एक योगी की आत्मकथा - 24 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 24


{ मेरा संन्यास- ग्रहणः स्वामी-संस्थान के अन्तर्गत }

“गुरुदेव ! मेरे पिताजी मुझसे बंगाल-नागपुर रेलवे में एक अधिकारी का पद ग्रहण करने के लिये आग्रह करते रहे हैं। परन्तु मैंने साफ मना कर दिया है।” फिर मैंने आशा के साथ आगे कहाः “गुरुदेव ! क्या आप मुझे स्वामी परंपरा की संन्यास दीक्षा नहीं देंगे ?” मैं अनुनयपूर्वक अपने गुरु की ओर देखता रहा। विगत वर्षों में मेरे निश्चय की गहराई की परीक्षा लेने के लिये उन्होंने मेरे इसी अनुरोध को कई बार ठुकरा दिया था। परन्तु आज अनुग्रहपूर्ण मुस्कान उनके मुखमण्डल पर आ गयी।

“ठीक है। कल मैं तुम्हें संन्यास दीक्षा दे दूंगा।” फिर शान्त भावसे वे कहते गये: “मुझे खुशी है कि संन्यास ग्रहण करने की इच्छा पर तुम अटल रहे। लाहिड़ी महाशय प्रायः कहा करते थे: “अपने जीवन के वसन्त में यदि तुम ईश्वर को आमंत्रित नहीं करोगे, तो तुम्हारे जीवन के शिशिर में वे तुम्हारे पास नहीं आयेंगे।”

“प्रिय गुरुदेव! मैं आप ही की भाँति स्वामी परंपरा में शामिल होने की अपनी इच्छा को कभी नहीं छोड़ सकता था।” असीम स्नेह के साथ उनकी ओर देखते हुए मैं मुस्कराया।

“अविवाहित पुरुष प्रभु से सम्बन्धित बातों की चिंता में रहता है, कि कैसे वह प्रभु को प्रसन्न करे; परन्तु विवाहित पुरुष संसार की बातों की चिंता में रहता है, कि कैसे वह अपनी पत्नी को प्रसन्न करे।”¹ मैंने अपने अनेक मित्रों के जीवन का विश्लेषण किया था जिन्होंने कुछ आध्यात्मिक साधना करने के बाद विवाह कर लिया था। सांसारिक ज़िम्मेदारियों के सागर में कूद पड़ने के बाद गहरा ध्यान करने के अपने संकल्पों को वे भूल गये थे।

प्रभु को अपने जीवन में द्वितीय श्रेणी का स्थान² देने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। वे ही तो समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं जो जन्मजन्मांतर में मनुष्य पर वरदानों की वर्षा करते आ रहे हैं। और इस कृपावर्षा के बदले में मनुष्य उन्हें केवल एक ही चीज़ दे सकता है अपना प्रेम, जो देने या न देने की उसे पूर्ण छूट है।

सृष्टि के अणु-परमाणुओं में अपनी उपस्थिति को रहस्य के आवरण में छिपाये रखने के लिये अनंत उपायों की योजना के जो कष्ट सृष्टिकर्ता ने उठाये हैं, उसमें उसका केवल एक ही उद्देश्य हो सकता है, उसकी एक ही भावुक इच्छा हो सकती है कि मनुष्य स्वेच्छा से उसकी तलाश करे। प्रत्येक प्रकार की विनम्रता के कौन से मखमली दस्ताने द्वारा उसने सर्वशक्तिमत्ता के अपने वज्रहस्त को छिपाया नहीं है!

अगला दिन मेरे जीवन का सबसे अविस्मरणीय दिन था। मुझे याद है कि कॉलेज से ग्रेज्यूएट होने के कुछ सप्ताह बाद ही यह सन् 1915 के जुलाई महीने का एक गुरुवार था। अपने श्रीरामपुर आश्रम के भीतर के एक बरामदे में श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक श्वेत रेशमी वस्त्र को संन्यास धर्म के परम्परागत गेरुएँ रंग में डुबाया। जब वस्त्र सूख गया, तो मेरे गुरु ने उसे एक संन्यासी के वस्त्र के तौर पर मेरे बदन पर लपेट दिया।

