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एक असमंजस में झूल रही थी मैं, न जाने कब से | मन केवल और केवल उत्पल की ओर झुक रहा था और सामाजिक रूप से, खुद अपने मन में कहीं गिल्ट भी महसूस कर रहा था लेकिन प्रेम पर कैसे कंट्रोल किया जा सकता है? अगले दिन नाश्ते पर अम्मा-पापा की आँखों में न जाने कितने सवाल भरे हुए थे लेकिन मैं उनकी आँखों में भरे हुए सवालों को समझते हुए भी नहीं समझ रही थी | आखिर क्या बताती? ये सब बातें दोस्तों –वो भी किसी करीब के दोस्त से शेयर करने तक तो ठीक---पर अम्मा-पापा को?
शायद उत्पल मेरे चेहरे को देखकर इतना तो समझ ही गया था कि श्रेष्ठ की और मेरी पटरी नहीं बैठी | जब मैं श्रेष्ठ के साथ जा रही थी, वह उद्विग्न और उदास दिखाई दे रहा था लेकिन जब मैं लौटकर आई, उसके मुरझाए चेहरे पर एक चमक आ गई | अगले दिन वह किसी न किसी बहाने से मेरे पास कई बार चक्कर काट गया | आखिर क्या कहना चाहता था? क्यों वह मेरे आस-पास मंडराता है, मैं जानती तो थी ही लेकिन हम सब बंधे रहते हैं न ऐसे कुछ बंधनों में जिनकी सीमाएँ होती हैं | जबकि मैं बहुत खुले दिल से मानती थी कि प्रेम को बांधकर नहीं रखा जा सकता, प्रेम स्वतंत्रता में खिलता, खुलता है लेकिन---
अगले दिन शीला दीदी ने मुझसे पूछा कि मैंने श्रेष्ठ के बारे में क्या सोचा था? मैं चुप रह गई, आखिर उन्हें कैसे बताती कि उसकी किस बात से मैं परेशान हो गई थी? ये सब बड़ी स्वाभाविक स्थितियाँ थीं | आजकल कोर्टशिप कोई नई बात तो थी नहीं लेकिन जो बात मुझे पहली मीटिंग में ही समझ न आई हो, उसके बारे में आगे कैसे बात कर पाती? बहुत-बहुत कंफ्यूज़ थी | शीला दीदी और रतनी दोनों ही बहुत समझदार थीं, उन्होंने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया और मैं फिर से शून्य पर ही खड़ी रह गई |
मुझे श्रेष्ठ की एक और बात अचानक याद आ गई | कभी उसने न जाने किस बात की चर्चा करते हुए कहा था कि पैसा होना चाहिए, आदमी को सब कुछ मिल जाता है | सच है, मेरे अनुसार से वह भौतिक चीज़ों के लिए ठीक भी था लेकिन कोई भी भला प्यार कैसे खरीद लेता? और संवेदनाएँ? हाँ, शरीर खरीद सकता था लेकिन मेरे जैसी स्त्री का तो नहीं, वह जानता था कि मेरे परिवार में पैसे की कोई कमी नहीं थी और न ही उसका दिखावा! हमने शुरू से ही दादी से सीखा था कि खूब पैसा कमाओ, कोई हर्ज़ नहीं लेकिन उसे किस चीज़ में व्यय करना है, यह सोचकर करना बहुत जरूरी है | हमारे यहाँ का यही दस्तूर था जिसको ज़रूरत हो, पैसा उसके काम आना ही चाहिए |
पता नहीं अक्सर क्यों उत्पल से मिलने के लिए मेरा मन बहुत-बहुत उत्सुक हो जाता | उसका चेहरा आँखों के सामने आते ही मेरे दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, कभी कभी तो ऐसा लगता कि बस कैसे भी मैं उसके पास पहुँच जाऊँ | वह तो रहता ही इसी ताक में था ---ज़रा सा बहाना मिलना चाहिए –बस ! कैसे चलेगा ? ठीक था। मुझे भी एक साथी की ज़रूरत थी लेकिन वह मेरा साथी कैसे बन सकता था? मुझे तो उसके साथ दोस्ती तक ही सीमित रहना था जबकि मैं बखूबी जानती थी कि वह कभी भी, किसी भी क्षण दोस्ती के धागे को तोड़कर आगे बढ़ सकता था ---और उस बहाव में बह जाने से खुद को रोक पाना मेरे लिए बहुत कठिन था | कहीं न कहीं मेरा भी तो इतना जबरदस्त आकर्षण था उसके प्रति | चिंता से मेरे माथे पर पसीने की बूंदें थिरकने लगतीं और दिल धड़कने लगता | मैं उसके बारे में सोचती और एक घबराहट मेरे भीतर पसर जाती |
