Param Hans Sant Gaori Shankar Charit Mal - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

परमहंस संत गौरीशंकर चरित माल - 1

परमहंस संत गौरीशंकर चरित माल 1

डॉ. सतीश सक्‍सेना ‘शून्‍य’

 

 आत्‍म निवेदन

संतों की महिमा अपरम्‍पार है। उनकी कृपा अहेतुकी होती है। उनके दर्शन मात्र से चारों धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, सभी कुछ प्राप्‍त हो सकता है। जैसा कि कबीरदासजी ने सोच समझकर अपनी वाणी में स्‍पष्‍ट कहा है –

तीर्थ नहाए एक फल, संत मिले फल चार।

सद्गुरु मिले अनन्‍त फल, कहत कबीर विचार।।

श्री मदभागवत में भी संतों के दर्शन मात्र से ही व्‍यक्ति के कल्‍याण की बात कही गई है –

नम्‍हम्‍यानि तीर्थानि न देवा कृच्छिलामाया:।

ते पुनन्‍त्‍युरुकलिन दर्शनदिव साधव:।।

अर्थात ‘’केवल ज लमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते या केवल मिट्टी या पत्‍थर की प्रतिमाऐं ही देवता नहीं होतीं। संत पुरुष ही वास्‍तव में तीर्थ और देवता हैं, क्‍योंकि तीर्थ और प्रतिमा का बहुत समय तक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं परन्‍तु संत पुरुष तो दर्शनमात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं।‘’

     उपनिषद् तो यहां तक कहते हैं कि संतों के दरश-परश से जीवधारी तो क्‍या जड़ पदार्थों तक का उद्धार हो जाता है-

     यद्-यद् स्‍प्रश्‍यति पाणिभ्‍यां यद् यद् पश्‍यति चक्षुषा।।

     स्‍थावरणापि मुच्‍यन्‍ते कि पुन: प्राकता: जना:।।

अर्थात ‘’संत महापुरुष जिसे ब्रम्‍हभाव से अपने हाथों से स्‍पर्श करते हैं, अपने नेत्रों से जिसे देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालान्‍तर से जीवभाव को प्राप्‍त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आए व्‍यक्तियों के उद्धार में क्‍या शंका हो सकती है।‘’

सिद्ध संतों के लिये कोई बन्‍धन नहीं होता। वे समस्‍त रिश्‍ते-नातों, आचार-विचारों से मुक्‍त हो जाते हैं। परमहंस संब गौरीशंकर मस्‍तराम बाबा की गणना भी इसी श्रेणी में होती है। वृहदारण्‍यक उपनिषद् में ऐसे संतों को जो पहिचान लिखी गई है, वह इस प्रकार से है-

     ‘’अत्र पिता-पिता भवति माता-पिता लोका आलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा:। अत्र स्‍तेनो-स्‍तेनों भवति भ्रूणहा-भ्रूणहा चान्‍डालो-चान्‍डाल: पौलकसौ-पोल्‍कस: श्रमणो-श्रमणेस्‍तापसौ तापसो-नन्‍त्‍वागत पुण्‍ये नानल्‍वगतं पापेन तीर्णोहित तक्ष सर्वाच्‍छोकान हृदयस्‍य भवति।‘’

‘’अर्थात इस अवस्‍था में पिता पिता नहीं रहता माता-माता नहीं रहती, लोक लोक नहीं रहते देव देव नहीं रहते, वेद वेद नहीं रहते। इस स्थिति में चोर चोर नहीं रहता, भ्रूण हत्‍यारा भूण हत्‍यारा नहीं रहता, पौल्‍कस (शूद्र पिता से क्षत्रिय माता द्वारा उत्‍पन्न पुत्र) पौल्‍कस नहीं रहता। श्रमण श्रमण नही रहता, तपस्‍वी तपस्‍वी नहीं रहता। इस स्थिति में उसे न तो पुण्‍य लगता है और नही पाप लगता है क्‍योंकि वह समस्‍त शोकों से पार चला जाता है।‘’

