अनुच्छेद- 9
ई सब कब तक चली?
हटीपुरवा में इक्यावन घर हैं। ग्राम पंचायत में बारह पुरवे, दो बड़े शेष छोटे । यह अवध का गाँव ऊपरी सरयूपार का हिस्सा। भाभर-तराई को छोड़कर हर जगह नल गाड़कर पानी निकालना सरल। दस से बीस हाथ नीचे पानी । चाहे कुआँ खोदकर निकालो या नल गाड़कर। सिंचाई के लिए बोरिंग भी कठिन नहीं। ऊपरी परत के पानी की शुद्धता पर सवाल जरूर उठ रहे हैं पर पानी की सहज उपलब्धता से कोई कहीं भी बस सकता है। एक मड़ई एक नल से गृहस्थी शुरू हो सकती है। इसीलिए आवासीय प्रारूप छोटे-छोटे पुरवों का है । यद्यपि कुछ बड़े गांव भी हैं पर उनकी भी आबादी हजार-दो हजार तक ही सीमित है।
हठी पुरवा के इक्यावन घरों में अभी किसी के पास जीप, कार या ट्रैक्टर नहीं है। खेत भी किसी के पास दो एकड़ से अधिक नहीं है । पाँच परिवारों के पास चार-छह बिस्वे ही जमीन है। मेहनत मजदूरी उनका धन्धा है । थवई का काम करने वाले तीन परिवार हैं। कारीगरों को मजदूरी ठीक मिल जाती है। पर तीसों दिन, न काम मिल पाता है, न वे कर ही सकते हैं। शरीर कभी विश्राम की माँग करने लगता है। चौदह रुपये किलो आटा और सत्तर रुपये किलो दाल और महीने में पन्द्रह बीस दिन काम। हारी-बीमारी का भी प्रकोप । बीमार होते ही आमदनी बन्द, खर्च बढ़ा। नमक तेल जुगाड़ने में ही ज़िन्दगी खप जाती।
इसी पुरवे में मंगल, रामदयाल और केशव का घर । मंगलराम धुर पूरब तो केशव थुर पश्चिम, रामदयाल का घर बीच में। तन्नी और तरन्ती ही दो लड़कियाँ हैं जो दुस्साहस करके इंटर तक पहुँचीं। तरन्ती ने जुआ रख दिया। उसके पिता केशव उसकी शादी के प्रयास में दिन-रात एक किए हुए हैं। उन्हें उम्मीद है कि तरन्ती की शादी कर वे इसी साल गंगा नहा लेंगे । अनुदानित महाविद्यालय में प्रवेश न हो पाने पर तरन्ती ने शादी की चर्चा में मन बहलाना शुरूकर दिया है, शेष समय सपनों के राजकुमार की कल्पना तथा गृहस्थी के प्रशिक्षण में ही बिता देती है।
तन्नी अभी डटी हुई है, हर कठिनाई से दो चार होते हुए। इस पुरवे से अभी कोई स्नातक नहीं हुआ है। तन्नी और तरन्ती को छोड़कर कोई इण्टर भी नहीं कर सका। बालिग होने के पहले ही लड़के दिल्ली, हैदराबाद, मुम्बई की राह पकड़ लेते हैं। इसीलिए कुछ ने एक दो कोठरी पक्की भी बना ली है। पर सफाई और फर्श आदि का निर्माण दो-चार लोग ही करा पाए हैं। आर्थिक समानता ने जातीयता की हवा निकाल दी है। एक घर पंडित और एक क्षत्रिय का भी है पर वे भी सभी के साथ मिलकर मजदूरी कर पेट पालते हैं। ग्राम पंचायत में एक परिषदीय प्राथमिक विद्यालय है। कुछ बच्चे उसमें पढ़ने जाते हैं। गाँव में दो-तीन किताब पढ़े हुए ऐसे भी लोग हैं जो आज कुछ पढ़ चाहे लें पर लिख नहीं पाते। कई अपना हस्ताक्षर भी नहीं कर पाते। महिलाएँ अधिकांशतः निरक्षर हैं। कुल पाँच महिलाएँ दस्तखत कर लेती हैं। तन्नी और तरन्ती की माँएँ अक्षर बाँच लेती हैं । तन्नी और तरन्ती की प्रशंसा पुरवे के लोग ही नहीं ग्राम पंचायत के अन्य पुरवे के लोग भी करते हैं। तन्नी यदि कहीं स्नातक हो गई तो नई लीक का निर्माण करेगी। आर्थिक रूप से निर्बल घरों की लड़कियाँ स्नातक कहाँ हो पाती हैं? और विज्ञान में स्नातक स्वर्ग से तरोई तोड़ने जैसा है। केशव ने तय कर लिया कि तरन्ती की शादी इस साल कर ही देना है। तरन्ती घर बैठ गई । तन्नी उसे कभी कभी अपने साथ ले जाती है पर आज सवेरे वह अकेले निकली। पहली बार अकेले शहर जाते थोड़ा संकोच था पर वत्सलाधर के दरवाजे पर जब उसकी साइकिल रुकी, उसमें विश्वास का भाव फनफनाया। वह अकेले भी चल सकती है। हल्के से बुदबुदाई। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह ऊपर गई । वत्सलाधर के कमरे में ताला लटक रहा था। मकान मालिक नीचे रहते थे । उनसे ज्ञात हुआ- माँ अस्वस्थ हो गई थीं। इसीलिए बहिन जी को लखनऊ जाना पड़ा । तन्नी को झटका सा लगा। उसने अपनी साइकिल घर की ओर मोड़ दी ।
