एक योगी की आत्मकथा - 9 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 9

{ परमानन्दमग्न भक्त और उनकी ईश्वर के साथ प्रेमलीला }

“छोटे महाशय, बैठो। मैं अपनी जगन्माता से वार्तालाप कर रहा हूँ।”

मैंने अत्यन्त श्रद्धा के साथ कमरे में चुपचाप प्रवेश किया था। मास्टर महाशय के देवता सदृश रूप ने मुझे चकाचौंध कर दिया। श्वेत रेशम समान दाढ़ी और विशाल तेजस्वी नेत्रों से युक्त वे पवित्रता का साक्षात् अवतार लग रहे थे। ऊपर की ओर उठा हुआ उनका चेहरा और जुड़े हुए हाथ देखकर मैं समझ गया कि उनके पास मेरे उस प्रथम आगमन ने उनकी अर्चना में बाधा डाली है।

उस समय तक मुझे जितने धक्के लगे थे उन सब से बढ़कर तीव्र धक्का उनके स्वागतपूर्ण सरल शब्दों से लगा। माँ की मृत्यु के कारण हुए विरह-दुःख को ही मैं दुःख की पराकाष्ठा मानता आ रहा था। अब अपनी जगन्माता से विरह की भावना मेरी आत्मा को अवर्णनीय यातना देने लगी। विलाप करते हुए मैं ज़मीन पर गिर पड़ा।

“छोटे महाशय, शांत हो जाओ!” संतवर को सहानुभूतिपूर्ण दुःख हो रहा था।

किसी अगाध समुद्र में असहाय छोड़ दिये गये मनुष्य की तरह अपने बचाव का एकमात्र उपाय जानकर मैंने उनके चरणों को कसकर पकड़ लिया।

“महात्मन्, आप मध्यस्थता करें। जगन्माता से पूछिये कि क्या मुझ पर उनकी कृपादृष्टि होगी ?”

इस प्रकार की मध्यस्थता का वचन सहज ही नहीं दे दिया जाता; अतः महात्मा चुप रहने पर बाध्य हो गये।

मुझे समस्त शंकाओं से परे विश्वास हो गया था कि मास्टर महाशय वहाँ जगन्माता से घनिष्ठता के साथ वार्तालाप कर रहे थे। यह सोचकर मैं अत्यंत अपमानित अनुभव कर रहा था कि मेरी आँखें जगन्माता को देख नहीं सकती थीं जिन्हें अभी इस समय भी उस सन्त की निर्मल दृष्टि निहार रही थी। निर्लज्जतापूर्वक उनके पाँव पकड़े हुए और उनके सौम्य विरोध को अनसुना करते हुए मैं बार-बार उनकी मध्यस्थता की कृपा की याचना उनसे करता रहा।

“मैं परमप्रिय माँ तक तुम्हारी प्रार्थना पहुँचा दूंगा।” मास्टर महाशय ने आखिर हार मानकर सहानुभूतिपूर्वक धीरे से मुस्कराते हुए कहा।

क्या शक्ति थी उन शब्दों में कि मेरा मन विरह-व्याकुलता से तुरन्त मुक्त हो गया!

“महाशय, अपना वचन याद रखिये! माँ का सन्देश पाने के लिये मैं पुनः शीघ्र ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।” एक क्षण पूर्व ही दुःख और सिसकियों से मेरा जो कण्ठस्वर अवरुद्ध हुआ जाता था, अब आशा की आनन्द ध्वनि से मुखरित हो रहा था।

लम्बे जीने से नीचे उतरते-उतरते अतीत की स्मृतियों से मेरा मन भर आया 50, एमहर्स्ट स्ट्रीट के इसी घर में, जो अब मास्टर महाशय का आवास था, किसी समय मेरा परिवार रहा करता था। यहीं मेरी माँ की मृत्यु हुई थी। स्वर्गवासी माता के लिये यहीं पर मेरा मानवी हृदय पीड़ित हुआ था; और यहीं पर आज जगन्माता के विरह में मेरी आत्मा विद्ध हो उठी थी। मेरे शोकविह्वल मन की वेदनाओं और अंततः मेरी निरामयता की मौन साक्षी बनी यही वे पुनीत दीवारें थीं!

