आई-सी-यू - भाग 6 Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आई-सी-यू - भाग 6

कमरे में पसरे सन्नाटे को चीरते हुए पराग ने कहा, “सब की बीवी नौकरी करती हैं, मेरी भी करती है इसलिए नौकरी का बहाना कोई मत करना प्लीज और हाँ शुभांगी तुम इस भ्रम में मत रहना कि लड़की हो, तुम्हारी शादी हो चुकी है तो तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। तुम प्रोपर्टी में बराबरी से हिस्सा लेने आईं थी ना, क्योंकि वह तुम्हारा हक़ था लेकिन अब यह कर्तव्य है इसे भी निभाना होगा। यह बहाना मत बनाना कि सास-ससुर तुम्हारे साथ हैं। हम जानते हैं तुम सबसे अलग रहती हो।”

“मैं कहाँ मना कर रही हूँ भैया, तुम तो बोलते ही जा रहे हो। ले जाऊंगी ना मैं भी 3 महीने के लिए।”

खैर सब अपने-अपने घर लौट गए। सबसे पहली बारी पराग की थी। अब पराग के साथ नीलिमा उसके घर पर थीं। सब बच्चों की कानाफूसी तो नीलिमा ने भी सुन ली थी। पराग के घर वह अपने कमरे में अकेली पड़ी रहतीं। पराग और उसकी पत्नी अपनी नौकरी पर चले जाते और बच्चे स्कूल कॉलेज। नीलिमा ऐसे भी बीमार ही थीं लेकिन बीमारी बढ़ती ही जा रही थी, कमजोरी उनके अंदर समाती ही जा रही थी। कभी ब्लड प्रेशर कम कभी ज़्यादा । उम्र भी थी, दुख भी था, दर्द भी था और सबसे ज़्यादा तकलीफ देने वाला तिरस्कार भी था।

पराग के घर चार माह बीत गए लेकिन कोई उन्हें लेने नहीं आया। किसी के बच्चों की परीक्षा, किसी के प्रमोशन का समय, किसी की कुछ, किसी की कुछ व्यस्तता। पराग समझ गया था कि अब कोई माँ को लेने नहीं आएगा।

अपने पति की यादों को अपने सपनों में बसाई नीलिमा, बहुत तबीयत खराब होने के कारण पराग के घर से अब आई-सी-यू में आ चुकी थीं। यही वह समय था जब नीलिमा आई-सी-यू के सन्नाटे में पड़ी मौत की राह देख रही थीं। उनकी आँखों में अपने जीवन का घटना चक्र एक फ़िल्म की तरह घूम रहा था। कभी उन्हें भूतकाल में वह समय दिखाई देता जब वह जवान थीं। सब की ज़रूरतों को हंस कर पूरा किया करती थीं। दिन भर घर में भागा ही करती थीं। बच्चों को बड़ा करने में उन्होंने तन, मन, धन सब लगा दिया। अपनी पूरी जवानी खपा दी। उसके बाद अधेड़ उम्र से जब तक हाथ पांव चले, बच्चों के बच्चों के लिए भी करती रहीं। उनकी ज़रूरतों के लिए अपना पूरा बुढ़ापा खपा दिया । तब सब उन्हें बुलाते थे माँ हमारे घर आ जाओ … हमारे पास रहो …लेकिन अब …? 

नीलिमा विचारों के बवंडर में गोते लगाती रहीं। उनकी आँखें खुलने के लिए तैयार ही नहीं थीं। उन्हें बादलों के बीच उनके पति बाँहें पसारे दिखाई देते तब वह सोचतीं, वही तो है वह स्थान जहाँ पर वह प्यार से, सुकून से और सबसे ज़्यादा सम्मान से रह सकती हैं। 

चारों बच्चे आई-सी यू के बाहर खड़े इंतज़ार कर रहे थे कि डॉक्टर ने आकर कहा, “मिस्टर पराग अब आप लोग एक-एक करके अपनी माँ से मिलने जा सकते हैं। वैसे चारों साथ में भी जा सकते हो क्योंकि अब उनके पास ज़्यादा समय नहीं बचा है।”

चारों भाई बहन आई-सी-यू में पहुँच गए। नीलिमा को एक-एक करके सभी ने आवाज़ लगाई, माँ… माँ…!

वह आँखें खोलने की कोशिश कर रही थीं लेकिन उनकी आँखें खुलने को तैयार ही नहीं थीं। शायद नीलिमा का मन अपने बच्चों को आखिरी बार देखना चाह रहा था, किंतु पलकों का वज़न ही उन्हें अब इतना भारी लग रहा था कि वह उन्हें उठा ही नहीं पा रही थीं। उनकी मजबूरियाँ आँखों की कोरों से पानी बनकर अवश्य ही बहती हुई दिखाई दे रही थीं।

चिराग ने कहा, “माँ एक बार तो आँखें खोलो।”

शुभांगी ने रोते हुए कहा, “माँ प्लीज आँखें खोलो ना।”

लेकिन नीलिमा तो शायद सबसे रूठ चुकी थीं। उन्होंने पूरा जीवन सब के लिए ज़िया सिवाय ख़ुद के परंतु जाते समय हालातों और रिश्तों ने उन्हें यह एहसास तो करा ही दिया कि काश थोड़ा-सा ख़ुद के लिए भी जी लिया होता।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः