अब कुबेर बने कौत्रेय ने इस बात का लाभ उठाया और एक दिवस एकान्त में जाकर कर्बला बनी कालवाची से बोला....
"कालवाची!तुमने देखा था ना कि तुम्हारे खो जाने पर अचलराज किस प्रकार व्याकुल हो उठा था",
"तो इसका आशय मैं क्या समझूँ"?,कालवाची ने पूछा...
"इसका आशय ये है बावरी कि वो तुमसे प्रेम करता है",कौत्रेय बोला...
"किन्तु!ये कोई पूर्णतः विश्वास करने योग्य बात तो ना हुई",कालवाची बोली....
"अब तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं होता तो मैं क्या करूँ"?,कौत्रेय बोला....
"कौत्रेय! तुम तो रुठ गए",कालवाची बोली...
"रूठूँ ना तो क्या करूँ?,तुम बात ही ऐसी कह रही हो,मैनें अचलराज की दृष्टि में तुम्हारे लिए अपार प्रेम देखा है,उसके हृदय में केवल तुम्हारी ही छवि बसती है कालवाची!और तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं होता, तुम मेरी मित्र हो या कहा जाए तो तुम ही मेरी सब कुछ हो तो मैं तुमसे झूठ क्यों कहूँगा भला"?कौत्रेय बोला...
"किन्तु उसने मुझसे कभी कहा नहीं तो कैसें मान जाऊँ कि उसे मुझसे प्रेम है",कालवाची बोली...
"तो मत मानो",कौत्रेय बोला...
"तुम पुनः क्रोधित हो उठे",कालवाची बोली...
"तुम बात ही क्रोध दिलाने वाली कर रही हो कालवाची!",कौत्रेय बोला....
"मुझे अब भी विश्वास नहीं होता कि कोई मुझसे से भी प्रेम कर सकता है,एक बार मैनें प्रेम किया था किन्तु उसका परिणाम अच्छा नहीं रहा,इसलिए पुनः ऐसा कार्य करने में मुझे भय लगता है",कालवाची बोली...
"कालवाची!वो तुम्हारे जीवन की भूल थी किन्तु ये सच्चा प्रेम है,वो प्रेम केवल एक ओर से था किन्तु ये प्रेम दोनों ओर से होगा",कौत्रेय बोला...
"सच कहते हो तुम",कालवाची ने पूछा...
"हाँ!एकदम सत्य है ये"कौत्रेय बोला...
"यदि अचलराज मुझसे प्रेम करता है तो व्यक्त क्यों नहीं करता,?",कालवाची ने पूछा...
तब कौत्रेय बोला...
"कालवाची!ऐसे कार्यों में तनिक समय लगता है,पुरूष कोई कार्य आकुलता में नहीं करते,वें स्त्रियों की भाँति अधीर नहीं होते,उनमें अत्यधिक धैर्यता होती है,इसलिए अचलराज को भी ये कहने में समय लग रहा है,समय आने पर वो तुमसे अपने हृदय की बात कह देगा",
"हाँ!मैं भी व्याकुल हूँ उसके मुँख से इन शब्दों को सुनने के लिए",कालवाची बोली...
"हाँ!तुम भी तनिक धैर्य रखो,इतना अधीर होने की आवश्यकता नहीं है मेरी प्रिए सखी!",कौत्रेय बोला....
एवं उन दोनों के मध्य यूँ ही वार्तालाप चलता रहा और इधर अचलराज दुर्गा को पसंद करने लगा था ,उसे उससे बातें करना अच्छा लगता था किन्तु प्रेम वो भैरवी से करता था,इसलिए दुविधा में था कि वो क्या करें क्योंकि दुर्गा उसके समक्ष थी जिससे वो प्रेम नहीं करता था किन्तु उसे पसंद करता था और भैरवी उससे दूर थी जिससे वो प्रेम करता था,परन्तु उसे ये भी ज्ञात नहीं था कि भैरवी है कहाँ?,किस दशा में है? हो सकता है कि अब तक उसका विवाह भी हो चुका हो और एक दिवस वो इसी अन्तर्द्वन्द्व के मध्य उलझा हुआ चिन्तित सा अपने घर से कुछ दूर पर एक वृक्ष के तले बैठा था,तभी उसको खोजते हुए वहाँ दुर्गा बनी भैरवी आ पहुँची और उसके समीप जाकर बोली....
"क्या हुआ अचलराज तुम यहाँ ऐसे भ्रान्तचित्त (उदास) से क्यों बैठे हो?"
दुर्गा का स्वर सुनकर अचलराज सजग सा हुआ और उसने उससे पूछा...
"दुर्गा!तुम और यहाँ"
"हाँ!तुम्हें खोजते हुए यहाँ आ पहुँची"
"मुझे क्यों खोज रही थी तुम"?अचलराज ने पूछा...
"यूँ ही तुमसे वार्तालाप करने का मन हुआ तो तुम्हें खोजते हुए यहाँ आ पहुँची",दुर्गा बोली....
"मुझसे वार्तालाप करने का मन हुआ या झगड़ने का मन हुआ,"अचलराज ने पूछा...
"तुम ऐसी बात कहते हो तो मैं यहाँ से जा रही हूँ",दुर्गा रूठते हुए बोली...