घर जाते हुए मेरे पाँव उत्सुकतावश जल्दी-जल्दी उठ रहे थे। अपनी छोटी-सी अटारी में मैं दस बजे तक एकान्त में ध्यान करता रहा उष्ण रात्रि का अन्धकार अचानक एक अद्भुत दृश्य के साथ प्रकाशमान हो उठा।

दिव्य आभायुक्त जगजननी मेरे सामने खड़ी थीं। मधुर स्मित करता उनका मुखारविंद परमसौन्दर्य का मूर्त रूप था।

“सदा ही‍ मैंने तुम्हें प्रेम किया है! सदैव मैं तुमसे प्रेम करती रहूँगी!"

उनका दिव्य स्वर अभी वातावरण में गूँज ही रहा था कि वे अदृश्य हो गयीं।

दूसरे दिन प्रातः काल सूर्य ने क्षितिज पर अभी झाँकना आरम्भ ही किया था कि मैं मास्टर महाशय के घर पहुँच गया। हृदयविदारक स्मृतियों से जुड़े उस घर की सीढ़ियाँ चढ़ कर मैं चौथी मंजिल पर उनके कमरे के सामने पहुँच गया। बन्द दरवाजे की मूठ पर एक कपड़ा लिपटा हुआ था जो शायद इस बात का संकेत था कि वे एकान्त चाहते हैं। मैं दरवाजे के सामने दुविधा में खड़ा था कि इतने में मास्टर महाशय ने स्वयं ही दरवाजा खोल दिया। मैंने उनके पूज्य चरणकमलों में प्रणाम किया।

दिव्य उल्लास को छिपाते हुए मैंने विनोद भाव में अपना मुख गम्भीर बना लिया।

“महाशय, आपके सन्देश के लिये मैं आ गया हूँ – मैं मानता हूँ कि अति भोर में ही आ गया हूँ! क्या प्रिय जगज्जननी ने मेरे विषय में कुछ कहा?”

“नटखट छोटे महाशय!”

इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। स्पष्ट था कि मेरी गम्भीरता का नाटक प्रभावी नहीं था।

“इतनी गूढ़ता, इतना छल क्यों? क्या सन्त कभी सीधी बात नहीं करते ?” मैं शायद थोड़ा चिढ़ गया था।

“क्या मेरी परीक्षा लेना अनिवार्य है ?” उनकी शांत आँखें समझदारी और विवेक से भरपूर थीं। “कल रात को 10 बजे स्वयं दिव्यरूपा जगन्माता ने तुम्हें जो आश्वासन दिया, उसके बाद भी अब मेरे लिये कहने को कुछ बचा है?”

मेरी आत्मा की खिड़कियों को खोलने की कुंजी मास्टर महाशय के पास थी; मैंने पुनः उनके चरणों में साष्टांग प्रणिपात किया। परन्तु इस बार मेरी आँखों से जो अश्रु बह रहे थे वे अतीव हर्ष के थे, दुःख के नहीं।

“क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारी भक्ति ने माता की अनंत करुणा को नहीं हुआ है ? ईश्वर का मातृभाव, जिसे तुमने मानवी और दैवी रूपों में पूजा है, तुम्हारी आर्त्त पुकार का उत्तर दिये बिना कदापि नहीं रह सकता।”

ये सीधे-सादे सन्त कौन थे, जिनका परमसत्ता से किया गया छोटे से छोटा अनुरोध भी मधुर स्वीकृति पा जाता था? इस संसार के जीवन में उनकी भूमिका अत्यंत साधारण थी, जो मेरी दृष्टि में विनम्रता के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति के अनुरूप थी। एमहर्स्ट स्ट्रीट के इस घर में मास्टर महाशय¹ लड़कों के लिये एक छोटा सा हाईस्कूल चलाते थे। उनके मुँह से कभी डाँट-फटकार का कोई शब्द नहीं निकलता था। उनका अनुशासन किसी नियम या छड़ी की वजह से नहीं था। इन सादगीयुक्त कक्षाओं में सच्चा उच्चतर गणित सिखाया जाता था, और सिखाया जाता था प्रेम का रसायन शास्त्र जिसका पाठ्यपुस्तकों में कभी कोई उल्लेख भी नहीं मिल सकता।

