आई-सी-यू - भाग 7 - अंतिम भाग Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आई-सी-यू - भाग 7 - अंतिम भाग

अंतिम घड़ी में शायद नीलिमा सोच रही थीं कि काश सौरभ की उनके साथ घूमने जाने की इच्छा उन्होंने पूरी कर दी होती। अपने साथ उन्हें भी थोड़ी दुनिया देख लेने दी होती। सौरभ भी खुद के लिए कहाँ जिए वह भी तो हमेशा सब के लिए करते ही रहे और करते-करते ही एक दिन बिना जिए ही मर गए। गलती तो उनकी ही है जो उन्होंने सौरभ की बात नहीं मानी वरना दोनों ने नदियों और पर्वतों की हरी-भरी वादियों की मस्त हवा का सुख उठा लिया होता।

नीलिमा के प्राण निकलने को तैयार ही नहीं थे। आँखें बंद लेकिन दिमाग़ कभी जागता कभी सो जाता। चार दिन से इंतज़ार कर रहे बच्चे अब बेचैन हो रहे थे। सब को वापस अपने घर, अपने काम पर लौटना था। यह इंतज़ार उन्हें बहुत भारी पड़ रहा था। यह आज आखिरी दिन था, जब सब उनके आस-पास खड़े उनके जाने की राह देख रहे थे। खैर इंतज़ार पूरा हुआ और पाँचवें दिन भगवान ने सबकी सुन ली और नीलिमा की चलती उखड़ती साँसें अचानक आई-सी-यू के उस कमरे में थम गईं। उनके आज़ाद होते ही अब सब आज़ाद थे अपने घर लौटने के लिए।

अंतिम संस्कार के बाद पराग ने अपने भाई-बहन से पूछा, “अरे किसी के पास माँ का अच्छा-सा लेटेस्ट फोटो है क्या?”

तब माँ के फोटो की खोजबीन शुरू हुई लेकिन किसी के पास से उनका कोई ताज़ा लिया फोटो ना मिल सका। पूरा मोबाइल अपनी बीवी और बच्चों की तस्वीरों से भरा पड़ा था किंतु माँ का एक फोटो भी मिलना मुश्किल हो रहा था।

खैर तीन दिनों में पूजा पाठ ख़त्म करके सब अपने-अपने घर लौटने के लिए तैयार थे। जाते समय सभी के मन में एक टीस ज़रूर थी। अपने फ़र्ज़ से पीछे हटने की टीस और यह टीस जीवन भर उन्हें यह याद दिलाती रहेगी कि उन्होंने लिया तो सब कुछ किंतु लौटाते समय उनके हाथ बिल्कुल खाली थे। वे अपनी माँ को कुछ भी ना लौटा सके। जितना उनसे लिया था उसका एक प्रति शत भी उन्हें वापस ना कर पाए।

पराग, अनुराग और चिराग तीनों ने अचानक अपने बच्चों के कमरे से आती आवाज़ सुनी तो वह तीनों वहीं रुक गए और उनकी बातें सुनने लगे।

तब उन्हें एक आवाज़ आई, “दादी बेचारी प्यार के लिए तरस गईं।”

दूसरी आवाज़ थी, “दरअसल हमारे पापा-मम्मी ने उनकी तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं दिया।” 

तीसरी आवाज़ थी, “यदि उनका बुढ़ापा ऐसा होगा तब उन्हें कैसा लगेगा?”

फिर एक आवाज़ आई, “मुझे तो दादी का वह चेहरा जीवन भर याद रहेगा, उदास, मुरझाया हुआ चेहरा।

हाँ उनकी आँखें कैसी लग रही थीं ना, मानो वर्षों से इंतज़ार कर रही हों।”

“हाँ और वैसे ही बंद हो गईं बेचारी नानी की आँखें।”

“हमारे पापा मम्मी ने बहुत ग़लत किया है।” 

“हाँ जैसे वह हमें लाड़ प्यार से बड़ा कर रहे हैं, वैसे ही दादी ने भी उन्हें किया होगा ना?”

तीनों भाई और उनकी पत्नियां अपने बारे में अपने ही बच्चों के मुंह से ऐसे शब्द सुन कर पानी-पानी हो रहे थे। लेकिन यह वक़्त है साहब एक बार गुजर गया फिर हाथ कहाँ आता है? यह सोचते हुए वे अपनी जीवन यात्रा की तरफ़ आगे समय के साथ चल दिए। लेकिन कल जब वे बुढ़ापे की सीढ़ियों पर चढ़ रहे होंगे तब समय कैसा खेल दिखाएगा सोचने वाली बात है।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
समाप्त