रास्ते में एक नल पर रुक कर पानी पिया। पिछले पहिए में हवा कम थी। एक दूकान पर हवा भरी और घर की और बढ़ गई। साढ़े नौ बजे अपने दरवाजे पर थी। 'क्यों जल्दी लौट आई?' मंगल ने पूछा।
'बहिन जी लखनऊ गई हुई हैं।' 'तब?' 'आ जायँगी तो कोई व्यवस्था करेंगी। हो सकता है कर दिया हो ।' तन्नी ने साइकिल खड़ी करते हुए उत्तर दिया।
मंगल भी रामदयाल की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके आते ही दोनों साइकिल पर बैठे। रामदयाल ने 'प्रविस नगर कीजै सब काजा' गुनगुनाते हुए साइकिल बढ़ाई ।
"दो दिन तो बेकार गया', मंगल ने साइकिल मोड़ते हुए बात शुरू की। 'आज मिलेगी खाद ।' मंगल को विश्वास नहीं हो रहा था।
आज फिर गोदाम पर किसानों की भीड़। ठीक ग्यारह बजे दो सिपाही के साथ दरोगा जी आ गए। गोदाम का द्वार खुला । तुरन्त किसानों की लाइन लग गई। खाद बँटनी शुरू हुई। हर आदमी को एक बोरी कुछ को एक बोरी से अधिक की ज़रूरत थी, वे कसमसाए।
'भाई, सबको एक एक बोरी मिल जाने दो।' दरोगा जी ने मूँछों पर ताव दिया। ' पर हमारा काम कैसे चलेगा? हमें चार बोरी की ज़रूरत है।' मंगल भी बोल पड़े। 'मिलेगा मिलेगा..... चार पाँच भी मिलेगा। सबको एक एक बोरी मिल जाने दो।' दरोगा जी इत्मीनान से बोलते गए।
लोग खाद लेते रहे पर लाइन बढ़ती रही। मंगल और रामदयाल को भी एक एक बोरी मिली। साइकिल पर खाद लाद कर वे घर की ओर मुड़े। तीन दिन लगातार दौड़ने पर एक बोरी खाद । खाद व्यवसायी दीपेश की दूकान के समीप साइकिल खड़ी की। नल से पानी पिया। दीपेश दूकान से निकल कर आया। पूछा, 'कितने में मिला?’ रामदयाल के बताने पर उसने कहा, 'इसमें तीन सौ रूपया और जोड़ लो..... तीन दिन दौड़े हो न! इससे हमारी खाद सस्ती पड़ी कि नहीं।' 'कुछ भी कह लीजिए भाई', रामदयाल ने साइकिल पर बैठते हुए कहा ।
'किसानों को तब भी समझ नहीं आती। मार खाने के लिए भारतीय खाद्य निगम पहुँच ही जाते हैं।' दीपेश बड़बड़ाते हुए दूकान में अन्दर जा बैठा । 'सरकारी गोदामों से खाद मिलने में इतनी कठिनाई क्यों होती हैं मंगल भाई ?” राम दयाल ने पैडिल पर बल लगाते हुए कहा ।
'यह तो देख ही रहे हो । सरकारी गोदामों की खाद निजी दूकानों पर खिसका दी जाती है। अधिकारी नेताओं की मिली भगत का परिणाम सामने है।' मंगल - दुखी मन से कहते रहे।
'नेता का चुनाव तो हम लोग ही करते हैं मंगल भाई।' जेब में कुछ टटोलते हुए रामदयाल बोल पड़े। 'ईमानदार और सही नेताओं का चुनाव हम कहाँ कर पाते हैं? सुना है रामदयाल भाई कि एक मुख्यमंत्री अपने विधायकों में से पचास ईमानदार को नहीं ढूंढ पाए जिन्हें मंत्री बनाया जा सके। बेईमानों को मिलाकर मंत्रिमण्डल बना।' साइकिल ढुरकाते हुए मंगल कहते रहे । 'अब खिचड़ी सरकार का ज़माना है, हर कोई कमाई में लगा है, ' राम दयाल का स्वर कुछ उदास हो गया।
'सरकारी पैसे का ही गोलमाल होता है। एक तरह से जनता के पैसे का गोलमाल ।' 'ठीक कहते हो भाई।' 'पर ई सब कब तक चली?' मंगल के प्रश्न का उत्तर रामदयाल के पास नहीं था। थोड़ी देर वे चुप चलते रहे। 'काहे चुप हो गए भाई?"
'कुछ उत्तर होय तब न? तुम्हार सवाल बड़ा कठिन है।' रामदयाल अँगोछे को सँभालते हुए बढ़ते रहे।