ओ...बेदर्दया--भाग(४) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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ओ...बेदर्दया--भाग(४)

जब शास्त्री जी घर लौटे तो शैलजा ने उन्हें सब बता दिया,इस बात से शास्त्री जी बहुत नाराज हुए और शैलजा से बोलें...
"मैं अभी नालायक के घर जाता हूँ उसकी ख़बर लेने"
तब शैलजा बोली...
"सुनिए जी!बात मत बढ़ाइए,आपके उसके बीच कहा सुनी हुई और उसने आपको अशब्द बोल दिए तो मैं सह नहीं पाऊँगी,वैसे भी सारा गाँव जानता है कि उसका कैसे कैसे लोंगो के साथ उठना बैठना,चौबीसों घण्टों गाँजा पीता रहता है,गलती मेरी थी जो आपके घर पर ना होने पर मैनें उसके लिए दरवाजा खोल दिया,मुझे क्या पता था कि वो नीच इस हद तक गुजर जाएगा, और फिर अगर कीचड़ में पत्थर उछालेगें तो कुछ छींटे तो हम पर भी पड़ेंगे,आपको नहीं पता ये समाज जरा सी बात पर तिल का ताड़ बना देता है,इस बार रहने दीजिए,अबसे मैं कभी उसे घर में घुसने ही ना दूँगीं"
तब शास्त्री जी बोले...
"तुम कहती हो तो रूक जाता हूँ नहीं तो आज मैं उसे जिन्दा ना छोड़ता"
"अब गुस्सा थूक दीजिए और दिमाग को ठण्डा कीजिए",शैलजा बोली....
फिर उस दिन के बाद ना तो लल्लन ने शैलजा के घर कदम रखे और ना ही शैलजा और शास्त्री जी उसे अपने घर बुलाया,तीज त्यौहार में उसे कभी न्यौता ना दिया....
और आज इतने साल बाद लल्लन को अपने घर में देखकर उसकी रूह काँप गई,क्योंकि अब उसे अपने पति और बेटे की चिन्ता थी क्योंकि लल्लन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था,ये सब बातें शैलजा रसोईघर में बैठकर सोच ही रही थी कि तभी लल्लन ने आवाज दी और शैलजा का ध्यान टूटा,लल्लन बोला....
"भौजी!और करेला मिलेगा"
"हाँ!अभी आई" और इतना कहकर शैलजा करेला लेकर कमरे में पहुँची तो लल्लन बोला....
"भौजी!कुछ भी कह लो,तुम खाना बहुत ही उम्दा बनाती हो,ये भरवाँ करेले...अहा...हा..हा...मजा ही आ गया कसम से,कच्चे आम की चटनी और ये बूँदी का रायता तो इतना शानदार बना है कि पूछो ही मत,ये अरहर की दाल पर लहसुन का तड़का,कमबख्त मन करता है कि बस खाए जाओ,अगर रायता और बचा हो तो दे दो"
शैलजा रसोईघर में रायता लेने चली गई और फिर जो जो लल्लन ने दोबारा माँगा,शैलजा ने उसकी थाली में परोस दिया और जब लल्लन का पेट भर गया तो उसने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए शास्त्री जी से कहा....
"कसम से भाईसाहब!आज खाना खाकर आनन्द ही गया,जेल में तो वहीं पतली दाल और जली रोटियाँ खाकर मन उकता गया था,अब एक अच्छा सा बिस्तर मिल जाए तो एक नींद ले लूँ"
शास्त्री जी संकोच में पड़े थे कि क्या बोलें और क्या ना बोलें,उन्होंने सोचा था कि खाना खाकर चला जाएगा,लेकिन अब तो वो उनके घर में पनाह भी माँग रहा था,लल्लन के व्यवहार से शास्त्री जी का दिमाग भन्ना रहा था,उनसे सहन तो नहीं हो रहा था लेकिन अभी भी वो लल्लन को सहन किए जा रहे थे,ये उनकी विवशता कहिए या उनका शीलभाव कहिए,लेकिन उन्होंने अपने क्रोध को अपने चेहरे पर प्रकट होने नहीं दिया था,नाराज होते हुए भी शास्त्री जी ने सबसे बाहर वाले कमरें में लल्लन को ठहरा दिया और सीलिंग फैन चलाकर बोलें...
"जाओ!लेट जाओ,वो रहा बिस्तर"
फिर क्या था लल्लन डकार मारकर बिस्तर पर ढ़ह गया और शाम तक सोता रहा,साँझ होने को आई थी,शैलजा आँगन में तुलसी चौरे पर दिया जलाकर शाम की आरती गा रही थी,इतने में शैलजा की आरती सुनकर लल्लन की आँख खुली और बाहर आकर उसने अभ्युदय से एक गिलास पानी माँगा,तो अभ्युदय ने लल्लन को एक गिलास पानी ला कर उसके हाथ में थमा दिया,लल्लन पानी का गिलास लेकर आँगन में पड़ी चारपाई पर बैठ गया,शैलजा की आरती खतम हुई तो उसने तुलसी चौरे को प्रणाम किया और जाने लगी तो लल्लन बोला....
