एक योगी की आत्मकथा - 20 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 20

{ कश्मीर-यात्रा में बाधा }

“पिताजी! मैं गर्मी की छुट्टियों में गुरुदेव और चार मित्रों को लेकर हिमालय की तलहटी में स्थित पहाड़ियों के क्षेत्र में जाना चाहता हूँ। क्या आप मुझे कश्मीर के छः रेलवे-पास और यात्रा में खर्च के लिये पर्याप्त रुपया देंगे?”

मेरी अपेक्षा के अनुरूप ही पिताजी ठहाका मारकर हँसने लगे। “यह तीसरी बार है कि तुम मुझे फिर वही शेखचिल्ली की कहानी सुना रहे हो। पिछले साल और उसके पिछले साल भी तुमने मुझसे यही अनुरोध किया था न ? अन्तिम क्षण में श्रीयुक्तेश्वरजी जाने से मना कर देते हैं।”

“यह सच है, पिताजी! पता नहीं क्यों कश्मीर के बारे में गुरुदेव मुझे कभी पक्का वचन नहीं दे पाते।¹ परन्तु यदि मैं उन्हें यह बता दूँ कि मैंने आपसे पास भी ले लिये हैं, तो किसी कारण से मुझे लगता है कि वे इस बार यात्रा के लिये राज़ी हो जायेंगे।”

पिताजी को उस समय तो पूरा विश्वास नहीं हुआ, परन्तु दूसरे दिन कुछ हास्य-विनोद के कटाक्ष करने के बाद उन्होंने मुझे छः पास और दस-दस रुपये के नोटों की एक गड्डी थमा दी और साथ में कहाः

“मैं नहीं समझता कि तुम्हारी काल्पनिक यात्रा के लिये इस प्रकार के प्रत्यक्ष सहारों की कोई आवश्यकता पड़ेगी, परन्तु फिर भी इन्हें अभी रख लो।”

उसी दिन दोपहर को मैंने श्रीयुक्तेश्वरजी को वह खज़ाना दिखा दिया। वे मेरे उत्साह पर मुस्कराये तो अवश्य, परन्तु उनके शब्द गोलमोल ही थे: “मैं जाना तो चाहता हूँ, पर देखेंगे।” मैंने जब उनके आश्रमवासी बाल शिष्य कन्हाई को हमारे साथ चलने के लिये कहा, तब भी वे कुछ नहीं बोले। मैंने तीन अन्य मित्रों को भी चलने के लिये कहा – राजेन्द्र नाथ मित्र, ज्योतिन आड्डी और एक अन्य लड़का। हमारे प्रस्थान के लिये अगले सोमवार का दिन तय किया गया।

घर में एक चचेरे भाई की शादी होने के कारण शनिवार और रविवार को मैं कोलकाता में ही रहा। सोमवार को प्रातः ही मैं अपने सामान के साथ श्रीरामपुर पहुँच गया। आश्रम के द्वार पर ही राजेन्द्र से भेंट हो गयी।

“गुरुदेव बाहर टहलने गये हैं। उन्होंने जाने से इन्कार कर दिया है।”

मुझे जितना संताप हुआ, उतनी ही ज़िद भी चढ़ गयी । “मैं पिताजी को अपनी तीसरी काल्पनिक कश्मीर यात्रा का मज़ाक उड़ाने का अवसर नहीं दूंगा। चलो, हम बाकी लोग ही चले चलते हैं।”

राजेन्द्र मान गया। मैं किसी नौकर को ढूँढ़ने के लिये आश्रम से निकल पड़ा। मैं जानता था कि गुरुदेव नहीं जायेंगे तो कन्हाई भी नहीं जायेगा और सामान की देखभाल के लिये कोई न कोई तो चाहिये ही था। सबसे पहले मेरे मन में बिहारी का ख्याल आया। वह पहले हमारे घर में नौकर था और अब श्रीरामपुर में एक शिक्षक के यहाँ नौकरी कर रहा था। मैं जल्दी-जल्दी चल रहा था। श्रीरामपुर कचहरी के पास स्थित गिरजाघर के सामने गुरुदेव से भेंट हो गयी।