अगम्य प्रतीत होने वाले नीरस उपदेशों की अपेक्षा आध्यात्मिक संसर्ग के द्वारा ही वे अपने ज्ञान का प्रसार करते थे। जगज्जननी के विशुद्ध प्रेम में वे इतने चूर रहते थे कि मान-अपमान की बाह्य औपचारिकताओं की ओर उनका कोई ध्यान ही नहीं रहता था।

“मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूँ तुम्हारे गुरु थोड़े समय बाद आयेंगे,” उन्होंने मुझसे कहा। “उनके मार्गदर्शन में प्रेम और भक्ति के रूप में तुम्हें मिली ईश्वर की अनुभूतियाँ उनके अगाध ज्ञान की अनुभूतियों में रूपांतरित हो जायेंगी।”

प्रतिदिन दोपहर ढलते-ढलते मैं एमहर्स्ट स्ट्रीट में उनके घर पहुँच जाता। मुझे मास्टर महाशय के उस दिव्य चषक की चाह रहती थी जो इतना लबालब भरा हुआ था कि उसकी बूंदें प्रतिदिन मेरे ऊपर छलकती थीं। पहले कभी भी इतने भक्तिभाव से मैं नतमस्तक नहीं हुआ था; अब तो मास्टर महाशय के चरणस्पर्श से पुनीत हुई भूमि पर केवल चलने का अवसर मिलने को भी मैं अपना सौभाग्य मानने लगा।

“महाशय! कृपया इस चंपकमाला को धारण कीजिये। मैंने यह खास आपके लिये बनायी है।” एक दिन शाम को मैं अपनी पुष्पमाला हाथ में लिये उनके घर पहुँच गया। परन्तु बार-बार इस सम्मान को अस्वीकार करते हुए वे संकोच से पीछे हट गये। मेरे दुःख का अनुभव करते हुए अन्ततः उन्होंने मुस्कराते हुए उसे स्वीकार कर लिया।

“चूँकि हम दोनों ही माँ के भक्त हैं, इसलिये इस शरीर में वास करने वाली माँ के प्रति अपनी श्रद्धा के रूप में तुम वह माला इस देह मन्दिर को पहना सकते हो।” उनके विशाल स्वभाव में कहीं तनिक भी जगह नहीं थी कि अहंकार अपना पग जमा सके।

“कल हम मेरे गुरु के वास से सदा के लिये धन्य हुए दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर चलेंगे।” मास्टर महाशय ईसा-सदृश गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे।

अगले दिन सुबह दक्षिणेश्वर तक की चार मील की यात्रा हमने नाव से तय की। काली के नौ गुम्बदों वाले मन्दिर में हमने प्रवेश किया जहाँ माँ काली और शिव की मूर्ति अति कौशल से निर्मित चाँदी के चमकदार सहस्रदल कमल पर विराजमान है। मास्टर महाशय आनन्द से प्रफुल्लित हो उठे। वे अपनी प्रियतम माँ के साथ अथक प्रेमलीला में मग्न थे। जैसे जैसे वे माँ का नाम जपते जा रहे थे, मेरा आनंदित मन मानो उस सहस्रदल कमल की तरह ही सहस्रधाराओं में फूट पड़ रहा था।

कुछ देर बाद हम दोनों उस पुण्यभूमि में टहलते-टहलते झाऊ के झुरमुट में जाकर रुक गये। इस पेड़ की विशेषतास्वरूप इस से झरने वाला मधुर रस मानों मास्टर महाशय से झरते अमृत का प्रतीक था। उनका नाम जप चलता ही जा रहा था। झाऊ के गुलाबी परदार पुष्पों के बीच मैं घास पर सख्त, निश्चल शरीर से बैठा रहा। उतने समय के लिये मैं शरीर को भूलकर दिव्य लोकों की यात्रा करता रहा।

