हिंदी सतसई परंपरा - 1 शैलेंद्र् बुधौलिया द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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हिंदी सतसई परंपरा - 1

सतसई परंपरा और बिहारी

भूमिका

 

शैलेंद्र बुधौलिया

काव्य भेद

प्रबंध और मुक्तक का स्वरूप

 और विशेषताएं

काव्य में एक विशेष बन्ध- एक विशिष्ट पूर्वाक्रम - की दृष्टि से उसके दो भेद स्वीकार किए गए हैं -प्रबंध और मुक्तक!

 प्रबंध काव्य की रचना सानुबन्ध  होती है- सर्ग बन्धो  महाकाव्यम! जबकि मुक्तक काव्य अनुबन्धहीन होता है।

अग्नि पुराण में मुक्तक की परिभाषा-"मुक्तक श्लोक एकेकश्चमत्का रक्षुम सताम!"  अर्थात मुक्तक  श्लोक को पूर्वा पर क्रम  के बिना एक ही चंद में चमत्कार उत्पन्न करने में समर्थ रचनाएं ।

प्रबंध काव्य में एक प्रवाह और क्रम आवश्यक है जबकि मुक्त काव्य में क्रम का स्थान नहीं है ।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने मुक्तकों के दो भेद किए हैं -एक सरस मुक्तक, दो रसहीन व तथ्य  व्यंजक मुक्तक!

 मुक्तक का यह दूसरा भेड़ सूक्ति कहा जाता है, rs  मुक्त मुक्तको में मम स्पर्शी वृतों का चुनाव कवि  कौशल का परिचायक है और सूक्तिमुक्तकों  में कवि की अभिव्यंजना का कौशल देखने को मिलता है ।

सतसई  स्वरूप और उद्गम -

विषय के अनुसार या संख्या की दृष्टि से सौ या अधिक मुक्तकों  के संग्रह होते आए हैं ,हिंदी का सतसई शब्द संस्कृत के सप्तशती का ही तद्भव या विकृत रूप है, अतएव हिंदी में सतसई  वह रचना है इसमें किसी कवि के सात सौ या उसके लगभग मुक्तक हो या मुक्तकों का संकलन हो । दूसरी बात यह है कि विषय वस्तु, या छंद का कोई बंधन सतसई में नहीं होता है यद्यपि की दृष्टि से पोहे का ही प्रचलन है यार प्रचलन रहा है। श्रृंगार, नीति, उपदेश, भक्ति, व्यंग आदि सतसई के प्रधान विषय रहे हैं ।

एक ही विषय को लेकर भी सतसई की रचना की गई है ,जैसे वियोगी हरि की ‘वीर’! हिंदी में दोहा छंद , सतसई के लिए रूढ़ी सा  हो गया। और इसका कोई अपवाद भी नहीं किया गया।

 सतसई संग्रहों में प्रायः प्रबंध काव्य को लेकर भी छन्दों का संकलन हुआ है जैसे तुलसी सतसई में ऐसे  वैसे अनेक दोहे मिलते हैं जो उनकी रामचरितमानस में भी है । प्राचीन सतसईयों  में बिहारी सतसई के अनेक क्रम रसिकों के  अपनी अपनी रुचि से संकलन करने के कारण बन गए। कुछ के संबंध में यह देखा जाता है कि संकलन कर्ताओं ने कभी के ग्रंथों से सात सौ छन्द  चुनकर सतसई  बना दी जैसे तुलसी सतसई! अतएव  सतसई कोई विशिष्ट रचना ना होकर एक कवि के सात  जनों का संकलन मात्र है। इसके विषय एक या अनेक हो सकते हैं ।

हिंदी में सतसई परंपरा का प्रेरणा स्रोत -

पूर्ववर्ती परंपरा-

 संस्कृत साहित्य में ‘शतक’ और ‘शप्त शती’ जैसे संग्रहों का पर्याप्त विकास मिलता है। हिंदी की सतसई परंपरा का संबंध इनके सप्तशती काव्यों से है ।इस परंपरा की  प्रेरणा स्रोत मुख्य रूप से दो कृतियां हैं -एक हालकवि द्वारा लिखित ‘गाथासप्तसती’ और दूसरी गोवर्धन आचार्य कृत  ‘आर्या सप्तशती’ ।

गाथा सप्तशती –

गाथा सप्तशती प्राकृत में लिखी सात सौ गाथाओं ( विशेष छन्दों )का संकलन है । जिनमे से कुछ के करता हाल कवि हैं और कुछ गाथाएं अन्य कवियों की हैं ,  जिन्हें हल कवी ने तत्कालीन तथा पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं से लेकर संकलित कर दिया है। स्वयं हाल कवि के अनुसार  इसमें उन्होंने ‘श्रृंगार रस  से सनी लाखों गाथाओं में से सात सो ऐसी उक्तियाँ चुन कर रख दी हैं जो अत्यंत सुंदर एवं रस माय  थी।‘

 आर्या सप्तशती-

 संस्कृत के कवियों में गाथा सप्तशती  इतनी लोकप्रिय हुई कि  संस्कृत कवि गोवर्धनाचार्य ने गाथा सप्तशती का अनुकरण करते हुए संस्कृत में आर्या छन्द में  आर्या सप्तशती की रचना की  ।

इसका मुख्य विषय भी श्रंगार ही रहा है। इसमें गोवर्धनआचार्य ने बड़ी ही कलात्मक और अलंकारिक शैली में प्रेमी प्रेमिकाओं की श्रृंगारिक चेष्टाओं और हावों भावों  का मादक  चित्रण किया है ।

हिंदी में सतसई परंपरा का विकास-

 हिंदी सतसई परंपरा में ऐतिहासिक दृष्टि से पहला स्थान तुलसी सतसई का है। यह एक संकलन ग्रंथ है। हिंदी की अन्य सतसई में रहीम सतसई, वृंद सतसई, बिहारी सतसई, मतिराम सतसई, रसनिधि सतसई आदि की गणना होती है । विषय की दृष्टि से हिंदी में लिखित सतसईयों  में जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित किसी मार्मिक तथ्य की मार्मिक , रमणीक और चमत्कारपूर्ण  ढंग से अभिव्यक्त किया जाता है ।जबकि श्रृंगार सतसई में श्रृंगार रस की प्रधानता दी जाती है ।