“कहाँ जा रहे हो ?” श्रीयुक्तेश्वरजी के चेहरे पर मुस्कराहट का लवलेश भी नहीं था। “गुरुजी! मुझे पता चला कि आप और कन्हाई हमारी यात्रा में शामिल नहीं होंगे। मैं बिहारी को खोजने जा रहा हूँ। आपको याद होगा कि पिछले साल वह कश्मीर देखने के लिये इतना उत्सुक था कि बिना किसी मजदूरी के भी सेवा देने को तैयार था।”

“मुझे याद है। फिर भी मुझे नहीं लगता कि बिहारी जाना चाहेगा।” “वह इस अवसर की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है!” मैंने चिढ़कर कहा।

गुरुदेव चुपचाप आगे बढ़ गये। मैं थोड़े समय में ही उस शिक्षक के घर पहुँच गया। बिहारी घर के आँगन में ही था। मुझे देखते ही वह प्रेम से मुस्कराते हुए मेरी ओर आया, परन्तु जैसे ही मैंने कश्मीर की बात छेड़ी, उसकी मुस्कराहट हवा हो गयी। होठों में ही बड़बड़ाते हुए उसने क्षमा माँगी और अपने मालिक के घर के भीतर चला गया। मैं आधे घंटे तक अपने आपको यह दिलासा देता वहीं खड़ा रहा कि बिहारी मेरे साथ आने की तैयारी कर रहा होगा, इसीलिए उसे देर हो रही है। आखिर मैंने सामने के द्वार पर दस्तक दी।

“बिहारी तो लगभग आधे घंटे पहले ही पीछे की सीढ़ी से उतरकर कहीं बाहर चला गया है,” एक आदमी ने बताया। उसके होठों पर हल्की मुस्कान खेल रही थी।

उदास होकर मैं यह सोचते हुए वहाँ से चल पड़ा कि मेरे निमंत्रण में उसे अत्यधिक जोर-जबरदस्ती जान पड़ी, या गुरुदेव का अदृश्य प्रभाव अपना काम कर रहा था ? गिरजाघर को पार करते ही मैंने गुरुदेव को पुनः अपनी ओर आते देखा। मेरे कुछ कहने के पहले ही वे बोल पड़े:

“तो बिहारी नहीं जायेगा! अब तुम्हारी क्या योजना है ?”

मैं स्वयं को किसी ऐसे ज़िद्दी बच्चे की तरह समझ रहा था जिसने अपने अधिकार जताने वाले पिता का विरोध करने की ठान ली हो। “गुरुजी! मैं अपने चाचाजी के पास यह अनुरोध करने जा रहा हूँ कि वे अपने नौकर लालधारी को मेरे साथ भेज दें।”

“तुम्हारी इच्छा ही है तो अपने चाचा से मिल लो, परन्तु मुझे नहीं लगता वहाँ जाने पर तुम्हें कोई खुशी होने वाली है।”

सहम कर परन्तु विद्रोही बन कर मैं अपने गुरु को वहीं छोड़ श्रीरामपुर कचहरी में जा पहुँचा। मेरे चाचा शारदा घोष ने, जो एक सरकारी वकील थे, बड़े प्रेम से मेरा स्वागत किया।

“मैं आज ही कुछ मित्रों के साथ कश्मीर जा रहा हूँ,” मैंने उन्हें बताया। “कई वर्षों से मुझे हिमालय की इस यात्रा की प्रतीक्षा थी।”

“मुझे बहुत खुशी हुई, मुकुन्द ! तुम्हारी यात्रा को अधिक आरामदायक बनाने के लिये क्या मैं कुछ कर सकता हूँ?”

इन स्नेहपूर्ण शब्दों से मेरा उत्साह और भी अधिक बढ़ गया। मैंने कहाः “चाचाजी! क्या आप अपने नौकर लालधारी को मेरे साथ भेज सकेंगे?”

मेरे इस सीधे-साधे अनुरोध से मानो भूचाल आ गया। चाचाजी इतने ज़ोर से उछल पड़े कि उनकी कुर्सी उलट गयी, मेज़ पर पड़े कागज़ दशदिशाओं में उड़ गये और उनका हुक्का अत्यधिक खड़खड़ाहट के साथ फर्श पर जा गिरा।

गुस्से से काँपते हुए वे चीख उठे: “स्वार्थी लड़के! तुम्हारी मति मारी गयी है! अपनी इस मटरगश्ती की यात्रा पर तुम मेरे नौकर को ले जाओगे तो मेरे काम कौन करेगा ?”

