अपना आकाश - 7 - खेतिया कैसे सँभरी ? Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपना आकाश - 7 - खेतिया कैसे सँभरी ?

अनुच्छेद-७
खेतिया कैसे सँभरी ?

कुवार की रात का अन्तिम प्रहर। मंगल उठे। देखा रात खिसक गई है। उषा की आभा क्षितिज पर दिख रही है । हल्की सिहरन । उन्होंने अंगोछे को सिर में बाँधा। भैंस भी जग गई। उसकी आवाज़ सुन वे दुहने के लिए तैयार हुए। भँवरी की भी नींद खुली। वह भी उठी। मुँह हाथ धोया, दूध दुहने के लिए बाल्टी साफ कर रख दिया। दही मथने बैठ गई। अभी तन्नी और वीरू सो रहे थे। भँवरी मथानी को धीरे-धीरे चलाती रही। बच्चे देर तक पढ़ते हैं। उनकी नींद न टूट जाय। मंगल ने भैंस को दुहा। दूध की बाल्टी अन्दर रख आए। भैंस को नाँद पर लगाया और सानी-पानी करने लगे। चेहरे को छोड़कर तन्नी का सारा शरीर चादर से ढका है। चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आते जाते हुए। वह स्वप्न में लीन सी । उसने देखा कि वह बी.एस-सी. ही नहीं, बी.एस-सी. के बाद एम.एस-सी. कर, आज वातानुकूलित कक्ष में कम्प्यूटर के सामने बैठी हुई कार्य कर रही है। वह काम बहुत होशियारी से करती है। सभी उसकी प्रशंसा करते हैं। सहकर्मियों में एक उससे शादी करने का प्रस्ताव कर चुका है। अभी उसने हाँ नहीं किया है। वीरू की पढ़ाई पर वह ध्यान दे रही है। वह भी जुटा हुआ है, आगे बढ़ने के लिए। इसी बीच तन्नी ने अँगड़ाई ली और नींद भी टूट गई। सपने का दृश्य भी अचानक कट गया। वह उठी पर स्वप्न की अनुगूँज दिमाग में बनी हुई । उसे स्वयं भी थोड़ा आश्चर्य हुआ। क्या यह सच होगा? उसके मन में प्रश्न उठा। सभी स्वप्न सच कहाँ होते हैं? पर चेहरे पर एक हल्की मुस्कान तो तैर ही गई। गुनगुनाती हुई झाडू लगाने लगी।
वीरू भी उठ गया। जैसे ही मंगल भैंस, के लिए चरी काटने लगे वह दौड़कर आया और मशीन में चरी लगाने लगा। एक बोझ चरी दोनों ने मिलकर काट दिया। हवा में हलकी खुनकी थी पर दोनों के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया था। वीरू ने लौटे में पानी लिया और दिशा जंगल के लिए भागा।
मंगल अपने खेत से धान काट चुके हैं। भँवरी तन्नी, वीरू, सभी ने मदद की। उन्होंने भोलू के ट्रैक्टर से खेत को दो बाँह जुता कर पाटा लगा दिया। जहाँ कहीं ढेले रह गए हैं, वे कुदाल से उसे भुरभुरा करते रहते हैं । आज वे और रामदयाल खाद लेने के लिए जाना चाहते हैं। क्वार का घाम काफी तेज होता है। राम दयाल ने सुझाया कि सुबह जल्दी चलकर खाद ले आया जाय। लौटकर भोजन किया जायेगा। मंगल ने एक टुकड़ा गुड़ खाकर एक गिलास छाछ पिया। इसी बीच रामदयाल भी आ गए। वे भी एक बीघा आलू बोना चाहते हैं। दोनों साइकिल से चल पड़े। बाजार में निजी दुकानों पर खाद उपलब्ध थी नत्रजन, फास्फेट और पोटाश भी। पर उनका दाम सरकारी गोदामों से अधिक था । यह अन्तर एक दो का नहीं प्रतिबोरी सैकड़ों रुपये का था। दोनों ने भारतीय खाद्य निगम के गोदाम पर पता लगाया। वहाँ और भी किसानों से भेंट हुई। बताया गया कि खाद दोपहर एक बजे से बँटेगी। एक किसान के पास अखबार था जिसमें जिलाधिकारी का बयान छपा था कि जनपद में खाद की कोई कमी नहीं है। मंगल और रामदयाल ने भी इस टिप्पणी को पढ़ा। धीरे धीरे किसान इकट्ठा होने लगे। अधिकतर आलू बोने वाले किसान