महान सोच - भाग 2 (बाप-बेटी)
आर 0 के0 लाल
"आप कौन होते हैं हम लोगों के बीच बोलने वाले? हमारा झगड़ा हम पति पत्नी के बीच का है, इसलिए आप हमसे दूर ही रहें वरना अच्छा नहीं होगा। हमें किसी की दखल- अंदाजी कदापि पसंद नहीं। न जाने कहां से चले जाते हैं, एक तो अपनी बेटी को ठीक से कोई बात सिखाई नहीं, ऊपर से ऐसी बदमिजाज बेटी को हमारे मत्थे मढ दिया और अब आए हैं उसकी तरफदारी करने" । शंभू नाथ के दामाद ने उन्हें खरी-खोटी सुनाई।
शंभूनाथ ने अपनी इकलौती बेटी सुंदरम की शादी दो साल पहले डॉक्टर श्यामल से किया था। उन्होंने दहेज देने के लिए अपनी पत्नी के सारे गहनों को गिरवी रख दिया था और दमाद जी की सभी ख्वाहिशें पूरी की थी। उनकी नौकरी से कुछ बचता तो था नहीं । वे स्वयं एक साधारण परिवार से थे, किसी तरह कर्ज लेकर दो कमरे का एक घर बनवा लिया था, जिसका ई0 एम0 आई0 अभी तक पूरा नहीं हो सका है। लेकिन उन्होंने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए थे और खूब पढ़ाया लिखाया था। सुंदरम को भी एक लगनशील एवं मेहनती लड़की बनाया था, जिसने अपने दम पर कई क्षेत्रों में खुद को साबित किया था।
इसी का नतीजा था कि पढ़ाई के अंतिम वर्ष में ही सुंदरम को एक बड़ी फार्मास्यूटिकल कंपनी द्वारा केंपस इंटरव्यू के दौरान सिलेक्ट कर लिया गया था और उसे एक बहुत बड़े पैकेज वाला जॉब मिल गया था। शंभू नाथ ने उसका एक भी पैसा खर्च नहीं किया था बल्कि अपनी बेटी के नाम से सब कुछ जमा करते रहे थे। शादी के समय बैंक की पास-बुक वगैरह भी बेटी को दे दिया था। वे कहा करते थे कि बेटा भाग्य से तो बेटी सौभाग्य से मिलती है ।
शंभूनाथ ने अपनी बेटी की शादी एक ऑनलाइन मेट्रोमोनियल एप के माध्यम से तय की थी और भाग्यवश उन्हें अपनी बेटी के लिए एक अच्छा खानदान मिल गया था। उन्हें उम्मीद थी कि उसकी बेटी सुख पूर्वक अपने नए घर में रहेगी पर न जाने क्यों दोनों पति-पत्नी में पट नहीं रही थी। आए दिन उनमें आपस में लड़ाई-झगड़ा होता रहता था। कुछ ज्यादा बात बढ़ जाने पर ही आज वे अपनी पत्नी शीला के साथ बेटी के बुलाने पर उसकी ससुराल आए थे। सुबह से ही सुंदरम बुरी तरह रो रही थी और घर में कलह मचा था। शंभू नाथ उनके बीच सुलह कराने की गरज से अपनी बेटी और दामाद दोनों से बात कर रहे थे। वे उन्हें समझा रहे थे और मगर उनके दमाद जी तो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे । शंभू नाथ के कुछ कटु प्रश्न करने पर तो डॉक्टर श्यामल तेज भड़क गए और काबू से बाहर होकर अपने इन-लॉज को उल्टा-सीधा सुना दिया। उनका तमतमाया चेहरा देखकर शीला तो डर ही गई थी और रोने लगी थी। शंभूनाथ रो तो नहीं पा रहे थे लेकिन उन्हें बहुत बुरा लग रहा था कि आज किसके कर्मों का फल उन्हें मिल रहा है। उन्होंने कभी भी किसी को भला बुरा नहीं कहा था और बच्चों में सुसंस्कार कूट-कूट कर भरे थे। बच्चों के कारण उन्हें लगता था कि समाज में उनका सिर ऊंचा हो गया है ।