इस संत के साथ की हुई दक्षिणेश्वर की अनेक तीर्थयात्राओं में यह प्रथम थी मास्टर महाशय से ही मैंने ईश्वर के मातृत्व पक्ष या ईश्वरीय करुणा के माधुर्य को जाना। उस शिशुसरल संत को ईश्वर के पितृत्व पक्ष या ईश्वरीय न्याय में कोई रुचि नहीं थी। कठोर, सटीक, गणितीय निर्णय की कल्पना ही उनके कोमल स्वभाव के विपरीत थी।

“ये तो पृथ्वी पर स्वर्ग के साक्षात् देवताओं के प्रतिरूप हैं!” एक दिन उन्हें प्रार्थना करते देख मेरे मन में उनके प्रति प्रेम से भरकर विचार उठा। किसी प्रकार की निंदा आलोचना या गुण-दोष का विचार कभी उनके मन में नहीं उठा। वे तो इस जगत् को आद्यपवित्रता से चिरपरिचित अपनी दृष्टि से ही निहारते थे। उनके काया, वाणी, मन, कर्म, सब कुछ उनकी आत्मा की सरलता के साथ सहज सुसामंजस्य रखते थे।

“मेरे गुरुदेव ने मुझे यही बताया था।” अपने हर उपदेश को किसी प्रकार के आग्रह या अधिकारवाणी के बिना इसी श्रद्धापूरित वाक्य के साथ वे समाप्त करते थे। श्रीरामकृष्ण के साथ मास्टर महाशय की एकात्मता इतनी गहरी हो गयी थी कि अपने किसी भी विचार को अब वे अपना विचार नहीं मानते थे।

एक दिन संध्या समय मास्टर महाशय और मैं एक दूसरे का हाथ थामे उनके स्कूल के पास वाले रास्ते पर चल रहे थे। मेरा आनंद फीका हो गया जब एक परिचित घमंडी व्यक्ति वहाँ आ पहुँचा। उसने अपने लम्बे प्रवचन से हमें तंग कर दिया।

“मैं देख रहा हूँ कि तुम इस आदमी से प्रसन्न नहीं हो।” मास्टर महाशय की मेरे कान में यह फुसफुसाहट अपनी ही बातों में मग्न उस घमंडी को सुनायी नहीं दी। “मैंने इस बारे में जगन्माता को बता दिया है; उन्हें भी हमारी दुःखद परिस्थिति का ज्ञान है। उन्होंने वचन दिया है कि जैसे ही हम उस लाल मकान के पास पहुँचेंगे, वे इस आदमी को एक अत्यावश्यक काम की याद दिला देंगी।”

मेरी दृष्टि उस मुक्ति-स्थल पर लगी रही। उसके लाल द्वार पर पहुँचते ही अपना अधूरा वाक्य भी पूरा किये बिना और कुछ भी कहे बिना वह व्यक्ति अचानक मुड़कर चला गया। विक्षुब्ध वातावरण में फिर से शांति छा गयी।

एक अन्य दिन मैं हावड़ा रेलवे स्टेशन के पास अकेला ही टहल रहा था। एक पल के लिये मैं एक छोटे से मन्दिर के पास खड़ा हो गया और वहाँ ढोलक, करताल के शोर में जोर-जोर से कीर्तन करते लोगों को मन ही मन कोसने लगा।

“केवल मुँह से तोते की तरह प्रभु का पवित्र नाम लेते रहने वाले इन लोगों के कीर्तन में भक्ति का कितना अभाव है”, मैं मन ही मन सोच रहा था। अचानक मास्टर महाशय को तेज कदमों से अपनी ओर आते देखकर मैं विस्मित हो गया।

“महाशय, आप यहाँ कैसे ?”