"बस इतनी सी बात पर रूठ गई,बावली कहीं की"अचलराज बोला...
"रूठूँ ना तो क्या करूँ?तुम बात ही ऐसी कह रहे हो",दुर्गा बनी भैरवी बोली...
"अब मुँह मत फुलाओ,बैठो मेरे पास",अचलराज बोला...
और इसके पश्चात दुर्गा बनी भैरवी अचलराज के समीप आ बैठी और उससे बोली...
"अब बोलो क्या बात है तुम इतने विचारमग्न से यहाँ क्यों बैठे थे?
"बस यूँ ही",अचलराज बोला...
" मुझसे नहीं कहोगे अपने मन की बात",दुर्गा बोली...
"अब क्या कहूँ तुमसे कि मैं यहाँ विचारमग्न क्यों बैठा था"?,अचलराज बोला...
"कहीं तुम्हें भैरवी की स्मृतियों ने तो व्याकुल नहीं कर रखा"?,दुर्गा ने पूछा...
"तुमने कैसें ज्ञात किया? ",अचलराज ने पूछा...
"इसका तात्पर्य है कि तुम भैरवी को ही याद कर रहे थे",दुर्गा बोली....
"हाँ!उसे भी याद कर रहा था और तुम्हें भी",अचलराज बोला...
"उसे भी और मुझे भी,दोनों को याद कर रहे थे,वो क्यों भला?",दुर्गा ने पूछा...
"मैं अत्यधिक दुविधा में हूँ इसलिए",अचलराज बोला...
"दुविधा....कैसी दुविधा?",दुर्गा ने पूछा...
"दुविधा ये है कि मैं भैरवी से ही प्रेम करता हूँ क्योंकि बाल्यकाल से ही भैरवी की छवि मेरे मन-मंदिर में बसी है...किन्तु...
और ऐसा कहते कहते अचलराज एकाएक शान्त हो गया तो दुर्गा ने पूछा...
"क्या हुआ?तुम बात करते करते एकाएक रूक क्यों गए,किन्तु के आगें क्या है वो तो बोलो"
तब अचलराज बोला....
"तुम मुझे वचन दो कि तुम मेरी बात पर हँसोगी नहीं और मुझे समझने का प्रयास करोगी"
"हाँ!मैं वचन देती हूँ अब बोलो कि क्या बात है",दुर्गा बोली...
तब अचलराज बोला....
"दुर्गा ! बात ये है कि भैरवी मेरे हृदय में बसती है किन्तु तुम मेरी आँखों में समाई हो,भैरवी मेरे समीप नहीं है और तुम मेरे समीप हो और कभी कभी जब मैं तुम्हारे हाव-भाव देखता हूँ तो तुम में मुझे भैरवी दिखाई देती है,मैं स्वयं को अत्यधिक समझाने का प्रयास करता हूँ किन्तु समझा नहीं पाता,एक क्षण को मन कहता है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ परन्तु जब मैं ये बात सोचता हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं भैरवी के संग विश्वासघात कर रहा हूँ,आँखें तुम्हें देखती है और हृदय भैरवी को चाहता है,मेरा मस्तिष्क और मेरा हृदय दोनों ही विपरीत दिशा में गति कर रहे हैं ,दोनों एक जैसा नहीं सोच रहे हैं और कभी कभी सोचता हूँ कि तुमसे कह दूँ कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ परन्तु अन्ततः सोचता हूँ कि कहीं भैरवी पुनः मिल गई तो तब क्या होगा"?
"इतनी अत्यधिक दुविधाओं से घिरे हो तुम",दुर्गा बोली...
"हाँ!चहुँ ओर दुविधा ही दुविधा है",अचलराज बोला...
"किन्तु!मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम भैरवी से ही प्रेम करते हो,",दुर्गा बोली...
"वो अब तक मेरी प्रतीक्षा में थोड़े ही बैठी होगी",अचलराज बोला...
"तुम ऐसा कैसें कह सकते हो"?अचलराज बोला...
"उसने अब तक किसी सुन्दर,सुशील युवक के संग विवाह कर लिया होगा",अचलराज बोला...
"यदि मैं कहू्ँ कि उसने अब तक विवाह नहीं किया तो तुम इस पर क्या कहोगे"?दुर्गा ने पूछा...
"तुम इतने विश्वास के साथ कैसें कह सकती हो कि अब तक भैरवी ने विवाह नहीं किया होगा और अब तक उसके जीवन में किसी ने प्रवेश नहीं किया होगा",अचलराज ने पूछा...
"वो इसलिए क्योंकि मैं ही भैरवी हूँ",दुर्गा बोली...
"सच! क्या कहा तुमने कि तुम ही भैरवी हो?....पुनः कहो कि तुम ही भैरवी हो",अचलराज बोला...
"हाँ!मैं ही भैरवी हूँ", भैरवी बोली
"सच कह रही हो ना तुम! ",अचलराज ने पूछा
"हाँ!एकदम सच है ये और तुम्हें खोजते हुए ही तो यहाँ तक आ पहुँची हूँ",भैरवी बोली....
ये बात सुनकर अचलराज की प्रसन्नता का पार ना रहा और उसने शीघ्रता से भैरवी को अपने अंकपाश में ले लिया....
क्रमशः...
सरोज वर्मा...