“किसी दिन तुम पश्चिम में जाओगे, जहाँ रेशमी वस्त्रों को पसन्द किया जाता है,” उन्होंने कहा। “उसीके प्रतीकस्वरूप मैंने तुम्हारे लिये परम्परागत सूती वस्त्र के स्थान पर यह रेशमी वस्त्र चुना है।”

भारत में, जहाँ संन्यासी अपरिग्रह वृत्ति का व्रत लेते हैं, रेशमी वस्त्र परिधान किया हुआ स्वामी शायद ही कभी दिखायी देगा। परन्तु अनेक योगी रेशमी वस्त्र पहनते हैं, क्योंकि रेशमी वस्त्र शरीर के कुछ सूक्ष्म प्रवाहों को सूती वस्त्रों की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह से रोककर रखते हैं।

“मुझे अनुष्ठान, संस्कार आदि के कर्मकाण्ड में कोई रुचि नहीं,” श्रीयुक्तेश्वरजी ने कहा। “मैं तुम्हें विद्वत् (कर्मकाण्ड रहित) पद्धति से संन्यास दीक्षा दूँगा।”

विविदिशा या संन्यास की आद्योपांत अनुष्ठान संस्कार युक्त दीक्षा में एक हवन-विधि भी होती है जिसमें प्रतीकात्मक अंत्येष्टि क्रिया-कर्म, श्राद्ध आदि किया जाता है। दीक्षा लेने वाले शिष्य के स्थूल देह को मृत एवं ज्ञानाग्नि में भस्मीभूत माना जाता है। तत्पश्चात् नवदीक्षित संन्यासी को एक महावाक्य दिया जाता है, जैसे: “अयमात्माब्रह्म³”अथवा “तत्त्वमसि” अथवा “अहंब्रह्मास्मि”। परन्तु सादगी प्रेमी श्रीयुक्तेश्वरजी ने सभी औपचारिक विधियों को छोड़ दिया और केवल मुझे एक नया नाम चुनने को कहा।

“नाम चुनने का अधिकार मैं तुम्हें ही देता हूँ,” उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।

“योगानन्द,”⁴ मैंने एक पल सोचने के बाद कहा। इस नाम का अर्थ है “ईश्वर के साथ मिलन (योग) द्वारा आनन्द।”

“तथास्तु ! तुम्हारे पारिवारिक नाम मुकुन्दलाल घोष को छोड़कर अब से तुम स्वामी परंपरा की गिरि शाखा के योगानन्द कहलाओगे।”

श्रीयुक्तेश्वरजी के चरणों में सिर नवाते हुए जब प्रथम बार उनके मुँह से मैंने अपना नया नाम सुना, तो मेरा हृदय कृतज्ञता से भर उठा। कितने प्रेमपूर्वक उन्होंने अथक परिश्रम किया था ताकि बालक मुकुन्द एक दिन स्वामी योगानन्द में परिणत हो सके! मैं आह्लादित होकर श्री शंकर (शंकराचार्य)⁵ के एक लम्बे स्तोत्र के कुछ श्लोक गाने लगाः

मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।
न बंधुर्न मित्रम् गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेद्रियाणां।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न बन्धः
चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥


प्रत्येक स्वामी भारत में अनन्त काल से सम्मानित संन्यास परंपरा से संबंध रखता है। इसका वर्तमान रूप में पुनर्गठन शताब्दियों पूर्व शंकराचार्य ने किया था और तभी से निरन्तर अखण्ड रूप से आदरणीय आचार्यों की एक परम्परा इसके शीर्ष पद पर आसीन रही है। ( इनमें प्रत्येक आचार्य परम्पराक्रम से जगद्गुरु शंकराचार्य कहलाते हैं।) शायद 10 लाख तक संन्यासी स्वामी संप्रदाय में हैं। इस संप्रदाय में प्रविष्ट होने के लिये एक शर्त यह होती है कि उन्हें किसी ऐसे पुरुष से ही दीक्षा लेनी है, जो स्वयं स्वामी है। इस प्रकार स्वामी संप्रदाय के सभी संन्यासी ही गुरु, आदि (“प्रथम”) शंकराचार्य से जुड़े होते हैं। वे अपरिग्रह (सांसारिक संपत्ति में अनासक्ति), ब्रह्मचर्य तथा संघ प्रमुख या आध्यात्मिक प्रमुख की आज्ञा के पालन का व्रत लेते हैं । कैथोलिक ईसाई संन्यास संप्रदाय अनेक बातों में उनसे कहीं अधिक प्राचीन स्वामी संप्रदाय मिलते-जुलते हैं।

