गीत के आरोह-अवरोहों के बीच बुनी गई अंतर यात्रा Pranava Bharti द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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गीत के आरोह-अवरोहों के बीच बुनी गई अंतर यात्रा

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मन के अंधेरे कोने से न जाने कब? कैसे? क्यों ? किरणें अचानक प्रस्फुटित हो जाती हैं,  जगाती हैं रोशनी देती हैं, कुछ ऐसे एहसासों को जन्म देती हैं जो मन और दिल दोनों से जुड़े होते हैं | कहा गया है 'मनुष्य बनना भाग्य है कवि बनना सौभाग्य!'

मुझे लगता है कवि ईश्वर की वह अनुकृति है जो स्वाभाविक रूप से संवेदनाओं को अपने गर्भ में उपजती हुई जन्म के साथ लेकर ही अवतरित होती है | किसी के मन में संवेदना बोई नहीं जा सकतीं। हाँ, संवेदनशील हृदय को समयानुसार सुंदर आकार दिया जा सकता है, उसे संवारा जा सकता है, मठारा जा सकता है । लेकिन तब जब वह पहले से ही गर्भ से उन संवेदनाओं को लेकर अवतरित हुआ हो |

इस पृथ्वी पर प्रत्येक प्राणी संवेदना के साथ ही जन्म लेता है, वह बात अलग है कि धरती का प्रत्येक प्राणी अपनी संवेदनाओं को मुखरित नहीं कर पाता, यह अनुकंपा केवल मनुष्य को ही प्राप्त हुई है |

सत्य तो यह प्रतीत होता है कि कवि पहले आध्यात्मिक है उसके बाद भौतिक तो गलत नहीं होगा क्योंकि जब कोई दो पंक्तियाँ भी लिखता है तब वह अपने अंतर में जाता है, जाता है, झांकता है, स्व को खँगालता है । वह असहज होता है, वह पीड़ित होता है, सहज नहीं रह पाता। इसका सीधा सा कारण है संवेदना !

संवेदना मन के कटघरे में हलचल करती रहती है | भीतर ही भीतर शोर मचाती है, वह नींद से जगाती है, वह जग से जोड़ती है | कहती है, जागो मुझे सोचो और मुझे दुनिया के सामने प्रस्तुत करो | यदि हम देखें कि अंतर यात्रा है क्या ? क्या अपने भीतर की यात्रा को अपने मन के संवेदन के साथ ले चलना नहीं ?

यह हम सबके जीवन की बात है, यह जीवन का कटु सत्य है| जीवन कभी भी किसी एक धरातल पर समतल होकर नहीं चलता | उसमें कभी गड्ढे आते हैं तो कभी पर्वत आते हैं | ना जाने कितने मोड़ आते हैं कभी मुस्कान आती है कभी आँखों में आँसू भी ----तात्पर्य यह है कि जीवन हमें कभी सहज नहीं रहने देता | वह तो पल पल का संदेश दिल के कोटर में सहेजता रहता है और फिर अचानक कभी बाहर भी फैला देता है, वह जोड़ता है.तोड़ता है।विभिन्न प्रकार से छाप छोड़ता है | वह कभी देह से शुरू होता है तो कभी मन से! कभी आकाश से तो कभी धरती से ! इसके लिए न तो कुछ निश्चित आकार है, न ही निश्चित स्थान व समय ! यह भी नहीं कहा जा सकता कि यही वह जगह है जहाँ से संवेदन की लकीर निकलकर कागज पर अपनी तस्वीर बनाने लगेगी|

कुसुम वीर का कविता संग्रह मेरे समक्ष है जो 'कौन अन्तर में प्रेरित करता रहा ' से शुरू होकर मन को छूता हुआ अधीर बनकर न जाने कितने प्रश्नों को खुद में समेटे बहुत से प्रश्न करता है मुझसे, आपसे, समाज से, और खुद उस संवेदनशील व्यक्ति से भी जो संवेदनाओं, भावनाओं की अलख जगाता है |

59 कविताओं का यह सुंदर सा विभिन्न रंगों से सजा गुलदस्ता अपने भीतर सहज, सरल प्रश्नों को बिछाकर उड़ता है पूर्णता, कभी कृति के आंचल में बंधने की तैयारी करता दिखाई देता है तो कभी जिजीविषा के वृत्त में भटकता दिखाई देता है| 'किसकी प्यास बुझाए बादल ' की कशमकश से मन की अकुलाहट का एक चित्र खिंचता है जो कविता के सहयात्री पाठक को एक स्वाभाविक मन:स्थिति में परिणित करता है |इसी प्रकार के अनेकों चित्र जो बिंबों, प्रतीकों के माध्यम से पाठक को अपना मित्र बनाए रखने में सफ़ल होते हैं |

जिंदगी की नपाई, तुलाई से संवेदित व्यक्ति, यहाँ पर हमारी कवयित्री मन की गहरी संवेदना से जूझते हुए अपना आवरण उतार 'अधीर 'होकर 'परछाईं' को अपने काँधे पर ढोती चलती हैं |

'यह मन है मिट्टी सा' एक ओर उस भाव के अहसास को उद्वेलित करता है जो हममें में है यानि पाँच तत्वों से निर्मित हुई देह का अंत में 'क्षितिज के उस पार' संकेतों से संवाद करता दृष्टिगोचर होता है |यह संवाद प्रत्येक रचना के साथ धीर-गंभीर हो बहता दृष्टिगोचर होता है |

'भावुक है मन' जहाँ जीवन की सच्चाई की घोषणा करता दिखाई देता है वहीं 'लकीरें' बनाती 'ज़िंदगी की कशमकश' में से अनगिनत सवालातों की बौछार मन को व्यग्र करती है |

'आख़िर क्यों? ' जैसी रचना बहुत कुछ कह जाती है, सवाल करते हुए, व्यंग्य करते हुए पूछती है इतने सवालात कि 'अंतर यात्रा' का मंथन एक ह्रदय से दूसरे तक पहुँच उसे झकझोरता है |

मन को चाहे कितने ही आवरणों में छिपा लिया जाए किंतु मनुष्य के मन की जिजीविषा आसानी से कहाँ उसका दामन छोड़ती है ?