उस सन्त ने मेरे प्रश्न की ओर कोई ध्यान न देकर सीधे मेरे मन के विचार का उत्तर दिया। “क्या यह सच नहीं है छोटे महाशय, कि प्रभु का नाम किसी भी मुँह से क्यों न निकला हो, मधुर ही लगता है चाहे वह मुँह अज्ञानी का हो या ज्ञानी का?” उन्होंने स्नेहपूर्वक एक हाथ से मुझे अपने अंक में भर लिया; उनके जादू के गालिचे पर सवार होकर मैं तुरंत जगज्जननी के दयामयी सान्निध्य में पहुँच गया।

“क्या तुम कुछ बायोस्कोप देखना चाहोगे?” एक दिन अपराह्न को एकान्तप्रिय मास्टर महाशय से यह प्रश्न सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ उस समय भारत में चलचित्र को बायोस्कोप कहते थे। मैं सहमत हो गया; किसी भी कारण से क्यों न हो, उनके सान्निध्य में रहने का आनंद मेरे लिये पर्याप्त था। द्रुत गति से चलते हुए थोड़ी ही देर में हम कोलकाता विश्वविद्यालय के सामने स्थित बगीचे में पहुँच गये। मास्टर महाशय ने दीघी (जलकुंड) के पास स्थित एक बेंच की ओर इशारा किया।

“यहाँ कुछ देर बैठते हैं। मेरे गुरुदेव ने मुझे बताया था कि जब भी कोई जलाशय दिखायी दे तो ध्यान करना चाहिये। यहाँ यह शान्त जल ईश्वर की विराट शान्ति का स्मरण कराता है। जिस प्रकार जल में सभी वस्तुओं का प्रतिबिंब पड़ता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विश्व-चैतन्य में प्रतिबिंबित होता है। मेरे गुरुदेव प्रायः यह कहते थे।”

थोड़ी देर बाद हम विश्वविद्यालय के एक कक्ष में गये जहाँ एक लेक्चर चल रहा था। बीच-बीच में स्लाइडस से चित्र भी दिखाये जा रहे थे, किन्तु वह लेक्चर और स्लाइड शो, दोनों ही समान रूप से अत्यंत नीरस थे।

“तो ये है वह बायोस्कोप जो मास्टर महाशय मुझे दिखाना चाहते थे!” मैं अधीर हो उठा था, परन्तु चेहरे पर उकताहट का कोई भाव लाकर मैं मास्टर महाशय को दुःखी नहीं करना चाहता था। इतने में वे चुपचाप मेरी ओर झुके।

“मैं देख रहा हूँ छोटे महाशय, कि तुम्हें यह बायोस्कोप अच्छा नहीं लग रहा है। मैंने यह बात जगजननी को बता दी है और उन्हें भी हम दोनों से पूर्ण सहानुभूति है। उन्होंने मुझसे कहा है कि अभी बिजली की रोशनी बंद हो जायेगी और तब तक पुनः नहीं जलेगी जब तक हम दोनों यहाँ से खिसक न लें।”

जैसे ही मेरे कान में चल रही उनकी यह फुसफुसाहट समाप्त हुई, कक्ष में अंधेरा छा गया। अब तक ऊँची आवाज़ में ज़ोर-ज़ोर से व्याख्यान दे रहे प्रोफेसर महोदय की वाणी विस्मय से एक पल के लिये रुक गयी और फिर उन्होंने कहा, “इस कक्ष की विद्युत प्रणाली में कुछ गड़बड़ मालूम होती है।” इतने समय में मास्टर महाशय और मैं उस कक्ष के द्वार से बाहर निकल चुके थे। बरामदे में से जाते हुए मैंने पलटकर पीछे देखा तो उस कक्ष में फिर से रोशनी हो गयी थी।

“छोटे महाशय, उस बायोस्कोप से तुम निराश हो गये थे परन्तु मैं समझता हूँ कि तुम्हें एक दूसरा बायोस्कोप अवश्य पसन्द आयेगा।” मास्टर महाशय और मैं विश्वविद्यालय भवन के सामने एक फुटपाथ पर खड़े थे। उन्होंने हृदय के स्थान पर मेरी छाती पर धीरे से थपकी दी।