स्वामी अपने नये नाम के आगे एक ऐसी उपाधि लगाता है, जिससे स्वामी संप्रदाय की दस शाखाओं में से किसी एक के साथ उसके जुड़े होने का परिचय मिलता है। इन दस शाखाओं में या दशनामियों में एक शाखा है गिरि, जिससे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि और उनका शिष्य होने के नाते मैं स्वयं संलग्न हूँ। अन्य शाखाएँ हैं सागर, भारती, पुरी, सरस्वती, अरण्य, आश्रम, वन और पर्वत।

स्वामी का संन्यासाश्रम का नाम, जिसके आगे साधारणतया आनन्द लगा होता है, किसी विशिष्ट मार्ग, अवस्था या आध्यात्मिक गुण जैसे – प्रेम, ज्ञान, विवेक, भक्ति, सेवा, योग के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने की उसकी आकांक्षा का द्योतक होता है। उसके नाम के बाद लगने वाली दशनामी में से एक उपाधि प्रकृति के साथ उसकी समरसता का प्रतीक होती है।

समस्त मानवजाति की निःस्वार्थ सेवा तथा व्यक्तिगत संबंधों एवं महत्वाकांक्षाओं के त्याग के आदर्श के कारण अधिकांश स्वामी गण भारत में और कभी-कभी विदेशों में भी सक्रिय रूप से मानवतावादी एवं शैक्षणिक कार्यों में लग जाते हैं। जाति, पंथ, वर्ग, वर्ण, वंश या स्त्री-पुरुष का भेदभाव छोड़कर स्वामी विश्वबंधुत्व के आदर्श पर चलता है। परम ब्रह्म के साथ संपूर्ण एकरूप हो जाना ही उसका लक्ष्य होता है। सोते-जागते अपनी चेतना को ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के विचार से सराबोर करता हुआ वह संपूर्ण तृप्ति के साथ संसार में विचरण करता है परन्तु संसार की किसी बात में लिप्त नहीं होता। केवल इसी ढंग से वह अपनी स्वामी पदवी को सार्थक कर सकता है, जिसका अर्थ होता है 'स्व' या अपनी आत्मा के साथ एकरूप होने का प्रयास करने वाला।

श्रीयुक्तेश्वरजी स्वामी भी थे और योगी भी। पूज्य स्वामी संप्रदाय से जुड़ा होने के कारण स्वामी बना हर संन्यासी योगी नहीं होता। जो ईश्वरसाक्षात्कार के लिये किसी वैज्ञानिक प्रविधि का अभ्यास करता हो वही योगी होता है। वह विवाहित भी हो सकता है और अविवाहित भी,
सांसारिक ज़िम्मेदारियों को निभाने वाला भी हो सकता है या विशिष्ट धर्मसंप्रदाय से संबद्ध भी।

स्वामी केवल शुष्क कारण-मीमांसा एवं कठोर त्याग के मार्ग पर चलने वाला भी हो सकता है; परन्तु योगी एक सुनिश्चित क्रमानुगत प्रणाली का अभ्यास करता है जिससे शरीर और मन सुनियंत्रित हो जाते हैं और आत्मा धीरे-धीरे मुक्त हो जाती है। किसी भावनात्मक आधार पर या विश्वास के वश होकर कुछ भी न मानते हुए योगी ऐसी पूर्ण परीक्षित प्रविधियों का क्रमानुसार अभ्यास करता है, जिन्हें सर्वप्रथम प्राचीन ऋषियों ने निर्धारित किया था। भारत की प्रत्येक पीढ़ी में योगसाधना ने ऐसे लोग पैदा किये हैं, जो सच्चे अर्थ में मुक्त और ईसा-सदृश योगी हुए।