यह सोचते हुए कि नरम स्वभाव के मिलनसार चाचाजी के रवैये में यह अचानक परिवर्तन अनेक अगम्य रहस्यों से परिपूर्ण दिन का एक और गूढ़ रहस्य है, मैंने अपने विस्मय को भीतर ही दबा लिया। जिस चाल से मैं कचहरी से बाहर निकला, उस में गरिमा की अपेक्षा शीघ्रता अधिक थी।

मैं आश्रम लौट आया, जहाँ मेरे मित्रगण एकत्र होकर आस लगाये बैठे थे। मेरे मन में यह विश्वास अब जोर पकड़ता जा रहा था कि गुरुदेव के इस रवैये के पीछे कोई समुचित परन्तु अत्यन्त गहन उद्देश्य अवश्य हैं। अपने गुरु की इच्छा को विफल करने का प्रयत्न करने के पश्चाताप से मेरा मन ग्लानि से भर आया।

“मुकुन्द ! क्या तुम थोड़ी देर मेरे साथ यहाँ रहना नहीं चाहोगे?” श्रीयुक्तेश्वरजी पूछ रहे थे। “राजेन्द्र और बाकी लोग अभी आगे जाकर कोलकाता में तुम्हारे लिये रुक सकते हैं। कोलकाता से कश्मीर के लिये शाम को छूटने वाली अंतिम गाड़ी पकड़ने के लिये फिर भी बहुत समय मिलेगा।”

“गुरुदेव! मैं आपके बिना नहीं जाना चाहता,” मैंने विषण्ण मन से कहा।

मेरे मित्रों ने मेरी इस बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्होंने एक घोड़ागाड़ी मँगायी और अपने सारे सामान सहित वे चले गये। कन्हाई और मैं चुपचाप अपने गुरुदेव के चरणों में बैठ गये। आधे घंटे तक सब मौन बैठे रहने के बाद गुरुदेव उठे और दूसरे तल्ले के भोजन कक्ष की ओर चल दिये।

“कन्हाई, मुकुन्द का खाना परोस दो। उसकी ट्रेन का समय हो रहा हैं।”

कंबल के आसन पर से उठते ही अचानक मुझे भयंकर मिचली आने लगी और पेट में मरोड़ के साथ भयंकर शूल उठने लगा। ऐसा लग रहा था मानो पेट में छुरियाँ चल रही हों। यातना इतनी तीव्र थी कि मुझे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने मुझे अचानक दारुण नर्क-कुंड में फेंक दिया हो । अन्धे की भाँति हाथ से टटोलते हुए, लड़खड़ाते कदमों से मैं अपने गुरु की ओर बढ़ने लगा और उनके सामने जाकर ढह पड़ा। भयावह एशियाटिक कालरा के सब लक्षण प्रकट हो गये थे। श्रीयुक्तेश्वरजी और कन्हाई मुझे उठाकर बैठक खाने में ले गये।

भीषण वेदना से तड़पते हुए मैं चीख उठाः “गुरुदेव! मैं अपना जीवन आपके चरणों में समर्पित करता हूँ;” और उस समय मुझे सचमुच ऐसा लग रहा था कि जीवन का सागर मेरे देह-किनारे से दूर जा रहा था।

श्रीयुक्तेश्वरजी ने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया और अत्यंत कोमलता से उसे सहलाते हुए बोलेः “अब तुम्हें पता चला कि इस समय तुम यदि अपने मित्रों के साथ स्टेशन पर होते तो क्या होता? मुझे इस विचित्र प्रकार से तुम्हारी देखभाल करनी पड़ी, क्योंकि यात्रा के इस विशिष्ट समय के बारे में मेरे निर्णय पर तुमने शक किया।”

आखिर मेरी समझ में आ गया। कदाचित ही सिद्ध पुरुष अपनी शक्तियों का खुला प्रदर्शन करना उचित समझते हैं, इसलिये उस दिन की घटनाएँ किसी भी सामान्य मनुष्य को स्वाभाविक ही जान पड़तीं। मेरे गुरुदेव का हस्तक्षेप इतने सूक्ष्म स्तर पर हो रहा था कि उसका पता चलना असंभव था। उन्होंने बिहारी, मेरे चाचा और राजेन्द्र तथा अन्य लोगों के माध्यम से अपनी इच्छाशक्ति को अव्यक्त रूप से कार्यान्वित किया था। मुझे छोड़ कर शायद हर किसी ने परिस्थितियों को तर्कसंगत और सामान्य समझा था।