“चलिए न, कहीं चलते हैं--- | ” अचानक वह मेरे चैंबर में आ गया |
शायद शाम के लगभग चार बज रहे थे | मैं कब से सोच रही थी कि शीला दीदी और रतनी से श्रेष्ठ के साथ हुई अपनी मीटिंग के बारे में बात करूँ लेकिन न जाने क्यों नहीं कर पा रही थी? वैसे भी संस्थान के लिए उनकी व्यस्तता बहुत अधिक रहती थी | एक प्रकार से संस्थान का काम उन लोगों के कंधों पर ही तो था जो इतना सुव्यवस्थित था, सब कुछ उनके कारण ही तो चल रहा था | उन लोगों के फिर से संस्थान संभालने के बाद अम्मा और मैं तो लगभग खाली से ही रहते थे | अम्मा ने दिव्य का मार्केटिंग का काम छुड़वाकर उसको भी संस्थान में ही बुला लिया था | उनके मन में यह बात भी बहुत गहरी लकीर की भाँति खुदी हुई थी कि वह अब अपना संगीत का शौक पूरा करे और कॉन्सर्टस में अपना नाम रोशन करे | वह बहुत खुश हो गया था, संस्थान की हर कार्यप्रणाली से वह पहले से ही परिचित था और बहुत समझदारी से सब काम संभालने लगा था |
“क्या सोच रही हैं? ”उसने मेरे कंधे को हिला दिया | उसके हाथ लगते ही मेरी देह में बिजली सी कौंध गई |
’क्यों? ’मैंने झुँझलाकर खुद से ही प्रश्न कर डाला जैसे मैं उस ‘क्यों’ का उत्तर जानती ही नहीं थी | कमाल है इंसान भी!खुद से खुद को ही छिपाना चाहता है, मक्कार कहीं का !
“क्या हुआ उत्पल, तुम बैठते क्यों नहीं ? ”ऊपर से मैंने यूँ ही उससे पूछा |
“अरे चलिए न, कहीं बाहर चलते हैं, किसी सुंदर सी जगह पर चक्कर मारकर आते हैं---- | ”उसने मुस्कुराकर मेरी आँखों में देखने की चेष्टा की | मुझे कंपकंपी हो आई, मैंने अपनी आँखें उसकी ओर से हटा लीं |
“कहाँ चलना है ? ” आँखें नीची करे हुए ही मैंने पूछा |
“ऐसी जगह जहाँ कोई न हो, आपके और मेरे सिवा---”कितना बेबाक हो गया है ये लड़का !मैंने मन में सोचा जबकि मुझे अच्छा ही लगा था, यह तो मेरा मन ही जानता था |
“क्या बोल रहे हो? कुछ ध्यान भी है? ” अचानक उसको घूरते हुए मैंने पूछा |
“हाँ--मुझे आपसे कुछ इंपोर्टेन्ट शेयर करना है---सच में-आई मीन इट---मेरे ख्याल से आप बिज़ी नहीं हैं न? ”
थोड़ी बहुत फ़ाइल्स चैक करनी थीं, उन्हें मैं कब का चैक कर चुकी थी और अपने जीवन में घटित होने वाली बातों के ख्यालों में थी |
“कहाँ चलना है ? ”मैंने पूछा फिर अचानक ही कह बैठी
“यहाँ पर नहीं बता सकते अपनी इंपोर्टेन्ट बात ? ”
“यहाँ नहीं, चलिए न कहीं बाहर---यहाँ तो होते ही हैं हर समय---” उसके मन में जैसे कोई बच्चा उछलने लगा जैसे शाम के समय कोई बच्चा बंद कमरे में से निकलने के लिए छटपटा रहा हो |
“ठीक है, अम्मा से पूछ लूँ ज़रा---”मैंने उठने की कोशिश करते हुए कहा |
“वे आपको कभी कहाँ मना करती हैं---? ”
“फिर भी, मेरा तो कोई फ़र्ज़ है न उनसे पूछने का, उन्हें बताने का ? ”
वह चुप हो गया जैसे एक बच्चा चुप हो जाता है किसी ‘हाँ’की उत्सुक प्रतीक्षा में !