किसी भी अन्य विज्ञान की तरह ही योग विज्ञान का भी किसी भी देश और काल के लोगों द्वारा प्रयोग किया जा सकता है। कुछ अज्ञानी लेखकों का यह प्रतिपादन पूर्णतः गलत है कि योगसाधना ‘खतरनाक’ है या पाश्चात्यों के लिये ठीक नहीं है। यह खेद की बात है इस गलत प्रतिपादन ने योगसाधना के अनेक सच्चे और उत्सुक आकांक्षियों को उसके बहुमुखी लाभ को प्राप्त करने के प्रयास से विमुख कर दिया।

योगसाधना विचारों के स्वाभाविक कोलाहल को शान्त करने की एक पद्धति है। विचारों का यह कोलाहल सभी देशों के सभी मनुष्यों को समान रूप से अपने मूल आत्मस्वरूप की झलक देखने से वंचित कर देता है। स्वास्थ्यप्रद सूर्यप्रकाश की भाँति ही योगसाधना भी पौर्वात्य और पाश्चात्य लोगों के लिये समान रूप से लाभदायी है। बहुतांश लोगों के विचार अशान्त और चंचल होते हैं; अतः मन-नियंत्रण के विज्ञान योगसाधना की आवश्यकता स्पष्ट है।

प्राचीन ऋषि पतंजलि ⁶ योग की व्याख्या इस प्रकार करते हैं: “चित्त में एक के बाद एक उठती ही रहने वाली लहरों को शान्त करना।”⁷ उनका संक्षिप्त परन्तु अत्यन्त ज्ञानयुक्त ग्रन्थ ‘योगसूत्र’ हिन्दूषड्दर्शन ⁸ में से एक दर्शन है। पाश्चात्य दर्शनों के विपरीत, हिन्दू षड्दर्शन में न केवल सैद्धान्तिक तत्वावलोचन, बल्कि व्यावहारिक प्रणालियों का भी समावेश है। तत्त्व-मीमांसा में सामने आ सकने वाले प्रत्येक प्रश्न का गहन विचार करने के पश्चात् हिन्दू शास्त्र छह निश्चित मार्ग बताते हैं जिनका उद्देश्य हमेशा के लिये दुःख-मुक्त होकर अक्षय आनन्द की प्राप्ति करना है।

उत्तरकालीन उपनिषद कहते हैं कि छह दर्शनों में से योगसूत्र में ही सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति करने की सबसे प्रभावी पद्धतियाँ हैं। योग की व्यवहार योग्य प्रविधियों के अभ्यास से मनुष्य कल्पना के बंजर प्रदेश को हमेशा के लिये पीछे छोड़कर परमतत्व की प्रत्यक्ष अनुभूति करता है।

पतंजलि की योग-पद्धति अष्टांग योग⁹ के नाम से जानी जाती है। इसके पहले दो अंग हैं (1) यमः नैतिक सदाचार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन; और (2) नियमः धर्माचरण शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।

इसकी अगली सीढ़ियाँ हैं (3) आसन (शरीर की उचित स्थिति); ‘स्थिर-सुखमासनम्’ – मेरुदण्ड सीधा और ध्यान के लिये आरामप्रद अवस्था में निश्चल शरीर; (4) प्राणायाम (सूक्ष्म जीवन-प्रवाह या प्राण पर नियंत्रण); और (5) प्रत्याहार (इंद्रियों को बाह्य विषयों से निवृत्त कर अन्दर वापस मोड़ लेना)।

आखरी सीढ़ियाँ योग के प्रत्यक्ष अंग हैं: (6) धारणा (एकाग्रता), मन को एक ही विचार पर एकाग्र रखना; (7) ध्यान; और (8) समाधि (परा चैतन्य का अनुभव ) । योग का यह अष्टांग मार्ग साधक को कैवल्य के अंतिम लक्ष्य पर पहुँचा देता है, जिसमें योगी किसी भी बोध शक्ति की पहुँच से परे के सत्य को जान लेता है।

