संतों की महिमा अपरम्पार है। उनकी कृपा अहेतुकी होती है। उनके दर्शन मात्र से चारों धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, सभी कुछ प्राप्त हो सकता है। जैसा कि कबीरदासजी ने सोच समझकर अपनी वाणी में स्पष्ट कहा है –
तीर्थ नहाए एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनन्त फल, कहत कबीर विचार।।
श्री मदभागवत में भी संतों के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति के कल्याण की बात कही गई है –
नम्हम्यानि तीर्थानि न देवा कृच्छिलामाया:।
ते पुनन्त्युरुकलिन दर्शनदिव साधव:।।
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कछु दिन रहें गृहस्थ वन, धारण कर जग रीत।
तन तो बंधन में बंधा, बंधा न मन, प्रभु प्रीत।।
गृह निर्वाहन के लिये, गही कृषक की रीति।
करें परिश्रम तोड़ तन, सह नित आतप शीत।।
करे प्रताडि़त एक दिन, भ्राता बिन कछु भूल।
गृह तज आए ग्वालियर लगे बचन जिमि शूल।।
सेना में सेवा करी, जग कश्मीर सुनाम।
खाई गोली देश हित, कर सैनिक के काम।।
कान्धे पै बन्दूक धर, हिय धर निज प्रभु नाम।
किये हवन पूजन विविध, सुखद हिमांचल धाम।।
कछु दिन रह सेना तजी, करी पुलिस से प्रीत।
रहें करैरा काल कछु, नरवर कछुक व्यतीय।।
गीता अध्येता सुधर, सूर्य उपासक भक्त।
हनुमत के साधक प्रवर, रिषिवर सन्त विस्क्त।।
सतन की गति मन चली, ज्यों सरिता की रीत।
चलें, रूकें, झूमें झुकें, मौज अखण्ड अतीत।।
तन तो सेवा में लगा, मन संतन के संग।
परमहंस योगी मिले श्री आदित्य प्रसंग।।
करें नित्य सत्संग ये, कथा वार्ता ज्ञान।
गीता अनुशीलन करें, खड़े-खड़े धर ध्यान।।
साधुन की सेवा करें, जे गृहस्थ के कर्म।
पालें सो सव जतन से, निज पत्नी सह धर्म।।
हुआ अचानक एक दिन अफसर का अभियान।
ये डूबे संतसंग में भयो न सो कछु भान।।
ये तो विरमे राम में करी नौकरी राम।
जब जाना पल में तजी, कर आखरी सलाम।।
छोड़ा निज घर-वार अरु बांटा सब धनधाम।
करी मधुकरी मास षट, फिरत ग्राम प्रति ग्राम।।
करत सकल तीरथ गये, बद्री धाम विशाल।
पण्डा ने सूचित करें, भे साधू, सब हाल।।
कछु इत-उत भटकत रहे, फिर आये इहि देश।
लाये मन्दिर में रहे, मने न करे कलेस।।
सन्यासी, स्याने, चतुर, नाते-रिश्तेदार।
समझाऐ सब भांति पै, दृढ़ नहिं तजे विचार।।
पारवती विनती करी, पति चरनन धर माथ।
तुम तो धारा वेश ये, को मम थामे हाथ।।
कहेहु देय वरदान यह ‘’धन्य तुम्हारे भाग।
करहुहु नित आनन्द तुम, होयहहि अचल सुहाग।।
मल विभूति मरघट रमे, धर निज सहज सरूप।
ग्राम ग्राम विचरण करें, सह नित वर्षा धूप।।
जग जाना वौरा भए, डारे मति भ्रम धाम 1।
’’काले’’ 2 मन जाने इन्है, ये तो पुरुष ललाम।।
जिनको ये मारे, तरें, डाटें, वनें सुजान।
चकित चिकित्सक लोग सब कैसे कुशल अजान।।
बहुत काल एहि बिधि गयों, रमत ग्राम प्रति ग्राम।
नहिं चिन्ता, नहिं लालसा, असन, वसन, विश्राम।।
1. पागल खाना
2. डॉ. काले (मानसिक रोग चिकित्सा के प्रसिद्ध डॉक्टर)
पुनि छांड़ी भ्रमना विबिध, थमे बिलउआ आय।
नित प्रति जन दरशन करें, जीवन का फल पाय।।
तुमने तो जाना नहीं जात, धर्म या कर्म।
सबके दुख दारिद हरे सन्त सुधारभ मर्म।।
जिनकी गाली से मिले जन, धन, मन विश्राम।
ऐसे बाबा का अमर गौरी शंकर नाम।।
विविध भांति कौतुक करें, परें अचम्भे लोग।
ज्ञानवान अचरज करें, मूरख समझें ढोंग।।
एक बार ससुराल जा बाबा खेला खेल।
लालटेन ले हाथ में, बोले दे दो तेल।।
पिया सहज ही दो लिटर, ले मिट्टी का तेल।
जाना सलहज सास तब, इन का ढब अलबेल।।
पूंछा भोजन कीजिये, कहा कर लिया खूब।
लम्बी लेंय डकार ये, वे अचरज में डूब।।
दई डॉक्टर औषधी, छाजन देख शरीर।
कहा मिलाकर डालडा, लेउ लगा जंह पीर।।
लई मिलाया डालडा, किया तुरन्त ही पान।
जान विषम विष डॉक्टर व्याकुल हुआ महान।।
किन्तु हलाहल दे सका, क्या शंकर को कष्ट।
योगी बाबा, विष हुआ, पेय मधुर स्वादिष्ट।।
इनकी माया को नमन, करें नये नित खेल।
