प्रेम गली अति साँकरी - 61 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 61

61---

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आज श्रेष्ठ काफ़ी खुश था | व्यक्तित्व तो उसका शानदार था ही, आज ड्रेसअप भी कमाल का था | उस स्काई ब्लू और रॉयल ब्लू के कॉमबिनेशन ने उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा दिए थे, एक अलग ही रंग में रंग दिया था उसे | 

‘सच है, इंसान के लिबास का उस पर कितना फ़र्क पड़ता है, और अगर वह खूबसूरत हो तब तो बात ही क्या है!’मैं उसको देख रही थी और कहीं न कहीं दिल में खुश भी थी | क्या मैं उसके साथ फ़िट बैठ सकूँगी या वह मेरे ?एक ही बात है वैसे तो ---लेकिन---

“लुकिंग सो ग्रेसफुल ---”उसने गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर मुझे ऊपर से नीचे तक प्रशंसा की दृष्टि से देखते हुए मेरी तारीफ़ की | मुझे मालूम था, मैं आज काफ़ी दिनों बाद इतनी अच्छी तरह से तैयार होकर निकली थी | हाँ, मुझ पर चीज़ें खिलती थीं, मैं जानती थी, लोगों की निगाहें पहचानना स्त्री के लिए कठिन नहीं होता | आज कहीं एक उत्सुकता भी थी कि देखते हैं मेरा और श्रेष्ठ का रिश्ता कितना और कैसे आगे बढ़ता है?वैसे मैं अच्छी लग रही थी, इस बात का प्रमाण मुझे उत्पल भी तो दे चुका था | वैसे भी उसकी तो आदत थी, जहाँ कहीं मुझे देखा नहीं कि बस--एकटक देखना शुरू किया | मैं देखती तो वह दृष्टि घुमा लेता | उसकी दृष्टि, उसकी देह, शब्दों के बिना भी मुझसे कुछ न कुछ कहती ही रहती थी | 

“क्या सोच रही हो अमी ?”श्रेष्ठ ने मुझे चुप देखकर पूछा | 

‘आज वह गाड़ी अपने मन के अनुसार जहाँ ले जाएगा, मैं उसे नहीं टोकुंगी’मैं घर से सोचकर ही निकली थी | 

“आप पर यह कॉमबिनेशन बहुत सूट करता है | ”मुझे लगा, इतना बोलना तो कर्टसी है | 

वह बहुत खुश हो गया, उसके चेहरे की गर्विली मुस्कान ने मुझे बता दिया कि वह कब से मेरे मुँह से यह सब  सुनने की प्रतीक्षा कर रहा था | गर्व से भरकर चेहरा कैसा चमकने लगता है ! मैंने श्रेष्ठ के चेहरे पर दृष्टि डाली और मुझे उसका गर्वीला चेहरा एक अभिमानी के रूप में महसूस होने लगा | मैं चुप थी, अपनी कोई प्रतिक्रिया दिए बगैर!पहले एक दूसरे को समझ तो लें, तभी आगे बढ़ सकेंगे न?

श्रेष्ठ को संगीत में भी दिलचस्पी थी;

“क्या सुनोगी ?”उसने मुझसे पूछा क्योंकि बातों का सिलसिला शुरू ही नहीं हो पा रहा था | शायद वह सोच रहा होगा कि कहाँ से बात करनी शुरू की जाए और मैं खुद कुछ बोलने के मूड में नहीं थी | वह मुझे लेकर आया था, उसका बहुत मन था मुझे अपने साथ ‘डेट’पर ले जाने का, उसे बात शुरू करनी चाहिए थी | वैसे ऐसा कुछ नहीं था कि यह उसका ही रोल होना चाहिए था लेकिन न जाने क्यों मैं पहले उसके बोलने की ही प्रतीक्षा करती रही | तभी उसने गाने के लिए पूछा | 

“कुछ भी ?”मैंने अनमने से स्वर में उत्तर दिया | 

“फिर भी –” उसने मेरी चॉइस जाननी चाही | 

“कैलाश खैर लगा दीजिए---”

“ओह ! कोई रोमेन्टिक सुनो न यार, कुछ मूड बने---”

“जो आपका मूड हो ---”मैंने धीरे से कहा, भला मुझसे फिर पूछा ही क्यों था?मैंने मन में सोचा और चुप बैठ गई | 