यह प्रश्न मन में आ सकता है कि, “कौन बड़ा है – स्वामी या योगी ?” जब ईश्वर के साथ एकता स्थापित हो जाती है, तब विभिन्न मार्गों के भेद अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। परन्तु भगवद्गीता में कहा गया है कि योग शास्त्र की पद्धतियाँ सर्वसमावेशक हैं। ये पद्धतियाँ केवल विशिष्ट प्रकार के या विशिष्ट स्वभावगुणों वाले व्यक्तियों, जैसे संन्यस्त जीवन की ओर झुकाव रखने वाले अत्यंत कम लोगों के लिये ही निर्धारित नहीं हैं; योग साधना के लिये किसी विशिष्ट संप्रदाय के साथ औपचारिक तौर पर जुड़े रहना भी आवश्यक नहीं है। योग-विज्ञान उस मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति करता है जो सबके लिये एक समान होती है, अतः यह सबके लिये समान रूप से लागू होता है।

सच्चा योगी अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए संसार में रह सकता है; वहाँ वह पानी पर तैरते मक्खन की तरह होता है, आसानी से पतला बनाये जा सकने वाले अनुशासनविहीन मानवजाति रूपी दूध की तरह नहीं । यदि मनुष्य अपने अहंकार की इच्छा वासनाओं में मानसिक रूप से लिप्त न हो और जीवन में अपनी भूमिका को केवल ईश्वर का एक स्वैच्छिक माध्यम बनकर अदा करे, तो सांसारिक कर्त्तव्यों को निभाने के लिये उसे ईश्वर से अलग होने की आवश्यकता नहीं रहती।

अमेरिका या यूरोपीय देशों में या अन्य अहिन्दू देशों में रहने वाले ऐसे कई महान् लोग आज इस संसार में हैं, जिन्होंने योगी या स्वामी जैसे शब्द भी कभी सुने नहीं होंगे परन्तु फिर भी इन शब्दों के वे जीते-जागते उदाहरण हैं। मानवजाति की निःस्वार्थ सेवा करने के कारण, या मनोवेगों और विचारों पर पूर्ण नियन्त्रण होने के कारण, या ईश्वर पर एकनिष्ठ प्रेम होने के कारण, या एकाग्रता की तीव्र शक्ति के कारण, वे एक अर्थ में योगी ही हैं; क्योंकि उन्होंने अपने समक्ष योग का लक्ष्य निर्धारित कर लिया है–आत्मसंयम। यदि इन लोगों को योग का निश्चित विज्ञान सिखाया जाये जिसके अभ्यास से मनुष्य के मन और जीवन की दिशा पर अधिक सचेत नियंत्रण प्राप्त हो जाता है, तो ये लोग और अधिक ऊँचे उठ सकते हैं।

कुछ पाश्चात्य लेखकों ने योग शास्त्र के बारे में ऊपरी तौर पर गलत धारणा बना ली, परन्तु इन लोगों ने कभी भी योग का अभ्यास करके नहीं देखा है। योग के सम्मान में प्रकट किये गये अनेक विचारशील वक्तव्यों में से यहाँ स्विट्जरलैण्ड के प्रख्यात मानसशास्त्री डा. सी. जी. युंग के विचार उल्लेख करने योग्य हैं।

डा. युंग लिखते हैं¹⁰ : “जब कोई साधना प्रणाली अपने को ‘वैज्ञानिक पद्धति’ कहकर प्रस्तुत करती है, तो पश्चिम में अनुयायी मिलने के प्रति वह निश्चिन्त हो सकती है। योग साधना इस पर खरी उतरती है। नवीनता के आकर्षण और आधी समझी गयी बात के प्रति अनुभूत होने वाली जिज्ञासा के अतिरिक्त भी योग को अनेकानेक अनुयायी मिल सकने के अच्छे खासे कारण हैं। योग नियंत्रित अनुभूति की संभावना प्रस्तुत करता है और इस प्रकार ‘तथ्यों’ की विज्ञाननिष्ठ आवश्यकता की पूर्ति करता है; और इसके अलावा उसकी व्यापकता और गहराई, उसकी श्रद्धास्पद आयु, उसका सिद्धान्त और पद्धति जिसमें जीवन की हर अवस्था का समावेश है, इन सब के कारण योग स्वप्नातीत संभावनाओं का अवसर प्रदान करता है।