थे। किसानों ने लाइन लगा ली। लाइन बढ़ती गई। एक दो ही नहीं तीन बज गया पर गोदाम से खाद का वितरण प्रारम्भ नहीं हुआ। मंगल और रामदयाल बिना कुछ खाए लाइन में डटे रहे। चार बजे गोदाम का एक कर्मचारी आया। उसने बताया कि आज खाद नहीं मिल पाएगी। कल आइए। इस पर बहुत से किसान नाराज़ हो गए। कुछ नारा लगाने लगे- जिले के अधिकारी चोर हैं। खाद लेकर ही जाएँगे। हर साल यह स्थिति आती है 1 किसानों को सरकारी गोदामों से उचित मूल्य पर खाद नहीं मिल पाती। निजी दुकानदारों से लेने पर दाम अधिक देना पड़ता है और उसकी गुणवत्ता की भी कोई गारन्टी नहीं रहती।
एक बड़ी मूँछ वाले किसान ने सोंटा पटक कर कहा- हम खाद लेकर ही जाएँगे। रात में खाद को किसी निजी दूकानदार के यहाँ सरका दोगे और कल कहोगे कि खाद नहीं हैं। आएगी तब मिलेगा। हम इस धोखे में नहीं आने वाले। राम दयाल और मंगल लौटने वाले थे किन्तु किसान की इन बातों को सुनकर वे भी रुके रह गए। शाम के आठ बज गए। किसान गुस्से से भरे थे पर उनकी सुनने वाला कोई नहीं था। धीरे-धीरे किसानों की संख्या कम हो गई पर दस किसान घर जाने के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने कहा, हम यहीं भौरी- भर्ता (लिट्टी-चोखा) लगाएँगे और खाद की रखवाली करेंगे। मंगल और रामदयाल भूखे-प्यासे घर की ओर लौटे ।
रात 3:20 पर गोदाम का गेट खुला। गेट धीरे से खोला गया था पर कुछ आवाज़ हो ही गई। सामने सोने वाले किसान भी भरभराए। वे सँभल ही रहे थे कि दो सिपाही और एक दरोगा जी भी दनदनाते हुए आए और गेट पर खड़े हो गए। किसानों से कहा, 'तुम्हें खाद मिलेगी। निश्चिन्त रहो । दो गाड़ियाँ अन्दर जाने के लिए गेट पर आकर खड़ी हो गईं।
'साहब, इन गाड़ियों में खाद चली जाएगी। हम लोग हाथ मलते रह जाएंगे।' 'आप लोगों को अभी हम खाद दिला देते हैं। कितनी खाद चाहिए ?" सबने अपनी जरूरत बताई।
'देखो भाई, एक बोरी हमारे अधिकार में है उतना हम दिलाए देते हैं। शेष दिन में लेना । खाद की कमी नहीं है।' थानेदार ने कहा 'गाड़ी जाने दो। हम खाद दिला देते हैं। रुपये निकालो। सभी ने एक एक बोरी का दाम थानेदार साहब को दिया। दोनों गाड़ियाँ अन्दर गईं। उनमें खाद लदने लगी। दसो किसान बाहर खड़े रहे। गाड़ियाँ भर कर निकलने लगीं तो दोनों से पांच पांच बोरी खाद थानेदार साहब ने उतरवा लिया। किसानों से कहा, 'ले जाओ ।' किसान अपनी अपनी साइकिल पर खाद को लाद कर चल पड़े। गाड़ियों पर बैठे व्यापारी ने दरोगा जी से कहा, 'साहब दाम' ?
'दाम मैं ले चुका हूँ। चुपचाप निकल जाओ।' थानेदार ने झिड़कते हुए चालकों को संकेत किया । गाड़ियाँ चल पड़ीं। गेट बन्द हुआ। दरोगा जी भी सिपाहियों सहित गश्त पूरी कर चौकी पर आ गए।
सुबह आठ बजते किसान फिर इकट्ठा होने लगे। जो लोग रात में रुके थे उनमें से कोई इस समय नहीं था। लोग पूछते रात में रुकने वाले किसान कहाँ गए ? नौ बजते मंगल और रामदयाल भी आ गए। भौरी भर्ता लगाने वाले किसानों को वे भी खोजने लगे। क्या हुआ उनका ? कहाँ गए वे लोग ? हर कोई एक दूसरे से पूछता। पास चाय की दूकानें थी । वहाँ भी लोगों ने पूछा । दूकानदारों ने कहा, हम लोग रात में यहाँ नहीं रहते हैं। उन लोगों ने भौरी-भर्ता लगा कर खाया था । दूकान बन्द करने तक यहीं गेट पर जमे थे। हमें भी नहीं पता कहाँ गए ?