     ऐसे ही वीतराग सन्‍त थे बाबा मस्‍तराम जी जिनके लिये न कुछ अप्राप्‍य था और न कुछ अर्देय इसे मैं अपना परम सौभाग्‍य समझता हूं कि मुझे उनके दर्शनों का ही नहीं अपितु उनके निकट अपने तथा कृपा पात्र होने का भी अवसर प्राप्‍त हुआ। सन् 1965 से 1972 तक मैं लोक निर्माण विभाग डबरा में उपयंत्री के पद पर पदस्‍थ था। उस समय में बाबा को प्राय: बस स्‍टेण्‍ड, तेहसील, ब्‍लॉक ऑफिस अथवा डबरा नगर में यहां-वहां घूमते देखा करता था। किन्‍तु एक सामान्‍य सा व्‍यक्ति समझकर कभी ध्‍यान नहीं दिया। कभी किसी ने कहा भी कि ये बहुत बड़े सन्‍त हैं किन्‍तु उस समय मैं इसे अनुभव नहीं कर सका।

     बाबा से मेरा वास्‍तविक परिचय सन् 1970 कि फरवरी माह में हुआ। उस समय मैं अपनी शासकीय सेवा के अतिरिक्‍त समाज सेवा के रूप में होम्‍योपैथिक दवाइयों का नि:शुल्‍क वितरण भी किया करता था तथा इसी संदर्भ में वहां के एक होम्‍योपैथिक चिकित्‍सक डॉ. चतुर्वेदी के सम्‍पर्क में था। जनवरी 1970 में जब मैंने एक विक्‍की मोपेड खरीदी तो डॉक्‍टर चतुर्वेदी ने मुझ से एक संत दर्शनों के लिये उन्‍हें बिलउआ ले चलने का अनुरोध किया। साधु-संतों के प्रति सहज श्रद्धा के कारण मैंने उनका वह प्रस्‍ताव तुरन्‍त स्‍वीकार कर लिया तथा एक दिन हम लोग कुछ प्रसाद आदि लेकर बिलउआ चल दिये।

     बाबा तब तक इधर-उधर का घूमना छोड़ अपने घर पर स्थित हो गये थे। बिलउआ पहुंचकर जब हमने उनके दर्शन किये तो मुझे बड़ा सुखद आश्‍चर्य हुआ क्‍योंकि ये तो वे ही बाबा जी थे जिन्‍हें मैं डबरा में घूमता देखता था। बाबा एक तख्‍त पर विराज मान थे। बडी सौम्‍य मुद्रा थी। उनके मुख से जो वचन निकल रहे थे, उनका तारतम्‍य हमारी समझ के बाहर था। जो कुछ भी प्रसाद बगैरह उनको अर्पित किया वह कुछ उन्‍होंने ग्रहण कर लिया तथा कुछ बांट दिया।

     हम लोग उनसे सम्‍मुख फर्श पर बैठे हुए थे। कुछ देर बाद डॉक्‍टर साहब ने मुझसे कहा कि मैं अपने मन में कुछ सोच लूं, बाबा उसको पूरा कर देते हैं। मैंने अपने मन में सोचा बाबा से क्‍या मांगू। बाबा की दी हुई दाल-रोटी, आस-औलाद, मान-सम्‍मान सब कुछ तो है। डॉक्‍टर साहब ने पुन: मुझसे कहा कि मैं कुछ सोच लूं किन्‍तु मैंने फिर भी वही बात सोची कि बाबा की कृपा से सब कुछ तो है। भाग्‍य की बात कि डॉक्‍टर सा. ने मुझसे तीसरी बार आग्रह किया। इस बार मैं लालच में आ गया। संतान के रूप में तब मेरे दो पुत्रियां तथा एक पुत्र था तथा उस समय मेरी पत्‍नी को लगभग चार माह का गर्भ था। मैंने मन ही मन बाबा से निवेदन किया कि ‘’बाबा ऐसा मत करना कि फिर पुत्री हो जाये नहीं तो सारा बैलेन्‍स बिगड़ जायेगा।‘’ इसके बाद हम किसी अन्‍य चर्चा में लग गये। उस समय में अपनी उंगली में एक आठ आने भर की सोने की अंगूठी पहिने हुआ था। बाबा बोले ला ये अंगूठी मुझे दे दे। मैंने तुरन्‍त वह अंगूठी उतारकर बाबा को दे दी। बाबा ने उसे अपनी छोटी उंगली में धारण कर लिया।

