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आई-सी-यू - भाग 4

तीनों बेटों के बच्चों को भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझ कर जितना बन सका उतना किया। बड़ा ही महत्त्व था उनका, जब वह यह जिम्मेदारी उठा रही थीं। सब बच्चे तब उन्हें अपनी ओर खींचना चाहते थे लेकिन यह सब करते-करते उनकी उम्र भी बुढ़ापे की कुछ सीढ़ियाँ चढ़ चुकी थीं। थक गई थीं अब वह, उनकी हड्डियाँ कमजोर पड़ चुकी थीं। जैसे ही शरीर ने काम करना कम कर दिया, महत्त्व भी अपने आप ही कम होता चला गया। ना कहीं घूम फिर पाईं, ना जीवन का एक भी दिन ख़ुद के लिए जी ही पाईं।

एक दिन चिराग ने अपने बड़े भाई को फ़ोन करके कहा, “पराग भैया, मम्मा हमेशा बीमार रहती हैं। पापा भी कमजोर हो गए हैं, उनसे भी ज़्यादा कुछ होता नहीं है। मैं कब से उन्हें रख रहा हूँ, अब कुछ दिनों के लिए आप लेकर जाओ। आख़िर वह मेरे अकेले की जवाबदारी थोड़ी हैं।”

“अरे चिराग, तू अनुराग को बोल यार, अभी यहाँ बिल्कुल संभव नहीं हो पाएगा, बच्ची की पढ़ाई-लिखाई पर असर पड़ेगा,” कहते हुए पराग ने फ़ोन काट दिया।

चिराग ने अनुराग को फ़ोन किया तो उसका कुछ और बहाना था फिर चिराग ने अपनी बहन शुभांगी को फ़ोन किया। वह अपने घर में बहुत खुश थी, सब कुछ था उसके पास, बस समय ही नहीं था। जब-जब उसे ज़रूरत पड़ी, उसने अपनी माँ नीलिमा को पुकारा, तब-तब माँ ने साथ दिया। लेकिन आज जब माँ को संभालने की बारी आई, तब उसके पास भी समय की कमी, अपने परिवार की उलझनें, अपनी व्यस्तता आड़े आ गई।

नीलिमा बिस्तर पर लेटे-लेटे यह सब सुनती रहतीं । आँखों से बहते आँसुओं को अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछ कर अपने पति सौरभ से छुपाती रहतीं लेकिन सौरभ कोई बच्चे नहीं थे वह सब समझ रहे थे। सौरभ का दिल टूट गया था। वह अपनी पत्नी का होता तिरस्कार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। अंततः एक दिन उनका धैर्य ख़त्म हो गया और उन्होंने नीलिमा से बिना पूछे ही अपने घर वापस लौटने की पूरी व्यवस्था कर ली। वह नीलिमा और ख़ुद का सामान एक सूटकेस में रख रहे थे।

तब नीलिमा ने पूछा, “सौरभ यह क्या कर रहे हो?”

“वही नीलिमा जो बहुत पहले कर लेना चाहिए था पर बहुत देर हो गई है। बस अब चलो अपने घर।”

जाते वक़्त तक भी उन्होंने चिराग और उसकी पत्नी को कुछ नहीं बताया। जब टैक्सी घर के सामने आकर खड़ी हो गई, तब चिराग ने पूछा, “पापा क्या आप कहीं जा रहे हैं?”

अपने चश्मे को आँख पर चढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “हाँ चिराग जिस घोंसले को खाली छोड़ आए थे, उसी में वापस जा रहे हैं।”

“लेकिन पापा?”

“नहीं बेटा हम समझ सकते हैं, तुम्हारी परेशानी को। हम किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते और वैसे भी यहाँ कब तक रहेंगे तुम्हारे घर।”

“लेकिन पापा, माँ की तबीयत …?”

“कोई बात नहीं बेटा, मैं हूँ ना मैं संभाल लूंगा उसे। वह मेरी जवाबदारी है और इसे पूरा करना मेरा फ़र्ज़ है। तुम्हारी माँ तुम चारों भाई बहन के बीच यहाँ से वहाँ लुड़काने वाली कोई गेंद नहीं है बेटा, जो तुम अपनी-अपनी सुख-सुविधा के लिए उसे यहाँ से वहाँ भेजते रहो। तुम सब उसे यहाँ से वहाँ धकेलो, उससे अच्छा है मैं ही उसे लेकर यहाँ से चला जाऊँ।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः

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