“प्रत्येक धार्मिक या दार्शनिक साधना में मनोवैज्ञानिक अनुशासन या मानसिक आरोग्य प्रणाली होती है। योग¹¹ की विशुद्ध शारीरिक, बहुविध पद्धतियों में शारीरिक आरोग्य भी शामिल है जो साधारण व्यायामों और श्वास व्यायामों से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि ये न केवल शारीरिक और वैज्ञानिक हैं, बल्कि आध्यात्मिक भी हैं। शरीर के अंगों का व्यायाम करने के साथ-साथ इसमें साधक उन्हें पूर्ण रूप से आत्मा के साथ एकाकार करता है, जैसा कि उदाहरण के लिये, प्राणायाम में होता हैं। प्राण श्वास भी है और ब्रह्माण्ड की सक्रिय शक्ति भी।

“जिन धारणाओं पर योग आधारित है, उन धारणाओं के ज्ञान के बिना योग साधना विशेष प्रभावकारी नहीं होगी। यह साधना शारीरिक और आध्यात्मिक पहलुओं में असामान्य रीति से सामंजस्य स्थापित कर देती है।

“पूर्व में, जहाँ ये संकल्पनाएँ और पद्धतियाँ विकसित हुईं और जहाँ हज़ारों वर्षों को अखण्ड परंपरा ने आध्यात्मिक नींव तैयार कर दी है, मुझे पूर्ण विश्वास है, कि योग शरीर और मन, दोनों को इस प्रकार एकीभूत कर देने की सर्वांगपूर्ण समुचित पद्धति है कि उसके बारे में कोई शंका ही नहीं रहती। शरीर-मन की यह युती एक ऐसी मनोवैज्ञानिक अवस्था उत्पन्न करती है कि उस अवस्था में अतींद्रिय अनुभूति सम्भव हो जाती है।”

पश्चिम में भी वह दिन अब निकट आ रहा है जब आत्म-संयम के आंतरिक विज्ञान की उतनी ही आवश्यकता महसूस होगी, जितनी कि बाह्य प्रकृति पर विजय की। अब वैज्ञानिक दृष्ट्या निर्विवाद रूप से सिद्ध हुए इस सत्य के साथ कि घन पदार्थ वास्तव में और कुछ न होकर केवल ऊर्जा–शक्ति का घनीभत रूप है, इस आण्विक युग में मनुष्य का मन अधिक संयमी और विस्तृत होगा। पत्थरों और धातुओं में निहित शक्तियों से कहीं अधिक महान् शक्तियों को मानवी मन अपने अन्दर उन्मुक्त कर सकता है और उसे करना चाहिये, ताकि कहीं अभी-अभी बंधनमुक्त हुआ पदार्थआण्विक राक्षस पलटकर जगत् का विवेकहीन विनाश न कर दे। अणुबम के विषय में मानवजाति की चिन्ता का एक अप्रत्यक्ष लाभ यह हो सकता है कि योग-विज्ञान¹² में लोगों की व्यावहारिक रुचि बढ़ जायेगी, जो सच्चे अर्थ में “बम से रक्षा का आश्रयस्थान” है।







¹ 1 कुरिन्थियों ७:३२-३३ (बाइबिल) ।

² “जो ईश्वर को द्वितीय श्रेणी का स्थान देता है, वह ईश्वर को कोई स्थान नहीं देता।” –रस्किन

³ शब्दशः, “यह आत्मा ही ब्रह्म है।” परमब्रह्म अज और निर्विशेष है (नेति नेति वह नहीं), परन्तु वेदान्त में प्राय: उसका सत्-चित्-आनन्द कहकर उल्लेख आता है।