     जब हम चलने को हुए तो बाबा के भतीजे ने उनसे कहा कि ओवरसियर सा. की अंगूठी वापिस दे दो। बाबा बोले ‘’क्‍यों दे दो। उन्‍होंने दी है। बात भी ठीक थी। उनके भतीजे मुझसे बोले आप चिन्‍ता नहीं करना। जब कभी बाबा अच्‍छे मूड में होंगे तो हम लोग उनसे ले लेंगे। आपकी चीज आपको मिल जायेगी। मैंने कहा मुझे कोई चिन्‍ता नहीं है। जब हम चलने लगे तो संयोगवश बाबा के भतीजे वगेरह भीतर चले गये और डॉक्‍टर साहब दूसरी ओर बाहर अपने जूते पहिनने लगे। मैं बाबा के सामने दरबाजे के बाहर अपने सेण्डिल पहिन रहा था तभी मुझे देखकर बाबा बहुत ही अर्थ पूर्ण ढंग से मुस्‍कराये। मैंने तुरन्‍त उनसे हाथ जोड़े। उन्‍होंने इशारे से पहले एक हाथ के कुछ ऊपर दूसरा हाथ रखकर बच्‍चे का चिन्‍ह दिखाया फिर दोनों हाथ ऊपर उठा कर आशीर्वाद दिया। मुझे तुरन्‍त समझ में आ गया कि बाबा ने मेरे मन की बात न केवल जान ली है अपितु उसको पूर्ण भी कर दिया है। प्रसन्‍नता पूर्वक हम लोग वापिस डबरा के लिये लौट पड़े। यथा समय मेरे घर पुत्र का जन्‍म हुआ।

     बाबा के द्वारा अंगूठी लेने का रहस्‍य भी बाद में ही खुला। डबरा के एक सज्‍जन ने बाबा से आग्रह किया कि प्रसादी के रूप में मुझे दे दो। बार-बार आग्रह करने पर बाबा ने कहा ‘’लेले, एक्‍सीडेण्‍ट है।‘’ इस बीच मेरे साथ तीन बार दुर्घटनायें हुई किन्‍तु बाबा ने ऐसे रक्षा की कि मुझे खंरोच तक नहीं आई। बाद में वही अंगूठी उन्‍होंने एक ऐसे सज्‍जन को देदी। जिनके बच्‍चे की मृत्‍यु हो गई थी।

     यद्यपि बाद में मेरा बिलउआ आना जाना प्राय: होने लगा था तथापि बाबा से कुछ ऐसा आत्मिक सम्‍बन्‍ध जुड़ गया था कि मैं कही भी बाबा की चर्चा करता अथवा स्‍मरण मात्र भी करता तो बाबा बिलउआ में बैठे मुझे पुकारने लगते औसियर हाजिर हों औंसियर हाजिर हो। एक बार तो मैं बाबा से मिलने के लिये ग्‍वालियर से निकला। जब मैं विलउआ की ओर मुड़ा तो बाबा अपने घर के सामने चबूतरे पर बैठे-बैठे चिल्‍लाने लगे चले आ रहे हैं रहीसों के सुपारती (सिफारशी)। कुछ मिनट बाद जब मैं वहां पहुंचा तो वहां बैठे लोगों ने बताया कि बाबा ऐसे कह रहे थे। बात भी यही थी। मैं अपने मित्र थे छोटे भाई के लिए, जो कि कुछ रईसी स्‍वभाव का था, नौकरी की सिफारिश लेकर चला था। मैंने बाबा से निवेदन किया कि बाबा जिस पर आपकी कृपा हो वह तो रहीस से कम नहीं है। और मैं रहीसों का सिफारिशी हूं। कहना न होगा कि बाबा की कृपा से अगले 24 घन्‍टे में ही उसे काम मिल गया। बाबा के वचन बड़े अटपटे किन्‍तु सत्‍य होते थे। एक बार उन्‍होंने मुझे किसी बचची की एक रु कांपी दे दी। मैंने पूछा बाबा इसका क्‍या करूं। बाबा बोले ले जा रख ले। बाद में इंजीनियर होते हुए में डॉक्‍टर बना, सम्‍पादक, तकनीकी पुस्‍तकों का लेखक, कवि, अनुवादक, ज्‍योतिषी, आकाशवाणी, कलाकार आदि जो कुछ भी बना वह सब बाबा की ही कृपा का परिणाम है।