रात में खाद की रखवाली करने वाले किसान कहाँ गए? कोई यह बताने के लिए उपलब्ध नहीं था। कोई पूछता, मूँछ वाले सज्जन कहाँ गए ? रहस्य और जिज्ञासा के बीच रस्साकसी चल रही थी कि एक कर्मचारी गेट तक आया और बोला खाद की गाड़ी सुबह तक ही आ जानी थी पर किसी कारण से आ नहीं पायी। अब आज खाद नहीं मिल पाएगी। गेट बन्द था। कर्मचारी बताकर सकुशल लौट गया। अगर कहीं बाहर होता तो उसकी क्या हालत होती कह पाना मुश्किल है। किसानों में कुछ कल भी आ चुके थे। वे जिलाधिकारी मुर्दाबाद, कृषि अधिकारी मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे। सभी गेट पर ही धरने पर बैठ गए। जिला कृषि अधिकारी पल पल की खबर ले रहे थे । जिलाधिकारी को भी सूचना हुई। उन्होंने उपनिदेशक कृषि को फोन पर डाटा, "क्या कर रहे हैं आप लोग? मामूली किसानों की भीड़ से नहीं निबट सकते।' उपनिदेशक ने कृषि अधिकारी को फोन पर ही डाट पिलाई। निर्देश दिया कि किसानों को शान्त करें ।
कृषि अधिकारी पसीना पोछते हुए बाहर निकले। बी.डी.ओ. रमता राम और चन्द्रभूषण भी आए हुए थे, उन्हें भी साथ लिया। जैसे ही अधिकारियों का यह दल गोदाम के निकट पहुँचा, किसानों ने घेर लिया। तीनों अधिकारी उतरे। किसानों को समझाया कि खाद की कोई कमी नहीं होने दी जायेगी। जिलाधिकारी का बयान भी जो अखबार में छपा था किसानों को पढ़वाया। किसान उत्तेजित थे। बार-बार नारे लगाने लगते। अधिकारियों का घेराव कर बैठ गए। अधिकारी हँसते हुए बतियाते रहे। किसान कभी शान्त होते कभी उत्तेजित हो जाते। कृषि अधिकारी अपने बैग से पानी की बोतल निकाल कर पीते फिर किसानों को समझाने लगते 'खाद की कमी नहीं है, मिलेगा। समय की बात है। आज सुबह ही गाड़ी आ जानी थी, किसी कारणवश नहीं आ सकी।'
'हमें बताया जाय कि क्यों नहीं आ सकी।' एक किसान ने कहा ।
'भाई जहाँ तुम हो वहीं हम भी। पता लगेगा। आज घर जाइए, कल मिलेगी खाद।' कृषि अधिकारी ने कहा । 'यह संचार का युग है तब भी जानकारी नहीं है।' एक पढ़े लिखे किसान से टिप्पणी की। 'अरे भाई, फोन नम्बर हो तभी तो गाड़ी से सम्पर्क हो सकता है। कानपुर से गाड़ी चल चुकी है। इसकी सूचना मिली है। आज क्षमा करो। कल खाद ज़रूर बँटेगी।' साथ बैठे दोनों क्षेत्र पंचायत अधिकारियों ने भी हाँ में हाँ मिलाया। कुछ किसान उनके क्षेत्र के थे । उनको अलग बुलाकर उन्होंने समझाया। किसानों ने कहा, 'ठीक है आप कहते हैं तो आज जाते हैं पर कल खाद मिल जाए साहब।' 'हाँ, हाँ मिलेगी। जब साहब कह रहे हैं तो पक्का समझो।’
अन्ततः कुछ किसान घर जाने के लिए सहमत हो गए। सहमति, असहमति भी संक्रामक होती है। जब कुछ किसान चलने लगे तो धीरे धीरे घेराव खत्म हो गया। कृषि अधिकारी ने राहत की साँस ली। बोतल निकाल कर एक बार पानी पुनः पिया। मंगल और रामदयाल भी लौट पड़े।
कृषि अधिकारी ने उपनिदेशक को, उपनिदेशक ने जिलाधिकारी को सूचना दी, घेराव खत्म हो गया। कोई चिन्ता की बात नहीं है। अधिकारियों की दृष्टि काम होने पर नहीं है। अशान्ति न हो, इतना ही काफी है।
'यह जिला तो बहुत शान्त माना जाता है भाई;' उठते हुए कृषि अधिकारी ने बी. डी. ओ. रमता राम से कहा 'शान्त ही है।' बी.डी.ओ. ने हुँकारी भरते हुए टिप्पणी की, 'कितना कुछ कर लिया जाता है कहीं कोई चूँ करता है?' तीनों अधिकारी गोदाम के कार्यालय में बैठे। गोदाम प्रभारी ने जलपान लाने के लिए सत्तन को दौड़ाया।
'आपने नियंत्रित कर लिया साहब', प्रभारी ने हाथ जोड़ लिया ।
'कुछ बाँटना भी पड़ेगा भाई । सिर्फ आश्वासन से कब तक काम चलेगा?'