उसी के साथ मुझ पर एक अद्भुत निःस्तब्धता छा गयी। जैसे आधुनिक बोलपट (talkies), यदि ध्वनियंत्र में कुछ खराबी आ जाय तो मूक चलचित्र बन जाते हैं, उसी प्रकार, विधाता के हाथ ने किसी अगम्य चमत्कार के द्वारा जगत् के सारे कोलाहल का गला घोंट दिया। पदयात्री, ट्रामगाड़ियाँ, मोटर कारें, बैलगाड़ियाँ, लोहे के चक्कों वाली घोड़ागाड़ियाँ, सब बिना कोई आवाज किये इधर से उधर आ-जा रहे थे। मैं अपने पीछे, दायें, बायें के सभी दृश्य वैसे ही देख रहा था जैसे अपने सामने के दृश्य; मानों मेरी दृष्टि सर्वव्यापी हो गयी हो। कोलकाता के उस छोटे-से हिस्से की समस्त गतिविधियों का परिदृश्य मेरे समक्ष बिना कोई आवाज किये चल रहा था। राख की पतली परत के नीचे नज़र आने वाली अग्नि की दीप्ति के समान मद्धिम प्रभा सारे परिदृश्य में व्याप्त थी।

मेरा अपना शरीर उस परिदृश्य में विद्यमान अनेकानेक परछाइयों से अधिक कुछ भी नहीं लग रहा था; फर्क सिर्फ इतना था कि मेरे शरीर की परछाई निश्चल थी जबकि अन्य सभी परछाईयाँ बिना किसी आवाज के इधर-उधर आ-जा रहीं थीं। कई लड़के, जो मेरे मित्र ही थे, मेरी ओर आये और चले गये; यद्यपि उन्होंने मेरी ओर सीधे देखा परन्तु उसमें पहचान का कोई संकेत तक नहीं था।

इस अद्वितीय मूकनाट्य ने मुझे एक अवर्णनीय आनंद से विभोर कर दिया। मैं किसी आनंदामृत के झरने से जी भरकर अमृतपान कर रहा था। अकस्मात् मेरी छाती पर पुनः मास्टर महाशय का कोमल आघात हुआ। जगत् का कर्णकर्कश कोलाहल मेरी अनिच्छुक श्रवणेंद्रियों पर टूट पड़ा। मैं लड़खड़ाया, जैसे किसी ने अत्यंत नाजुक स्वप्न से निष्ठुरतापूर्वक जगा दिया हो। वह दिव्य मदिरा मेरी पहुँच से बाहर हटा दी गयी थी।

“छोटे महाशय, मैं देख रहा हूँ कि यह दूसरा बायोस्कोप² तुम्हें अच्छा लगा।” वे मुस्करा रहे थे। मैं कृतज्ञतावश उनके सामने भूमि पर माथा टेकने के लिये झुकने लगा। “अब तुम मेरे साथ यह नहीं कर
सकते”, उन्होंने कहा। “तुम जान गये हो कि भगवान तुम्हारे देहमंदिर में भी स्थित है! मैं जगन्माता को तुम्हारे हाथों के माध्यम से अपने चरणों को छूने नहीं दूंगा!”

यदि किसी ने सीधे-सादे विनम्र मास्टर महाशय को और मुझे उस समय उस भीड़भरे फुटपाथ से दूर जाते देखा होगा तो उसे अवश्य ही सन्देह हुआ होगा कि हम दोनों नशें में धुत हैं। मुझे लग रहा था कि संध्या के प्रकाश की रंग बदलती छटाएँ भी हमारी ही तरह ईश्वर के नशे में डूबी जा रही थीं।

तुच्छ शब्दों में उनकी महत्कृपा का वर्णन करने का प्रयास करते हुए यह विचार मेरे मन में आये बिना नहीं रहता कि क्या मास्टर महाशय और अन्य संतजनों को, जिनसे मैं मिला था, उस समय यह ज्ञात होगा कि अनेक वर्षोपरान्त मैं एक पाश्चात्य देश में बैठकर उनके भगवद्भक्तिरस से ओतप्रोत जीवन की गाथाएँ लिखूँगा? उन्हें इसका पूर्वज्ञान हो तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा, न ही, मैं सोचता हूँ मेरे पाठकों को होगा जो यहाँ तक मेरे साथ रहे हैं।

