्वोत्तम उत्तर दिया है।

विस्मृति की गर्त में विलुप्त होने से भारत जो बच गया है, इस प्रकाश में देखें तो बाइबिल में दी गयी अब्राहम की कहानी को भी नया अर्थ मिल जाता है। बाइबिल में कहा गया है कि अब्राहम ने प्रभु से प्रार्थना की, कि सोडोम शहर में यदि दस पुण्यात्मा भी मिल जायें, तो वे उस शहर को बख्श दें। इस पर प्रभु ने उत्तर दिया: “ऐसे दस लोग भी मिल जायें तो मैं उस शहर को नष्ट नहीं करूंगा।" मिट गये कभी भारत के समकालीन रहे शक्तिशाली राष्ट्रों के साम्राज्य, जो युद्ध कलाओं में निपुण थे: प्राचीन मिश्र, बेबीलोनिया, यूनान, रोम

प्रभु के उत्तर से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी देश अपनी भौतिक उपलब्धियों के कारण नहीं, बल्कि अपने महापुरुषों के कारण जीवित रहता है।

इस बीसवीं शताब्दी में, जिसके अर्द्धशतक के पूर्ण होने से पहले ही धरती दो बार खून से नहा चुकी है, ईश्वर की वह दिव्य वाणी फिर से सुनायी दे: जिसे कभी खरीदा नहीं जा सकता, उस “निष्पक्ष न्यायाधीश " की दृष्टि में महान् हों, ऐसे दस लोग भी जिस देश में होंगे, वह देश कभी मिट नहीं सकता।

ऐसी धारणाओं को मानने के कारण ही भारत काल के हजारों छलकपटों के आगे बुद्धिहीन सिद्ध नहीं हुआ। हर शताब्दी में आत्मज्ञानी गुरुओं ने अवतार लेकर उसकी भूमि को पवित्र किया है। लाहिड़ी महाशय और श्रीयुक्तेश्वरजी जैसे क्राईस्ट सदृश अर्वाचीन योगी आज भी यह उद्घोष कर रहे हैं कि मनुष्य के सुख-स्वास्थ्य और राष्ट्र के दीर्घ जीवन के लिये योग का ज्ञान, जो ईश-प्राप्ति का विज्ञान है, अत्यावश्यक है।

अभी तक लाहिड़ी महाशय के जीवन एवं उनकी सर्वलोकोपयोगी शिक्षाओं के बारे में बहुत कम जानकारी छपकर प्रकाशित हुई है।* तीन दशकों से मैं भारत, अमेरिका और यूरोप में मोक्षदायक योग के संदेश में गहरी और सच्ची रुचि देख रहा हूँ। अतः लाहिड़ी महाशय के लिखित जीवन-वृत्तान्त की, जैसे कि उन्होंने भविष्यवाणी भी की थी, पाश्चात्य जगत् में तीव्र आवश्यकता है, जहाँ महान् योगियों के जीवन के बारे में लोगों को अत्यंत कम जानकारी है।

* [बंगाली में स्वामी सत्यानन्द द्वारा लिखित "श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय" नाम से एक संक्षिप्त जीवनचरित्र १९४९ में प्रकाशित हुआ था। मैंने उस पुस्तक में से कुछ परिच्छेदों का अनुवाद करके उन्हें इस प्रकरण में डाला है।]

लाहिड़ी महाशय का जन्म ३० सितम्बर १८२८ ई० को एक धर्मनिष्ठ प्राचीन ब्राह्मण कुल में बंगाल के नदिया जिले में स्थित घुरणी ग्राम में हुआ था। वे आदरणीय श्री गौरमोहन लाहिड़ी की दूसरी पत्नी श्रीमती मुक्तकाशी की संतानों में एकमात्र पुत्र थे (पहली पत्नी का तीन पुत्रों को जन्म देने के पश्चात् एक तीर्थयात्रा के दौरान देहान्त हो गया था। उनके बचपन में ही उनकी माता का भी देहान्त हो गया। उनकी माता के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, सिवाय इस महत्वपूर्ण तथ्य के कि वे शास्त्रों में जिन्हें महायोगीश्वर कहा गया है, उन भगवान शिव की अनन्य भक्त थीं।

लाहिड़ी महाशय का पूरा नाम श्यामाचरण लाहिड़ी था। उनका बचपन घुरणी में उनके पैतृक निवास में ही बीता। तीन-चार वर्ष की आयु में ही वे प्रायः बालु में केवल सिर बाहर और अन्य सारा शरीर बालु के अन्दर रखते हुए एक विशिष्ट योगासन में बैठे दिखायी देते थे।