⁴ संन्यासियों में योगानन्द नाम काफी प्रचलित है।

⁵ शंकराचार्य के काल के विषय में हमेशा की तरह विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ दस्तावेजों से यह संकेत मिलता है कि ये अद्वितीय अद्वैतवादी ईसापूर्व छठवीं शताब्दी में हुए थे; सन्त आनन्द गिरि के अनुसार उनका जीवन काल ईसापूर्व ४४-१२ था: पाश्चात्य इतिहासकारों का मत है कि शंकराचार्य आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में या नौवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए थे। शताब्दियों के लिये यह कितना प्यार!
पुरी के प्राचीन गोवर्धन मठ के स्वर्गीय जगद्गुरु श्री शंकराचार्य परमपूज्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ महाराज ने सन् १९५८ में तीन माह की अमेरिका यात्रा की थी। यह प्रथम अवसर था, जब किसी शंकराचार्य ने पश्चिम की यात्रा की। उनकी इस ऐतिहासिक यात्रा का आयोजन
सेल्फ़ रियलाइज़ेशन फेलोशिप और योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया ने किया था। जगद्गुरु ने अमेरिका के प्रमुख विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिये और प्रसिद्ध इतिहासकार आर्नल्ड टायनवी के साथ विश्वशान्ति पर एक चर्चा में भाग लिया।
१९५९ में उन्होंने योगदा सत्संग के दो ब्रह्मचारियों को संन्यास दीक्षा देने के लिये योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया / सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फेलोशिप के गुरुओं का प्रतिनिधित्व करने के संघमाता श्री श्री दया माता के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। उन्होंने पुरी के योगदा सत्संग आश्रम में स्थित श्री युक्तेश्वर समाधि मन्दिर में दीक्षा-विधि सम्पन्न की। (प्रकाशक की टिप्पणी)

⁶ पतंजलि का निश्चित काल ज्ञात नहीं है। अनेक विद्वान उनका काल ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी मानते हैं। ऋषियों ने अनेकानेक विषयों पर इतनी सूक्ष्म दृष्टि से ग्रन्थ लिखे हैं कि सदियाँ बीत जाने के बाद भी उनकी उपयुक्तता में थोड़ी भी कमी नहीं आयी; और ऐसे ग्रन्थों के लेखक होने के बावजूद उन ऋषियों ने अपने साहित्य पर कहीं भी अपने समय या व्यक्तित्व की कोई छाप छोड़ने का थोड़ा भी प्रयास नहीं किया, जिसके कारण इधर इतिहासकार परेशान हैं। ऋषि गण जानते थे कि उनके अल्पकालिक जीवन का महत्त्व केवल इतना ही था कि वह उस अनंत जीवन का क्षणिक स्फुलिंग मात्र था; और वे यह भी जानते थे कि सत्य कालातीत है, जिसपर कोई छाप नहीं लगायी जा सकती और जो उनकी निजी संपत्ति नहीं था।

⁷ “चित्तवृत्ति निरोधः” (योगसूत्र 1:2)। चित्त मनुष्य में विद्यमान सोचने वाले तत्त्व के लिये प्रयुक्त किया गया एक व्यापक शब्द है, जिसमें प्राणशक्ति, मानस (मन या इंद्रिय-चैतन्य), अहंकार और बुद्धि (अंतःप्रेरणात्मक प्रतिभा) शामिल है। वृत्ति (शब्दशः, घुमाव या “भँवर ") मनुष्य की चेतना में निरन्तर उठने और बैठने वाली विचारों और भावनाओं की लहरों का सूचक है। निरोध का अर्थ है निराकरण करना, रोकना, नियंत्रित करना।

⁸ हिन्दू षड्दर्शन या छह दर्शन हैं: सांख्य, योग, वेदान्त, मीमांसा, न्याय तथा वैशेषिक।

⁹ बौद्धमत का अष्टांगी मार्ग, जो मनुष्य के सदाचार का निर्देश देता है, अष्टांग योग से भिन्न है।
इसके आठ अंग हैं: (१) सम्यक् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक् वाक्, (४) सम्यक् कर्म, (५) सम्यक् आजीविका, (६) सम्यक् व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति (आत्मा की), और (८) सम्यक् ज्ञान (समाधि) ।

¹⁰ डा. युंग ने 1937 में भारतीय विज्ञान अधिवेशन में भाग लिया था और उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय ने ऑनरेरी पदवी प्रदान की थी।

¹¹ यहाँ डा. युंग का अभिप्राय हठयोग से है, जो आसन आदि की स्वास्थ्य और दीर्घजीवनप्रदायिनी एक विशिष्ट योग प्रणाली है। हठयोग लाभकारी है और शरीर में अद्भुत परिणाम उत्पन्न करता है, परन्तु योग की इस शाखा का आध्यात्मिक मुक्ति के लिये उद्यत योगी बहुत कम प्रयोग करते हैं।