श्रीयुक्तेश्वरजी अपने सामाजिक दायित्वों को निभाने में कभी चूकते नहीं थे, अतः उन्होंने डॉक्टर को बुला लाने के लिये और चाचाजी को सूचित करने के लिये कन्हाई को भेज दिया।

मैंने विरोध दर्शाते हुए कहा: “गुरुदेव! मुझे केवल आप ही ठीक कर सकते हैं। मैं किसी भी डॉक्टर की शक्ति से बाहर जा चुका हूँ।”

“मेरे बच्चे, ईश्वर की कृपा तुम्हारी रक्षा कर रही है। डॉक्टर की चिंता मत करो; उसे तुम इस अवस्था में नहीं मिलोगे। तुम ठीक हो चुके हो।”

मेरे गुरुदेव के मुँह से ये शब्द निकलते ही मेरी तीव्र वेदना अचानक ग़ायब हो गयी। कमज़ोरी तो थी पर मैं उठकर बैठ गया। शीघ्र ही एक डॉक्टर वहाँ आये और उन्होंने मेरी जाँच की।

“तुम्हारा संकट टल गया है,” उन्होंने कहा। “लैबोरेटरी टेस्ट के लिये तुम्हारे कुछ नमूने मैं अपने साथ ले जाता हूँ।”

दूसरे दिन प्रातःकाल ही डॉक्टर जल्दबाज़ी में आये। मैं स्वस्थचित होकर बैठा हुआ था।

मेरे हाथ को पकड़कर धीरे-धीरे थपथपाते हुए उन्होंने कहाः “अच्छा! तुम तो इस प्रकार बैठकर गपशप कर रहे हो जैसे मृत्यु तुम्हारे पास फटकी भी नहीं थी! तुम्हारे नमूनों के परीक्षण से जब मुझे पता चला कि तुम्हें एशियाटिक कॉलरा हो गया है, तो तुम्हें अभी जीवित देखने की बहुत ही कम आशा मेरे मन में थी। तुम बहुत भाग्यवान हो बच्चे, कि तुम्हें रोग निवारण की दैवी शक्ति से सम्पन्न गुरू मिले हैं! मुझे इस बात का पूरा विश्वास हो गया है!”

मैं पूरी तरह से सहमत था। जब डॉक्टर निकल ही रहे थे, तो राजेन्द्र और आड्डी दरवाज़े पर आ पहुँचे। डॉक्टर और मेरे मुरझाये चेहरों पर दृष्टि पड़ते ही उनके चेहरों पर प्रकट रोष के भाव सहानुभूति में बदल गये।

“जब तुम कोलकाता में ट्रेन के समय पर नहीं पहुँचे, तो हमें बहुत गुस्सा आ गया था। तुम बीमार हो गये हो ?”

“हाँ।” जब मेरे मित्रों ने अपना सामान फिर उसी कोने में रखा जहाँ वह कल था, तो मुझे हँसी आये बिना नहीं रही। उस प्रसंग के योग्य एक पद मेरे मुँह से निकल पड़ाः

“जहाज़ एक निकला था स्पेन जाने के लिये;
वहाँ पहुँचने से पहले ही विवश हुआ लौट आने के लिये !”

गुरुदेव कमरे में आये। मैंने स्वास्थ्य लाभ करने वाले रोगी को मिल सकने वाली छूट का लाभ उठाते हुए प्रेम से उनका हाथ पकड़ लिया।

“गुरुदेव !” मैंने कहा, “बारह वर्ष की आयु से ही मैंने हिमालय जाने का कई बार असफल प्रयास किया और अब अन्ततः मुझे इस बात का विश्वास हो गया है कि आपके आशीर्वाद के बिना देवी पार्वती² मुझे अपने पास नहीं आने देंगी।”


¹ यद्यपि उन दोनों बार गर्मियों में कश्मीर जाने की अपनी अनिच्छा का श्रीयुक्तेश्वरजी ने कभी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस बात का पूर्वज्ञान था कि उनके वहाँ जाकर अस्वस्थ होने का समय अभी नहीं आया था। (प्रकरण २१ दृष्टव्य)