मैं अम्मा के चैंबर की ओर चली गई थी, देखा वहाँ शीला दीदी के साथ अम्मा की कोई गंभीर चर्चा चल रही थी | पता नहीं, मुझे देखते ही वे दोनों कुछ चुप सी क्यों हो गईं जैसे कोई सीक्रेट हो | मैंने कुछ भी पूछना ठीक नहीं समझा और अम्मा से पूछा कि मैं उत्पल के साथ बाहर चक्कर काटने बाहर जा सकती हूँ न? कुछ काम तो नहीं है?
उन्होंने बताया कि कोई काम तो नहीं था लेकिन अगर थोड़ी देर के लिए बैठ सकती तो कुछ बातें हो ही जाएंगी | बात तो सही थी उनकी, अगर मैं बैठ जाती तो बातों के द्वार तो अपने आप खुल ही जाते हैं | वैसे मैं समझ तो रही ही थी कि हम कौनसी बातें कर सकते थे?
“उत्पल से कह दिया क्या तुमने कि तुम उसके साथ जा रही हो ? ”अम्मा ने पूछा |
“जी, अम्मा, कह तो दिया है लेकिन उसे मना करने में क्या हुआ अगर ----”मैं जानती थी कि उत्पल उदास हो जाएगा फिर भी अम्मा से मुझे यह कहना ही था |
“अरे, नहीं-नहीं तुम जाकर आओ, चेंज हो जाएगा | बातें तो हम फिर कर लेंगे--- | ”
सब कुछ जानते हुए भी मैं अनजान बनी हुई अम्मा और शीला दीदी को ‘बाय’करके वहाँ से निकल आई |
मेरे चैंबर में उत्पल जैसे किसी सोच में चहलकदमी कर रहा था |
“हैलो !----”मैंने उसका ध्यान भंग किया |
“चलें ? ” वह जैसे चौंका था |
थोड़ी देर में मैं उत्पल के साथ संस्थान से बाहर निकल गई थी |
उसकी कार वहीं खड़ी थी, फूलों वाले वृक्ष के नीचे | न जाने उसको अपनी कार वहाँ खड़ा करने में क्या मज़ा आता था ----जब वह आता तो अपनी कार को फूलों से ढका देखकर मुस्कुराता | मेरे मन में कई बार विचार आया था कि वह ऐसा क्यों करता है? किन्तु हर इंसान का अपना शौक होता है, अपना खुश रहने का तरीका होता है, उसका भी होगा | हर बार की तरह उसने मेरे गाड़ी में बैठने से पहले दरवाज़ा खोला और पेड़ की बड़ी सी डाली मेरे ऊपर हिला दी | मुझे कुछ आश्चर्य नहीं हुआ, हर बार ही तो वह यही हरकत करके मुस्कुराता था | मेरा मन भीग उठता और चेहरा गुलाबी हो उठता | उसका यह रोमांस मुझे अपनी ओर खींचता, वह फ़्लर्ट नहीं था, मेरा मन कहता था और इसीलिए मैं उसमें डूबती रहती थी |