सभी धर्मों के सन्तों ने ईश्वर को दिव्य प्रियतम मानकर उस सरल आधार पर ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त किया है। चूँकि परंब्रह्म निर्गुण और अचिंत्य है, इसलिये मानवी विचार और आकांक्षा ने सदा ही उसे जगन्माता का रूप दिया है। साकार, सगुण ईश्वर और निराकार, निर्गुण ब्रह्म के मतों का संयोग हिंदु विचारधारा की प्राचीन उपलब्धि है, जिसका प्रतिपादन वेदों और भगवद्गीता में किया गया है। “परस्पर विरोधी विचारों का यह मिलाप” हृदय और बुद्धि दोनों को ही संतुष्ट करता है। भक्ति और ज्ञान मूलतः एक ही हैं। प्रपत्ति (ईश्वर में आश्रय लेना) और शरणागति (ईश्वरीय अनुकम्पा के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव) वस्तुतः सर्वोच्च ज्ञान के पथ हैं।

मास्टर महाशय एवं अन्य सभी सन्तों की विनम्रता इस बोध से उपजती है कि वे पूर्णतः उस ईश्वर पर निर्भर हैं जो एकमात्र जीविताधार और एकमात्र विधाता है। चूँकि ईश्वर का स्वरूप ही आनंद है, अतः ईश्वर के साथ तदात्म होनेवाला या उस में मग्न होनेवाला मनुष्य सहज ही असीम आनंद को अनुभव करता है।” आनंद उन सब चीजों में सर्वप्रथम और सर्वोपरि है जिनके लिये आत्मा और इच्छाशक्ति तड़पती है।”³

सभी युगों के सन्तों ने शिशुसुलभ भाव से जगन्माता को प्राप्त किया और उन सभी ने कहा कि उन्होंने सदा ही जगन्माता को उनके साथ खेलते पाया। मास्टर महाशय के जीवन में महत्त्वपूर्ण और महत्त्वहीन अवसरों पर भी इस दिव्य खेल की अभिव्यक्तियाँ स्पष्ट हुईं। ईश्वर की दृष्टि में कुछ भी छोटा या बड़ा नहीं होता। यदि छोटे-से परमाणु को बनाने में ईश्वर ने अपनी अतिशय सूक्ष्म-दर्शिता के औचित्य को न लगाया होता तो क्या आकाश अभिजित और स्वाति नक्षत्रों जैसी गौरवशाली रचनाओं को धारण कर पाता ? “महत्त्वपूर्ण” और “महत्त्वहीन” का भेद प्रभु के लिये निश्चय ही अज्ञात है कि कहीं एक सुई के अभाव में पूरा ब्रह्माण्ड ही ढह जाय !



¹ [वे साधारणतः इस सम्मानपूर्ण उपाधि से ही संबोधित किये जाते थे। उनका नाम महेन्द्रनाथ गुप्त था। अपनी साहित्यिक रचनाओं पर वे केवल 'म' के संक्षिप्त रूप में ही अपना नाम लिखते थे।]

² वेबस्टर की न्यू इंटरनेशनल डिक्शनरी (1934) में कहा गया है कि कभी-कभी बायोस्कोप की व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है: "जीवन का दृश्य; वह जो ऐसा दृश्य प्रस्तुत करता है।" तो मास्टर महाशय ने जो शब्द चुना था वह विलक्षण रूप से यथार्थ था।

³ [सेंट जॉन ऑफ़ द क्रॉस इस प्रिय ईसाई सन्त की मृत्यु १५९१ में हुई थी। १८५९ में उनके पार्थिव शरीर को जब कब्र से बाहर निकाला गया तो उसमें किसी प्रकार का कोई विकार नहीं हुआ था।

सर फ्रांसिस यंगहस्बैंड (अटलान्टिक मन्थली, दिसम्बर १९३६) ने परमानन्द की अपनी वैयक्तिक अनुभूति के विषय में कहा है: “उल्लास या हर्ष से भी कहीं अधिक तीव्र भावना मेरे मन में उठी; मैं आनन्द में पूर्णतः विभोर हो गया, और इस अवर्णनीय एवं असह्यप्राय आनंद के साथ ही संसार की सारभूत महानता का बोध मेरे अन्तःकरण में जागा मुझे संशयातीत विश्वास हो गया कि लोग मन से अच्छे होते हैं, कि उनकी बुराइयों केवल बाह्य होती हैं।