² शब्दश:, “पर्वत की।” पुराणों में पार्वती को हिमालय की बेटी कहा गया है, जिसका निवास तिब्बती सीमा पर स्थित कैलाश पर्वत पर बताया गया है। उस दुर्गम पर्वत के पास से जाते विस्मयचकित यात्रियों को दूर एक ऐसा हिमस्तूप दिखायी देता है जो बर्फ के गुम्बज और बुज से युक्त एक राजमहल जैसा लगता है।

पार्वती, काली, दुर्गा, उमा तथा अन्य देवियाँ जगज्जननी के विभिन्न स्वरूप हैं, जिनका नामकरण उनकी भिन्न-भिन्न लीलाओं के आधार पर हुआ है। अपनी परा प्रकृति के स्वरूप में ईश्वर या शिव सृष्टि में निष्क्रिय हैं; उनकी शक्ति उनकी “सहधर्मिणियों” के सुपुर्द है। इन सृजनकारी “स्त्रीजातीय” शक्तियों के कारण ही ब्रह्माण्ड में अनंत अभिव्यक्तियाँ संभव हो पाती।

पौराणिक कथाओं में हिमालय को शिव का निवास स्थान बताया गया है। देवी गंगा हिमालय से निकली गंगा नदी की अधिष्ठात्री देवी बनने के लिये स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी पर आयीं; इसलिये काव्यभाव में यह कहा जाता है कि गंगा त्रिमूर्ति के संहार-सृष्टिकर्त्ता देव योगिराज शिव की जटाओं के रास्ते से होकर स्वर्ग से पृथ्वी पर बहती है। भारत के शेक्सपीयर कहे जाने वाले महाकवि कालिदास ने हिमालय को “शिव के अट्टहास” की उपमा दी है। द लीगेसी ऑफ इण्डिया (आक्सफर्ड) नामक अपने पुस्तक में एफ. डब्लू. टॉमस लिखते हैं: “पाठकगण किसी प्रकार शिव की धवल दंतपंक्ति के उस विस्तार की कल्पना कर भी लें, तो भी पूरा अनुमान उन्हें तब तक शायद नहीं हो पायेगा, जब तक वे उस गगनचुंबी पर्वतजगत् में शाश्वत रूप से सिंहासनाधिष्ठित उस विराट् योगीश्वर के आकार को समझ न लें, जहाँ गंगा स्वर्ग से उतरने के अपने क्रम में उनकी चंद्रकलामण्डित जटाओं में से होकर बहती है।”

हिन्दू चित्रकला में शिव को प्रायः मखमली कृष्णसारमृगचर्म धारण किये दिखाया जाता है जो रात्रि के कालेपन और रहस्यमयता का प्रतीक है, और यही उस दिगम्बर का एकमात्र परिधान है। कुछ विशिष्ट शैव पंथी भगवान शिव के सम्मान में, जिनके पास कुछ भी नहीं है और सब कुछ है, दिगम्बर ही रहते हैं।

१४वीं शताब्दी में हुई कश्मीर की संत लल्ला योगीश्वरी एक दिगम्बर शिव भक्त थीं। उनके दिगम्बर रहने से उनके एक समकालीन व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँची, अतः उसने उनसे पूछा कि वे नग्न क्यों रहती थीं। “क्यों न रहूँ ?” उन्होंने तीखे स्वर में जवाब दिया। “मुझे आसपास कोई पुरुष दिखायी नहीं देता।” लल्ला को कुछ उग्र विचारधारा के अनुसार जिसने ईश्वर को न जाना हो, वह पुरुष कहलाने के योग्य नहीं। वे क्रिया योग से बहुतसी मिलती-जुलती एक प्रविधि का अभ्यास करती थीं, जिसकी मुक्तिप्रदायक सामर्थ्य की स्तुति उन्होंने असंख्य चौपाइयों में गायी है। यहाँ मैं उनमें से एक का अनुवाद दे रहा हूँ:

दुःख का कौन सा विष मैंने नहीं पिया ?
अनगिनत जन्म-मृत्यु के फेरों में अपने।
आह ! श्वास-नियमन से पिये जाने वाले
मेरे प्याले में, अब अमृत के सिवा कुछ भी नहीं।

मानव-सुलभ मृत्यु के अधीन न होकर वे अग्नि में अन्तर्धान हो गयीं। बाद में शोकसंतप्त नगरवासियों के सामने वे सुनहरे वस्त्रों में लिपटी जीवन्त रूप में प्रकट हुईं – आखिर पूर्ण परिधान धारण कर!