१८३३ ईस्वी में गाँव के निकट से बहती जलंगी नदी ने अपना मार्ग बदल दिया और वह गंगा में विलीन हो गयी। उसके मार्ग परिवर्तन के कारण लाहिड़ी परिवार की सारी ज़मीन-जायदाद नष्ट हो गयी। घर के साथ लाहिड़ी परिवार द्वारा प्रतिष्ठित शिव मन्दिर भी नदी के गर्भ में समा गया। एक भक्त ने उफनते जल में से शिव की प्रस्तर प्रतिमा को बचाया और उसे एक नये मन्दिर में रख दिया, जो अब घुरणी शिव मन्दिर के नाम से विख्यात है।

श्री गौरमोहन लाहिड़ी घुरणी को छोड़कर सपरिवार काशी में जा बसे। वहाँ उन्होंने शीघ्र ही एक शिव मन्दिर की स्थापना की। वैदिक धर्म के अनुसार रोज पूजा-पाठ, दानधर्म, शास्त्राध्ययन आदि उनके घर में होता था। वे न्याय परायण तथा उदार दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे, आधुनिक विचारधारा की उपयोगिता की वे अवहेलना नहीं करते थे।

बालक लाहिड़ी ने काशी की पाठशालाओं में हिन्दी और उर्दू की पढ़ाई की। उन्होंने जयनारायण घोषाल के विद्यालय में संस्कृत, बंगाली, फ्रेंच तथा अंग्रेज़ी की शिक्षा प्राप्त की। वेदों का वे गहरा अध्ययन करते थे और विद्वान् ब्राह्मणों की शास्त्र - चर्चाओं को मन लगाकर सुनते थे । इन विद्वानों में एक महाराष्ट्रीय पंडित श्री नागभट्ट भी थे।

श्यामाचरण दयालु, विनम्र और साहसी बच्चा था, जो अपने सभी साथियों में अत्यंत लोकप्रिय था। उसका शरीर सुडौल, स्वस्थ तथा बलिष्ठ था। तैराकी तथा शारीरिक पटुता के अनेक कार्यों में वह निष्णात था।

सन १८४६ में श्री देवनारायण सन्याल की सुपुत्री काशीमणि के साथ श्यामाचरण लाहिड़ी का विवाह हुआ। काशीमणि देवी एक आदर्श भारतीय गृहिणी थीं, जो अपने गृह कर्त्तव्यों का और अतिथि सेवा तथा दरिद्रनारायण सेवा के अपने गृहस्थ धर्म का प्रसन्नतापूर्वक पालन करती थीं। इस विवाह युति से तीनकौड़ी और दुकौड़ी नाम के दो सन्तवत् पुत्रों का तथा दो पुत्रियों का जन्म हुआ। १८५१ में तेईस वर्ष की आयु में लाहिड़ी महाशय ब्रिटिश सरकार के मिलिटरी इंजिनियरिंग विभाग में लेखापाल के पद पर नियुक्त हुए। अपने सेवा काल में अनेक बार उनकी पदोन्नति हुई। इस प्रकार न केवल ईश्वर की आँखों में ही वे सिद्ध पुरुष थे, बल्कि इस छोटे-से मानवीय नाटक में भी, जिसमें वे एक साधारण ऑफिस कर्मचारी की भूमिका अदा कर रहे थे, उन्होंने सफलता प्राप्त की थी।

मिलिटरी इंजिनियरिंग विभाग ने भिन्न-भिन्न समय पर गाज़ीपुर, मिर्ज़ापुर, नैनीताल, दानापुर तथा वाराणसी में उनका स्थानान्तरण किया।

पिता की मृत्यु के बाद युवा लाहिड़ी महाशय ने पूरे परिवार का सारा दायित्व अपने ऊपर ले लिया। परिवार के लिये उन्होंने काशी में भीड़भाड़ से दूर गरूड़ेश्वर मुहल्ले में एक घर खरीद लिया।

लाहिड़ी महाशय के जीवन के तैंतीसवें वर्ष में उस उद्देश्य की पूर्ति हुई, जिसके लिये उन्होंने इस धरा पर पुनः जन्म लिया था। हिमालय में रानीखेत के पास उनकी मुलाकात अपने महान् गुरु बाबाजी से हुई और उन्हें क्रियायोग की दीक्षा मिली।

वह पवित्र घटना केवल लाहिड़ी महाशय के साथ ही नहीं घटी, बल्कि पूरी मानवजाति के लिये वह अत्यंत पवित्र क्षण था । योग की लुप्त हुई या दीर्घ काल तक अज्ञात रही सर्वोच्च विद्या पुनः प्रकाश में लायी गयी।

पौराणिक कथा में जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर अपने तृषातुर भक्त भगीरथ को अपने दिव्य जल से संतुष्ट किया, उसी प्रकार १८६१ में क्रियायोग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्य गुफ़ाओं से मनुष्यों की कोलाहलभरी बस्तियों की ओर बह चली।