नियम प्रकृति के टार के, दें कुदरत को ठेल।।
पीछे छोड़त बस चले, बाबा आगे पांय।
यहां वहां देखे जहां, बाबा वहीं दिखाय।।
डबरा में देखे फिरत, तब न सका मैं चीन्ह।
जाय बिलउआ एक दिन, सादर दरशन कीन्ह।।
मन ही मन विनती करी बाबा से कर जोर।
जा अब फिर विटिया भई, तो हो जइहै भोर।।
चलत मोहि संकेत सों शिशु को चिन्ह दिखाय।
पुन: विहंस आशिश दई, दोनों हाथ उठाय।।
कितनी टारी करवरें, कितनी करी सहाय।
रेाम रोम मेरा रिणी, वाणी किमि कह पाय।।
करी दास पर अति कृपा, दिया पुत्र सा रत्न।
शिशु वत् नित रक्षा करी माता सरिस सयत्न।।
जो कुछ मांगा सो दिया, दिया न जिसका भान।
मेरा तो कुछ भी नहीं, सब बाबा की शान।।
मास जुलाई पृथम दिन, सन् छ्यत्तर की बात।
संग किसी के चल दिये देने शुभ सौगात।।
मन आई कछु मौज अस, छोड़ बिलउआ ग्राम।
बाबा अर्न्तहित हुए, को जाने केहि धाम।।
जिन पर बाबा की कृपा जो सेवक निस्वार्थ।
दरस, परस औ स्वप्न में, बाबा करत कृतार्थ।।
इति जीवन चरित्र
बाबा हमसे हो दुखी कहां छिपे हो जाय।
भूल शूल मन में लगे, हिये न हूंल समाय।।
विरह विकल जर्जर भए अब तो ये मन प्राण।
बाबा अब तो दीजिए दरस दीन को दान।।
अब बाबा के दरस बिन, लागा दांव कठोर।
’शून्य’ लगे सारा जगत, सूनी मन की पौर।।
तुमने तो लीला करी, धन मानव का रूप।
दुनिया ने जाना नहीं, छल, बल मन विद्रूप।।
जिनके मन में प्रेम था, जिनके भाग सुभाग।
तिनके सब बन्धन कटे, छूटे राग विराग।।
आये घर पूजे नहीं घाट, बाट अब जांय।
अवसर चूके ना मिले, कहा होत पछतांय।।
जब तक बाबा पास थे, तब ना किया विचार।
अब सिर पीटे होत क्या, गुप्त हुए तज द्वार।।
पूजे देवी देवता, भूत परीत पिशाच।
गही न बाबा की शरण, हीरा तज भज कांच।।
कहां खो गये नाथ तुम, तज निज दास अयान।
कहो कहां पाऊं तुम्हैं, देस विदेस प्रभान।।
कैसे होगी पार ये, नय्या गहरी धार।
अब तो बाबा थाम लो, मम टूटी पतवार।।
और सहारे छोड़ सब, गहे तुम्हारे पांव।
मैं बालक विलखत फिरूं, बाबा अव पतियाव।।
मैं संसारी जीव हूं, स्वारथ रत मति भ्रष्ट।
तुम तो व्यौपारी नहीं, संत ग्रन्थ मुख पृष्ठ।।
जागत सौवत एक रट, बाबा दरशन देव।
करहु कृपा निज दास, पर मिटहि अनत अवरेव।।
बाबा तुम्हरे राज में, बन्दे ठोकर खांय।
तुमने आंखें फेर लीं, कहो कहां फिर जाय।।
तुमने तारे हैं अमित, नई नहीं ये रीति।
’शून्य’ तुम्हारे सामने, टारो जग की भीति।।
‘शून्य शरण हैं आपकी, करो न और विलम्ब।
जो कुछ हो सो आपही, और नहीं अबलम्ब।।
जो चाहौ सुख से, कटे ये जीवन अनमोल।
मन में भरकर प्रेम नित, गौरीशंकर बोल।।
मस्तराम के नाम से दुख दारिद मिट जाय।
कामधेनु खूंटे बंधी, सुख संकुल नित आंय।।
जिनके मन बाबा बसें, वहां नहीं दुख जाय।
भला सूर्य के सामने, कैसे तम टिक पाय।।
राम कृष्ण, शिव, विष्णु, अज, तातमात अरुभ्रात।
गौरी शंकर ही सकल, घातक पालक त्रात।।
तुम अनाथ के नाथ हो, तुम सहाय असहाय।
तुम बिन दुनियां बाबरी, शांति कहां से पाय।।
महिमा अपरम्पार है, को समर्थ जो गाय।
शब्द अधूरे बाबरे, कैसे क्या समझाय।।
त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ तुम, गति मति ज्ञान अनन्त।
निज जन रक्षक कल्प तरु, गुन गावहिं श्रुति संत।।
सत चित अरु आनन्द मय, गौरीशंकर नाथ।
दया, कृपा करुणा अयन, नित उठ नावहु माथ।।
होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय।
होनी अनहोनी करें, गौरी शंकर सोय।।
राम वसें जिनके हृदय, तिनत डरपत काम।
मस्तराम जिनके हिये, ते शुचि संत ललाम।।
राम काम के बीच में माया का पट दीन्ह।
पट खट पट चट पट मिटे झट पट बाबा चीन्ह।।
गौरीशंकर नाम को, किया सार्थक आय।
पाप शाप जग का पिया, अमृत दिया पिलाय।।
लेना तो आसान है, देना परम दुरन्त।
लेने देने में सहज, सोही जानों संत।।
ज्ञात और अज्ञात का, कौन जानता मर्म।
धरा हथेली आंवला, बाबा को क्या भर्म।।
जन मन में बाबा रमें, छिपा न कोई भेद।
जो जन बाबा में रमें तिनका स्याह सफेद।।