शायद ही कोई ऐसा संवेदनशील व्यक्ति हो जो अपने मन के झरोखे में 'माँ ' की तस्वीर न सजाए हो | प्रत्येक प्राणी माँ के गर्भ से जन्म लेकर संसार के चक्रों में उलझता रहा है, रहता है | उसके मन को चैन तभी प्राप्त होता है जब वह माँ के आँचल में छिप जाता है | पशु-पक्षी में कैसी ममता प्रदर्शित होती है जो मनुष्य को भी उनके प्रेम की स्निग्धता के प्रति आकर्षित करती है | फिर कुसुम जिनका मन कोमल है, वह कैसे माँ की स्मृति, उसका आलिंगन, उसकी स्निग्धता छुअन से कैसे विगलित नहीं रहेगा ?? सत्यं, शिवं, सुंदरम की कसौटी पर कसकर खरी उतरी माँ, माँ है जिसको किसी और संबोधन की आवश्यकता नहीं, उसकी छुअन में ही न जाने कितनी गंगाएँ  समाई हैं |

कवयित्री कुसुम वीर को मैं वर्षों से पहचानती हूँ, उनके नामानुसार स्नेह से सदा भीगी रहती हैं वे !उनका 'भावुक मन ' कभी 'तृषा' के वृत्त में कुनमुनाता है तो 'जी चाहता है', 'आशा की कलियाँ ' 'उल्लास' में भरता रहता है |उनका मन ! वे ' अभिनंदन नव वर्ष तुम्हारा '.के लिए तत्पर हैं जिसमें, 'आकांक्षाओं के झरने 'फूटते हैं और 'परिवर्तन' की गली में से गुज़रता हुआ वह मन 'अंतिम प्रहर की ज़िंदगी' तक पहुँचकर अपने शब्दों को मुखरित करता हुआ 'हे ! कृष्ण मुरारी, दुःख टारो' की टेर लगाता हुआ 'अंतर यात्रा' तक जा पहुँचता है | यध्यपि मेरी दृष्टि में कुसुम वीर की अंतर-यात्रा सदियों की घाटियों से अनेक झरनों के रूप में, उनके मन के भीतर बह रही है |

इन पद्य -रचनाओं को दो भागों में विभाजित किया गया है | कुसुम कोमल, कांत हैं तो अपने साथी 'वीर' की ऎसी सहचरी हैं जिन्हें अपने देश पर गर्व है, मैंने उन्हें देश के प्रति असम्मान प्रदर्शित करने वालों के प्रति असह्य होते हुए देखा है, पीड़ित होते हुए देखा है। कष्ट में देखा है | कुल मिलाकर 'कुसुम वीर' दो सुंदर शब्दों का वह समन्वय हैं जिनमें से एक को नहीं देखा जा सकता| कुसुम और वीर--- दोनों मिलकर ही पूर्ण बनते हैं | 'वीर' शब्द से जो शौर्य प्रस्फुटित होता है, वह कुसुम की नस-नस में प्रवाहमान है | देश के उन वीर सैनिकों में से एक ऐसे प्रतिष्ठित 'वीर' की अर्धांगिनी बनना एक ऐसा सौभाग्य है जिसके लिए कुसुम उस देश के प्रति एक अतिरिक्त संवेदना से जुड़ी हैं | उनका यह अपनी मिटटी से जुड़ाव होना इस काव्य-संग्रह के दूसरे भाग से स्वत:ही स्पष्ट हो रहा है | इस भाग का शीर्षक उन्होंने 'भारत की जय हो 'दिया है |

इसमें उन्होंने अपने मन की उन तमाम संवेदनाओं को समेटा है जो हमारी माटी, हमारे देश से जुड़ी हैं | वे देश के 'वीर' सैनिक की पत्नी, सहचरी होने पर गर्वित हैं तो देश की एक-एक चीज़ से प्यार करने का जज़्बा न केवल उनकी कलम से निकलकर पाठक के समक्ष आता है वरन वे अपने देश के नागरिकों को चेतावनी देती भी दिखाई देती हैं |

हम भारतवासी इस जज़्बे को शत शत नमन करते हैं |

कवयित्री कुसुम वीर के इस काव्य-संग्रह को पढ़ते हुए न जाने कितनी बार दिल के दरवाज़े की साँकलें खड़की हैं | पाठक भी अवश्य ही इन बंद साँकलों को खोलकर एक नई दृष्टि से इस नई कृति को पढ़ेंगे, न केवल पढ़ेंगे वरन कृति की सुन्दर भाषा-शैली, शब्द -चयन, अलंकारिक भाषा से आनंदित होंगे व उसका स्वागत करेंगे | ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है |

कवयित्री कुसुम वीर को उनकी इस नवीन पुस्तक के लिए अनेकानेक बधाई व शुभकामनाएँ ! उनकी लेखनी और भी सज-सँवरकर पाठकों के ह्रदय में अपना स्थान बनाए व सम्मान प्राप्त करे व अन्य कई नवीन रचनाओं से उनका मनोमस्तिष्क सदैव 'कुसुम' की भाँति प्रफुल्लित रहे |

इसी आशा व विश्वास के साथ ----

 

डॉ. प्रणव भारती

अहमदाबाद