अपना आकाश - 17 - नकेल हमारे हाथ में Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अपराध ही अपराध - भाग 24

    अध्याय 24   धना के ‘अपार्टमेंट’ के अंदर ड्र...

  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

श्रेणी
शेयर करे

अपना आकाश - 17 - नकेल हमारे हाथ में

अनुच्छेद- 17
नकेल हमारे हाथ में

सप्ताह भर बाद रविवार का दिन। मंगल ने भंवरी से कहा, 'जरा भाव-ताव भी पता कर लूँ। वीरू की आज छुट्टी है। खेत पर ही पढ़ाई करता रहेगा। तू भी बीच-बीच में देखती रहना।' 'होशियारी से काम करना । तनिक सी चूक बहुत दुख देती है। हिसाब-किताब की बारीकी समझ कर कदम उठाना।' भँवरी ने सचेत किया।
जल्दी से रोटियाँ सेंकी।
रोटी दही खाकर मंगल तैयार हुए। तन्नी वत्सला बहिन जी के यहाँ गई थी। वीरू भी दही रोटी खाकर बस्ता ले खेत पर चला गया। मड़ई में चारपाई पर बैठकर पढ़ता और लहसुन का खेत भी देखता ।
मंगल दस बजे के करीब आढ़तिया नागेश लाल की दुकान पर पहुँचे । नागेश कहीं गए हुए थे। मंगल एक कुर्सी पर बैठे नागेश लाल की प्रतीक्षा करने लगे। आधे घण्टे में नागेश आ गए।
‘फसल तो तैयार हो गई है।' नागेश ने पूछा या बताया कह पाना मुश्किल है।
'हाँ तैयार है।' मंगल ने हामी भरी।
नागेश अपने आदमियों से मंगल के फसल की जानकारी लेते रहे हैं। उन्हें अपना बकाया वसूलना है। भाव डगमग देखते हुए वे अभी चुप हैं। 'भाव-ताव का क्या हाल है?' मंगल ने पूछा। 'अभी तो आवक शुरू ही नहीं हुई। भाव कहाँ?' नागेश ने बताया
'आखिर किस भाव जायगा ?"
"यह तो आवक होने पर ही तय होगा। माल जिस दिन आएगा उस दिन का भाव।' नागेश सँभलकर बैठे। 'तो फिर चलते हैं। लहसुन खुद जाए तब लाऊँ ।' मंगल ने साइकिल उठाई और चल पड़े। कुछ दूसरे आढ़तियों से भी पूछताछ की पर सब का एक ही उत्तर । उन्हें लगा कि सभी की साठगाँठ है। किसानों से माल लेने का समय आ गया है। वे सस्ते में खरीदना चाहेंगे। लेकिन खरीदने वाले तो यही लोग हैं। किसान इनसे बाहर कहाँ जायगा ? एक चाय की दूकान पर उन्होंने अखबार में लहसुन का भाव देखने की कोशिश की। पूरा अखबार छान मारा, कहीं लहसुन का भाव नहीं। गेहूँ चावल, गन्ना का समर्थन मूल्य भी सरकार तय करती है पर लहसुन का समर्थन मूल्य भी नहीं । चलो, देखा जायगा । वे चाय की दूकान से उठे । घर की ओर चल पड़े कबड़िया की दूकान पर लहसुन का भाव पूछा। 'नया माल आने वाला है। यह पुराना माल है सत्तर रुपये किलो मिल जायगा। कबड़िया ने एक ग्राहक को सौ ग्राम तौलते हुए बताया। 'नया क्या भाव लोगे?' मंगल पूछ बैठे। 'नए का भाव आढ़तियों से मालूम हो सकेगा। हम लोग उन्हीं से थोड़ा-थोड़ा लाकर बेचते हैं। ज्यादा लाकर क्या करेंगे?"
मंगल ने सुना। साइकिल घर की ओर मोड़ दी ।
आखिर कितना कम करेंगे। अस्सी रुपये किलो पिछले साल बिका है। इस साल पचास-साठ में भी बिक गया तो भी ठीक ही है।