"भौजी!तुम्हारा कंठ तो बड़ा सुरीला है"
शैलजा ने लल्लन की बात का कोई जवाब ना दिया और आगें बढ़ गई तब लल्लन दोबारा बोला...
"अब भी वहीं ऐठन बाकी है तुम में"
शैलजा ने तब भी कोई जवाब ना दिया और भीतर चली गई,आँगन में बाहर के द्वार से शास्त्री जी सब्जियों का थैला लेकर भीतर आ रहे थे और उन्होंने लल्लन के कहे बाद वाले शब्द सुन लिए थे,इसलिए उन्होंने लल्लन से पूछा....
"किसके ऐठन की बातें चल रही थी लल्लन"?
"कुछ नहीं भाईसाहब!मैं तो भौजी से ऐसे ही कह रहा था"
"अच्छा!जरा हम भी तो सुने क्या कह रहे थे अपनी भौजी से"?,शास्त्री जी बोले...
"बस कुछ नहीं ऐसही बातें चल रहीं थीं",लल्लन बोला...
"और कब तक रूकोगे यहाँ"?,शास्त्री जी ने पूछा...
"मेरे यहाँ रहने से दिक्कत हो गई क्या आपको?आप कहे तो अभी चला जाता हूँ",लल्लन बोला...
"अभी जाने की जरूरत नहीं है लेकिन जल्द ही अपना और ठिकाना ढ़ूढ़ ल़ो,"शास्त्री जी बोले...
"मतलब!आपको मेरा यहाँ आना अच्छा नहीं लगा",लल्लन बोला...
"अब चाहे तुम कुछ भी समझ लो,ये तो तुम्हारी समझ है"शास्त्री जी बोलें....
"हाँ!भाई!मुझ जैसे खूनी-कातिल को भला कौन शरीफ आदमी आपने घर में आसरा देगा,मैं तो अनाथ ठहरा,माँ बाप होते तो काहे को मुझे ये दिन देखना पड़ता",लल्लन बोला....
"अगर चाचा-चाची होते तो जो तुम्हारे ढंग हैं ना! तो उन्हें देखकर शर्म के मारे दुनिया वालों से आँखें ना मिला पाते,अच्छा हुआ जो बेचारे ये दिन देखने से पहले ही स्वर्गवासी हो गए",शास्त्री जी गुस्से से बोले...
"भाईसाहब!आपने रोटी के दो टुकड़े क्या खिला दिए ?आप तो मुझ पर कुत्ते की तरह भौंकने लगे",लल्लन बोला...
"लल्लन!जुबान सम्भालकर बात करो,मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ",शास्त्री जी चीखें...
"जब आपने छोटे बड़े का लिहाज नहीं रखा तो मैं लिहाज क्यों रखूँ"?,लल्लन बोला....
"तो फिर निकल जाओ,मेरे घर से"शास्त्री जी चिल्लाए
"हाँ....हाँ....रहना भी कौन चाहता है इस घर में"लल्लन बोला...
"तो फिर इसी वक्त निकल जाओ मेरे घर से",शास्त्री जी गुस्से से बोले...
और फिर उसी वक्त लल्लन उनके घर से बाहर चला गया और लल्लन के इस प्रकार जाने से शैलजा परेशान हो उठी,वो भीतर बैठी सब सुन रही थी और उसने अभ्युदय को भी बाहर आने नहीं दिया था,लेकिन अब वो मन ही मन चिन्ता में डूबी जा रही थी और ये सोच रही थी कि शास्त्री जी ने नाहक ही लल्लन से बैर मोल ले लिया,वो अब ना जाने क्या करेगा?
लल्लन के जाने के बाद शैलजा बाहर आकर शास्त्री जी से बोली....
"आपको उसे इतना कुछ नहीं सुनाना चाहिए था,"
"ना सुनाता तो वो यहाँ से ना जाता और यहाँ टिका रहता तो तुम्हें रोजाना कुछ ना कुछ कहता रहता,जो मेरी बरदाश्त से बाहर होता"शास्त्री जी बोले...
"लेकिन आप जानते हैं ना कि उसकी संगत कुछ ठीक नहीं है",शैलजा बोली...
"बाद की बाद में देखी जाएगी लेकिन अभी तो उससे छुटकारा मिल गया,कितनी गंदी निगाहों देखता है वो तुम्हें",शास्त्री जी बोले...
"लेकिन मुझे डर लग रहा है",शैलजा बोली...
"डरो मत ,मैं हूँ ना!" और इतना कहकर शास्त्री जी शैलजा के गाल पर तसल्ली भरा हाथ फेरकर, हाथ मुँह धोने स्नानघर की ओर चले गए"
और इधर शैलजा के माथे पर चिन्ता की लकीरें उभर आईं....

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....