'बाज़ार में खाद उपलब्ध है साहब', प्रभारी ने सूचना दी।
'जानता हूँ पर रेट में कितना फर्क है?"
'साहब, यही तो मौका है।'
‘यह भी ठीक ही कहते हो । चार पैसा सब की जेब में इसी से पहुँचेगा।'
एक समय था जब रिश्वत, डाली, उत्कोच, किक बैक जो भी नाम दें, लेते लोग हिचकते ही नहीं डरते भी थे। अब खुले आम चर्चा करने में परहेज़ नहीं । 'आप कहाँ घर बना रहे हैं, बी. डी. ओ. साहब?' 'हम दोनों ने गोमती नगर के विराम खण्ड में ।'
'मकान बना लिया?"
'हाँ साहब ।'
'विराम खण्ड में तो करोड़ों का होगा मकान।'
'साहब, जमीन ही पैंतीस लाख की हो गई। बनवाने में...... ।
'ओह.....।'
'ऊपर परिवार रहता है, नीचे किराए पर दे रखा है। किस्तें निकल जाती हैं।'
'तुम दोनों बहुत होशियार हो भाई
'सब आप की कृपा है साहब ।'
तभी सत्तन ने रसगुल्ले की प्लेट मेज पर रखी ।
पानी लाने के लिए दौड़ गया।
'लें साहब', प्रभारी ने निवेदन किया।
सभी ने चम्मच उठा लिया। रसगुल्ले खाते हुए बतियाते रहे घर, परिवार, देश,समाज में फैले भ्रष्टाचार के बारे में।
'और मँगाएँ साहब?"
'इतना तो पहले खा लेने दो ।' कृषि अधिकारी ने कहा 'बगल में एक दूकान है । है तो छोटी पर रबड़ी लाजवाब बनाता है। खाते चले जाइए।' 'सत्तन दौड़कर रबड़ी लाओ। 'प्रभारी ने आवाज़ लगाई।
सत्तन दौड़ गया । जानता है कि एक किलो से कम रबड़ी लाना साहब पसन्द नहीं करते।
लौटते हुए रामदयाल और मंगल दोनों को प्यास लगी। पटरी के किनारे एक नल पर दोनों ने अंजुरी से पानी पिया। उसी के बगल एक खाद की दूकान थी । बोरियां सजी हुई थीं। 'चलो, दूकान से पता किया जाय कि खाद का भाव क्या है ?" राम दयाल ने अंगोछे से हाथ पोछते हुआ कहा। 'चलो', कहते मंगल रामदयाल के साथ दूकान पर पहुँच गए। दुकानदार से खादों का भाव मालूम किया। एग्रो, खाद्यनिगम के भाव से मिलान किया। बोरी पीछे सौ- सवा सौ का अन्तर था । 'दस दिन दौड़ लगाओगे तब कहीं बोरी दो बोरी खाद्य निगम से उठा पाओगे। वह भी हाथ पैर साबुत बच गया तो ।' दुकानदार दीपेश ने सिर खुजाते हुए बताया । 'यहाँ चार पैसा ज्यादा देना सस्ता पड़ेगा। खूब ठोंक बजाकर देख लो । चूक जाओगे तो हम भी नहीं दे पाएँगे।"
लेकिन आपके और खाद्य निगम के रेट में अन्तर क्यों है बाबू?" रामदयाल के मुख से निकला। 'यह तो सरकार अच्छी तरह बता सकती है। हम तो दूकानदार हैं जैसा मिलेगा वैसा बेचेंगे ।"
‘शुद्धता की गारन्टी करते हो ।' मंगल ने पूछा, 'कैसी गारन्टी ? खाद कोई हम अपने घर बनाते हैं।' 'ठीक ही कहते हो भाई।' मंगल ने जँभाई ली। दोनों दुकान से आगे बढ़े। साइकिल रेंग चली।
'क्या किया जायगा राम दयाल भाई?' मंगल ने पूछा। एक दो दिन और देख लिया जाय।' राम दयाल ने साइकिल बढ़ाई। 'ठीक है।' मंगल राम की भी साइकिल बढ़ी। 'खेतिया कैसे सँभरी राम? खेतिया.....?" नैराश्य के इस क्षण में भी रामदयाल का गुनगुनाना मंगल को भी अच्छा लगा। वे भी इन्हीं पंक्तियों को गुनगुना उठे । अभाव कठिनाई के बीच भी इस तरह के गीत मन को शान्ति प्रदान करते हैं। ठगा जाकर भी व्यक्ति गुनगुनाकर राहत अनुभव करता है। लोक गीत, उसके टूटे मन पर मरहम लगाते चलते हैं। वे संघर्ष क्षमता को घटाते नहीं, आगे बढ़ने के लिए तैयार करते हैं।