¹² अनेक अनभिज्ञ व्यक्ति योग को हठयोग ही समझते हैं या योग को जादू मानते हैं, जिसमें चमत्कारी शक्तियों की प्राप्ति के लिये गूढ़ रहस्यमय क्रियाएँ की जाती हैं। परन्तु जब विद्वान लोग योग के बारे में बोलते हैं, तो उनका तात्पर्य पतंजलि योग सूत्र में वर्णित राजयोग होता है। योगसूत्र में ऐसे-ऐसे भव्य दार्शनिक तत्त्वों का चिंतन है कि उस पर भारत के श्रेष्ठ चिन्तक और मनीषिगण, जिनमें परम ज्ञानी सद्गुरु सदाशिवेन्द्र का भी समावेश है, भाष्य लिखने को प्रेरित हुए हैं। (प्रकरण 41 दृष्टव्य)
अन्य पाँच शास्त्रसम्मत (वेद-आधारित) दर्शनों की भाँति ही योगसूत्र भी गहन दार्शनिक अनुसंधान के लिये नैतिक पवित्रता (यम-नियमादि) के "जादू" को अनिवार्य प्राथमिकता मानता है। इस व्यक्तिगत अनिवार्यता ने, जिस पर पाश्चात्य जगत् में उतना ज़ोर नहीं दिया जाता, भारतीय षड्दर्शन में चिरस्थायी शक्ति का संचार किया है। जिस ब्रह्माण्ड व्यवस्था (ऋत्) के कारण सृष्टि का अस्तित्व बना हुआ है, वह मानव की नियति को नियंत्रित करने वाली नैतिक व्यवस्था से भिन्न नहीं हैं। जो ब्रह्माण्ड के नैतिक नियमों का पालन करने में अनिच्छुक है, वह सत्य की खोज करने के लिये सच्चे हृदय से कृतसंकल्प नहीं है।
योगसूत्र के तृतीय पाद (विभूति पाद) में योग की विविध अलौकिक शक्तियों (विभूतियों और सिद्धियों) का उल्लेख है। सच्चा ज्ञान सदा ही एक शक्ति होता है। योग मार्ग चार चरणों में विभक्त है और हर चरण की अपनी एक विभूति है! उस विशिष्ट विभूति को या शक्ति को प्राप्त कर लेने पर योगी जान जाता है कि उसने चार चरणों में से या चार अवस्थाओं में से उस एक अवस्था को सफलतापूर्वक पार कर लिया। अवस्था के अनुसार विशिष्ट शक्तियों का उद्भव योग प्रणाली की वैज्ञानिक रचना का प्रमाण हैं। इसमें व्यक्ति "आध्यात्मिक उन्नति" की सारी भ्रमपूर्ण कल्पनाएँ अदृश्य हो जाती हैं; प्रमाण आवश्यक है !
पतंजलि साधक को पहले ही सावधान करते हैं कि परमतत्त्व के साथ एकाकारता ही एकमेव लक्ष्य होना चाहिये, विभूतियों की प्राप्ति नहीं। विभूतियाँ तो इस पवित्र मार्ग पर यदाकदा सहज ही मिल जाने वाले पुष्प मात्र हैं। केवल चिरंतन दाता को खोजा जाना चाहिये, उसके अलौकिक दानों को नहीं। भगवान उस साधक को कभी दर्शन नहीं देते जो स्वयं उनसे कम किसी भी उपलब्धि से संतुष्ट हो जाता हो। इसलिये प्रयासरत योगी अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रयोग न करने के विषय में सावधान रहता है, कि कहीं उनके प्रयोग से उसमें झूठा अहंकार उत्पन्न होकर उसे कैवल्य की चरम अवस्था तक पहुँचने से विमुख न कर दे।
जब योगी अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह अपनी इच्छा के अनुसार चाहे तो विभूतियों का प्रयोग करता है या नहीं करता। तब उसके सारे कार्य, चाहे वे चमत्कारपूर्ण हों या अन्यथा, कर्मों के बन्धन से मुक्त होते हैं। कर्म के लौह कण वहीं आकृष्ट होते हैं जहाँ अहंकार का चुम्बक अभी विद्यमान होता है।