अपने दामाद की बात "आप कौन होते हैं?" बार बार उनके दिमाग में घूम रही थी और वे सोचे जा रहे थे कि मैं कौन होता हूं? मैंने तो अपनी बेटी को दान स्वरूप उन्हें सौंप दिया है। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या सही में बेटी से मेरे सारे रिश्ते खत्म हो गए हैं। वे सोच रहे थे कि जिस बेटी को हमने बेटे के समान बिना किसी भेद-भाव के पाला है, जो हमारे जिगर का टुकड़ा बन गई थी और जिसमें मेरी जान बसती थी उसकी शादी करते ही क्या मैं बेजान काया मात्र ही रह गया हूं। आज के समाज के पढ़े लिखे लोगों में यह कैसी सोच विकसित हो गई है ।
शीला जब भी कभी सुंदरम को सुबह सुबह पढ़ने के लिए उठा देती थी तो शंभूनाथ कहा करते थे, "सो लेने दो सुंदरम को। अभी तो 4:00 ही बजे हैं। कुछ दिनों तक ही यह हमारे पास रहेगी, फिर इसकी शादी हो जाएगी और यह चली जाएगी, हमसे न जाने कितनी दूर। जानती हो कि शादी होते ही इसकी नींदे गायब होने लगेगी और इसके मां बनते ही यह तुम्हारी तरह रात रात भर जागेगी। फिर कहां बिचारी सो पाएगी।" शंभूनाथ बार-बार उसे दूर से सोते हुए देखते। सहला कर तो प्यार नहीं कर पाते लेकिन ऊपर से ह्रदयवत प्यार की बौछारें बरसाने का प्रयास करते ।
आज शंभूनाथ अपने दामाद को जवाब देना चाहते थे । वे दुखी मन से बोले, "आज कोई पूछे कि मैं कौन हूं तुम लोगों का, तो एक बड़े दुख का पहाड़ मेरे ऊपर टूटता दिखाई पड़ता है। उन्होंने कहा बेटा तुम्हें एहसास नहीं कि तुम कितनी असह्नीय बात मुझसे कह रहे हो। मेरी बेटी, मेरी शक्ति और खुशी ही तो थी जिसे मैंने अपने हाथों से यहां भेज दिया है। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि मेरा उसके संबंध ही खत्म हो गया है। कहा जाता है कि पति -पत्नी के सात जन्मों तक एक साथ रहने पर उद्धार होता है पर बेटी तो अपने मां बाप के लिए पहली बार ही मोक्षदायिनी हो जाती है”।
उन्होंने कहना जारी रखा कि लोग दामाद को अपने बेटे से बढ़कर इसलिए मानते हैं ताकि उन्हें लगे कि वह अपनी बेटी को ही प्यार कर रहे हैं। इसीलिये हम तुम्हारे सामने सिर झुकाए खड़े रहते हैं । मेरी बेटी तुम्हारी पत्नी हो सकती है मगर वह तुम्हारी बेटी कभी नहीं हो सकती । बेटी क्या होती है तुम्हें तभी पता चलेगा जब तुम्हारी अपनी बेटी होगी। पति -पत्नी बन जाने के बाद केवल पत्नी अर्धांगिनी नहीं बनती बल्कि पति भी उसका आधा हिस्सा हो जाता है। इस प्रकार तुम मेरे आधी बेटी और मेरी बेटी तुम्हारे पेरेंट्स के लिए आधा बेटा बन गई है। तुम दोनों के अब दो पेरेंट्स हैं जो तदानुसार व्यवहार करते हैं। बच्चों को भी वैसा व्यवहार करना चाहिए। यही भारतीय संस्कृति वाली सोच है ।
शंभूनाथ ने भरे गले से कहा कि बेटे के बिछड़ जाने पर राजा दशरथ तो बना जा सकता है मगर बेटियों के बिछड़ने पर प्राण भी नहीं त्यागा जा सकता क्योंकि हमेशा उसकी चिंता लगी रहती है । भले वह हमारे घर न आए मगर हम सदैव उसके ऊपर एक परछाई बनकर रहना चाहते हैं। ऐसे में तुम दोनों में से किसी की भी गलती हो हम अपने जिगर का ट्रांसप्लांट नहीं करा पाएंगे। उचित होगा कि तुम भी हमारी भावनाओं को समझोगे। ऐसा कहते हुए शंभूनाथ जी ने अपने दामाद और बेटी की सोच बदलने को मजबूर कर दिया। एक अच्छे परिणाम की आशा में ।
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