     डबरा से स्‍थानान्‍तरण होने पर मैंने बाबा ने पूछा बाबा अब क्‍या होगा। बाबा ने मुझे एक रस्‍सी का टुकड़ा दिया। मैंने पूछा बाबा इसका क्‍या करूं। बाबा ने कहा इसमें घास बांध लेना और कांस बांध लेना। ग्‍वालियर में मेरी पदस्‍थी एक नई सड़क के निर्माण कार्य पर हुई जहां सबसे पहिले मुझे दस किलोमीटर की लम्‍बाई में जंगल सफाई का कार्य करवाना पड़ा। बाबा की कृपा अब भी होती रहती है। अभी की बात है। इस पुस्‍तक को प्रेस में देते समय कुछ लिखना था। मन में विचार आया कि बाबा ने भावुक जी को पेन दिया था काश कि मेरे पास भी ऐसा कोई पेन होता। कुछ मिनट बाद में बाहर निकला और मुझे एक ‘’पाईलेट पेन’’ पड़ा मिल गया।

     एक बार बाबा ने मुझ से कहा ‘’औंसियर तू हमारा मन्दिर बनवायेगा’’ ? मैंने निवेदन किया कि बाबा मुझे तो और कुछ आता नहीं है, आप ही बताइये कि कहां क्‍या करना है।  बाबा ने कुछ जवाब नहीं दिया केवल हंस कर रह गये। मैं आज भी सोचता हूं कि बाबा का संकेत क्‍या था? समय ही इसका उत्‍तर देगा। यदि बाबा मुझसे कुछ सेवा लेना चाहेंगे तो सेवक का इससे बड़ा सौभाग्‍य क्‍या होगा?

     दो वर्ष पूर्व डबरा में बाबा की सत्‍संग समिति द्वारा ‘’चालीसा’’ तथा ‘’आस्‍था के चरण’’ का प्रकाशन हुआ और इसी तारतम्‍य में बाबा के अनन्‍य भक्‍त पं. रामगोपाल तिवारी ‘’भावुक’’ जी से मेरा परिचय हुआ। इस लघु पुस्तिका की रचना भी उन्‍हीं की प्रेरणा से हुई तथा प्रकाशन में भी उनका तथा सत्‍संग समिति का भरपूर सहयोग रहा है, जिसके लिये मैं हृदय से आभारी हूं। इस सम्‍बन्‍ध में मैं अपने मित्र स्‍वामी ओम प्रकाश ‘’कौशल’’ तथा एस.बी. प्रिंटर्स के स्‍वामी श्री राकेश श्रीवास्‍तव का भी आभारी हूं जिनके सहयोग से यह लघु पुस्तिका प्रकाश में आ सकी है।

     बाबा के चरित्रों का वर्णन करने के लिये बड़़े बड़े ग्रंथ भी छोटे पड़ेंगे और कौन है ऐसा समर्थ जो उनको लिपिवद्ध कर सके। मेरे द्वारा जो यत्किंचित लिखा गया है वह बाबा का ही प्रसाद है –

     बाबा की महिमा अमित, वरनी कछु यह आस।

     ज्‍यों माखी निज वल उड़े, जदपि अनत अकास।।

मेरी तो यही प्रार्थना है कि –

     कण कण में बाबा रमे क्षण क्षण में कर याद।

     जीवन तो वस चार दिन, मतकर य बदवाद।।

और अन्‍त में –

     वाणी मेरी अटपटी कर लेखनी अशक्‍त।

     विद्वद्जन करि हैं क्षमा लख बाबा कर भक्‍त।।

बाबा के चरण कमलों में विनयावनत प्रणामों सहित उनका हो एक अकिंचन सेवक औंसियर

                             (डॉ. सतीश सक्‍सेना ‘शून्‍य’)

 

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