“रंजिश ही सही, दिल ही दुखने के लिए आ----” मेहंदी हसन के संगीत के बोल वातावरण में पसरते हुए मेरे दिल तक पहुँचने लगे | मुझे बहुत पसंद थी यह गज़ल !मैं आँखें मूंदकर सीट के पीछे टेक लगाकर शब्दों को मन की सतह पर से पकड़ने का असफ़ल प्रयास करने लगी | मुझे यह गज़ल इतनी पसंद थी कि मैं आँखें मूंदकर सुनती तो मेरी आँखों की कोरों में आँसु अटकने लगते | उस समय मैं किसी का कोई डिस्टरबेन्स नहीं चाहती थी | उत्पल के साथ काम करते-करते कई बार यह गज़ल मैंने उसके साथ सुनी थी और मेरे सामने उसका चेहरा घूम जाता था | 

पता नहीं, ऐसा लगता मैं गहरे इश्क में डूब गई हूँ | मन करता, आज मेरे सामने वह शख्स आ ही जाए जो न जाने किन्हीं क्षणों, कभी मेरे जिस्म और मन का भाग ज़रूर ही बना होगा और मैंने उसे देखा भी नहीं है, मेरा मन उसे ज़रूर पहचानता है। कौन हो सकता था वह ?मन पागल सा हो जाता | कभी एक दोस्त से सुना था जिन दिनों वह इश्क में थी;

“आप इश्क में अगर पागल न हों तो वह इश्क ही क्या?”मुझे सुनकर बड़ा अजीब लगा था लेकिन कितनी बार  अपने दिल की तेज़ धड़कन को मैं संभालने में अपने आपको असमर्थ पाती थी | न जाने कितनी बार उस दोस्त के शब्द मेरे कानों में से होकर गुजरते हुए दिल की गहराई में समा जाते जैसे किसी कूँए की गहराई हो और मुझे कुछ दिखाई नहीं दे पाता हो | 

मुझे उसकी बात में कोई तथ्य महसूस नहीं हुआ था और हमेशा से अपने अम्मा-पापा का इश्क ही सर्वोपरि लगता रहा था | इश्क भौतिक से आध्यात्म की यात्रा है, मैंने हमेशा यही महसूस किया था | 

“आइए, ”अचानक गाड़ी रुक गई, संगीत कबका बंद हो चुका था जो मुझे पता ही नहीं चला था और मेरी आँखों की कोरों में अटकी बूँदों को मैंने रुमाल में भरकर श्रेष्ठ पर एक फॉर्मल मुस्कान फेंक दी थी | 

“लगता है, सो गईं थीं ---”

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, और गाड़ी से उतर गई | यह एक बड़ा सा कोई कई स्टार वाला होटल था जिसकी भव्य बिल्डिंग के बाहर के खूबसूरत बगीचे में हम खड़े थे | श्रेष्ठ ने वैलेट पार्किंग के लिए गाड़ी की चाबी उछालकर फेंक दी जिसे वहाँ खड़े कर्मचारी द्वारा पकड़ लिया गया | उसने सिंह द्वार की ओर चलने के लिए मेरा हाथ  अपने हाथ में ले लिया और आगे बढ़ने लगा | मुझे कुछ अजीब सा महसूस हुआ लेकिन उस स्थिति में मैंने अपना हाथ छुड़ाने का प्रयत्न नहीं किया शायद वह शर्मिंदगी महसूस न कर बैठे | ऐसे पब्लिक स्थानों में ये सब बड़ी नॉर्मल सी बातें होती हैं | वहाँ खड़े गार्ड्स उसे सलाम मार रहे थे जैसे वे सब उससे काफ़ी पहले से परिचित हों | 

मैं चुपचाप उसके साथ आगे बढ़ती रही | हम कई खूबसूरत पैसेजेज़ पार करके किसी लिफ़्ट तक आ पहुँचे थे | लिफ़्ट के अंदर भी वह जैसे मेरे हाथ की गर्म हथेली को महसूस करता हुआ मुझसे सटकर खड़ा रहा, बिना एक भी शब्द बोले | न जाने मैं किस मानसिक स्टेज में थी, जैसे एक बेजान कठपुतली सी जो ऐसी स्थिति में तो कभी चुप रह ही नहीं सकती थी | फिर -----आज क्या था ??