शाम को लहसुन के आढ़तियों की एक दावत हजारी मल के यहाँ हुई । साढ़े आठ बजे तक लोग इकट्ठा हुए। नागेश लाल, अख्तर भाई, किरोरी लाल के आते ही स्काच की बोतल खुली। पकौड़ियों की प्लेटें एक बड़ी मेज पर सजी थीं। पकौड़ियाँ खाते हुए स्काच को ढाला गया। अपना अपना गिलास उठाकर लोगों ने 'चीयर्स' किया। एक एक घूँट से गला तर करते हुए बात शुरू हुई।
'लहसुन का रकबा भी बढ़ा है। उपज भी अच्छी हुई है।' किरोरी लाल ने कहा । 'सच है।' अख्तर भाई ने ताईद की 'तो पुराने भाव पर लहसुन खरीदना मूर्खता होगी।' हजारीमल चहके ।
'कौन पुराने भाव पर खरीदने ही जा रहा है?"
किरोरी चुस्की लेते हुए बोल पड़े।
"इस बार किस भाव खरीदा जाय यह तो बताओ?' एक ने कहा। 'बताऊँ मैं?" हजारी मल आधा गिलास खाली करते हुए बोल पड़े। 'हाँ, हाँ बताओ ।’ किरोरी ने एक घूँट और उतारा। 'चौंकिएगा नहीं।' हजारी को अन्दाज़ था कि लोग चौंकेंगे। 'इसमें चौकने की क्या बात है?' किरोरी भी कम न थे। 'चौंकने की बात ही है', हजारी फिर चहक उठे ।
"बताओगे भी?' किरोरी जैसे पीछे न हटना चाहते हों।
'एक हजार रूपये कुन्तल ।' हजारी की दोनों मुट्ठियाँ तन गईं। 'पागल हो गए हो? इतने सस्ते में कोई बेचेगा?' किरोरी भी कैसे चुप होते? 'लहसुन क्या सरकार खरीदेगी? खरीदना तो हम लोगों को है', हजारी की मुट्ठियाँ दूसरी बार तनीं। 'हम लोग यहाँ एक हजार रू० कुन्तल खरीदें और दूसरी जगह के लोग छह हजार रुपये कुन्तल लें.....। तब तो हम खरीद चुके ।' किरोरी ने भी तीर छोड़ा। 'भाई साहब, बन्दा समझ बूझ कर ही बात करता है। कानपुर लखनऊ और मेरठ वालों ने एक हजार रुपये कुन्तल ही खरीदने का फैसला किया है।' हजारी ने इत्मीनान से गिलास खाली करते हुए कहा । 'और जगह ?" किरोरी भी बाँह सरकाते रहे। 'और जगह के लोग भी यही भाव लेंगे। हजारी ने आश्वासन दिया। 'तो बोलो भाई नागेश जी ।' किरोरी ने पूछा। 'हजारी मल जी ठीक कर रहे हैं। हमें इसी भाव पर खरीदना चाहिए।' क्यों भाई? तो बात पक्की?" हजारी ने अख्तर भाई की ओर देखा। 'हाँ पक्की' सभी ने हामी भरी। ‘तो इसी पर एक पेग और', कहते हुए हजारी ने एक प्लेट गर्म गर्म पकौड़ी और मँगा ली।
'लहसुन के फायदे से सब लोग इस साल एक-एक नई कोठी बनवाओ।'
किरोरी जोश में आ गए।
'जरूर बनवाएंगे।' नागेश भी चहके ।
'कमाई होगी तो बनेगा ही।' अख्तर ने भी हामी भरी। 'हम देश के सपूत हैं। हम न हों तो किसान भूखो मर जाय । एक एक पैसे को तरस जाय। उनका माल हमीं तो खरीदते हैं।' हजारीमल ने पूरा गिलास खाली कर दिया। 'जरूर जरूर ठीक कहते हो हजारी। हम देश के रतन हैं रतन । संसद और विधान मण्डल में हमारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए।' 'यह क्या कहते हो किरोरी? हम में से ही मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री होना चाहिए।' 'होगा, होगा' कहते हुए किरोरी उठे। उन्हीं के साथ सभी उठ पड़े।
'चुनाव अब दूर नहीं है। एक बात पक्की समझो, किरोरी, सरकार चाहे जिसकी बने, उसकी नकेल हम लोगों के हाथ ही रहेगी।' 'खूब कहा। हजारी, तुमने खूब कहा।' कहते हुए किरोरी गाड़ी में बैठ गए।