कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग-(२६) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग-(२६)

अत्यधिक खोजने के उपरान्त उन सभी को किसी ने एक अश्वों के व्यापारी के विषय में बताया,तो तीनों उस स्थान पर पहुँचें,उस स्थान का पर्यवेक्षण करने के पश्चात उन सभी ने ये योजना बनाई कि रात्रि के समय यहाँ आकर वें अश्वों को वहाँ से ले जाऐगें,योजना के अनुसार वें सभी रात्रि के समय वहाँ पहुँचे एवं अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया,कर्बला एवं कुबेर तो अपने अपने अश्वों को लेकर भाग निकले किन्तु बेचारी भैरवी को उन अश्वों के संरक्षक ने पकड़ लिया एवं भैरवी के मुँख पर पट्टी बाँध दी,इसके पश्चात उस संरक्षक ने उसे एक एकान्त स्थान पर ले जाकर किसी वृक्ष से बाँध दिया,चूँकि भैरवी ने पुरूष वेष धारण कर रखा था तो वो संरक्षक और भी दया नहीं कर रहा था भैरवी पर,भैरवी ने स्वयं को छुड़ाने का अत्यधिक प्रयास किया किन्तु वो सफल ना हो पाई.....
उस संरक्षक ने भैरवी को वृक्ष से बाँधकर उस स्थान पर अग्नि प्रज्वलित की एवं वहीं पर बिछौना बिछाकर विश्राम करने लगा,भैरवी अभी भी स्वयं को मुक्त कराने का प्रयास कर रही थी,उसके इस प्रयास के कारण उसके सिर पर बँधा वस्त्र हट गया एवं भैरवी के काले घने केश खुलकर बिखर गए,ये दृश्य देखकर वो संरक्षक अपने बिछौने से उठा और भैरवी के समीप जाकर उससे बोला...
"तुम तो युवती हो"
इतना कहकर उस संरक्षक ने भैरवी के मुँख पर बँधा वस्त्र हटा दिया एवं उसे ध्यानपूर्वक देखते हुए बोला....
"तुम तो अत्यधिक सुन्दर हो,इतनी सुन्दर होकर ऐसा घृणित कार्य करते तुम्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती,"
तब भैरवी बोली...
"तुम एक युवक हो तभी ऐसा कह रहे हो,यदि तुम भी मेरी तरह युवती होते तो तब तुम्हें समझ में आता कि किसी युवती के लिए उसका रुप उसका शत्रु भी बन सकता है"
"रूप और शत्रु!वो भला कैसें ?,संरक्षक ने पूछा...
तब भैरवी बोली....
"तुम निर्धन होते तब तुम्हें ज्ञात होता"
"तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि मैं भी धनी नहीं हूँ,नहीं तो किसी अश्वों के व्यापारी के यहाँ यूँ कार्य ना कर रहा होता",संरक्षक बोला...
"ओह..तो तुम भी मेरी तरह निर्धन हो",भैरवी बोली...
"हाँ!किन्तु!पहले ऐसा नहीं था,मेरा बाल्यकाल तो अत्यधिक सम्पन्नता में बीता है",संरक्षक बोला...
"हाँ!मैं भी बाल्यकाल में अत्यधिक सुख-सुविधाओं के संग पली बढ़ी हूँ",भैरवी बोली...
"तो अब तुम्हारी ये दशा कैसें हुई"?,संरक्षक ने पूछा...
"मैं सभी से यूँ अपनी दशा सुनाती नहीं फिरती,ये मेरा स्वाभाव नहीं है",भैरवी बोली...
"तुम्हारे कहने का तात्पर्य है कि मैं तुम्हारे लिए अपरिचित हूँ इसलिए तुम मुझसे अपनी दशा के विषय में नहीं कहना चाहती",संरक्षक ने पूछा...
" ऐसा ही कुछ समझ लो",भैरवी बोली...
"तो सुनो मेरा नाम अचलराज है",संरक्षक बोला....
अचलराज नाम सुनकर भैरवी कुछ अचम्भित सी हुई एवं उसने उससे पूछा...
"एवं तुम्हारे पिताश्री और माताश्री कौन हैं?"
तब अचलराज बोला....
"मेरे पिताश्री का नाम व्योमकेश है एवं वें वैतालिक राज्य के राजा के यहाँ सेनापति थे,किन्तु एक आक्रमण में राजा जी शत्रुओं से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए तब हमें विवश होकर वैतालिक राज्य छोड़ना पड़ा"
"और तुम्हारी माता जी का नाम क्या है?,भैरवी ने पूछा...
"मेरी माता जी अब इस संसार में नहीं है,उनका नाम देवसेना था",अचलराज बोला...
"ओह...तब तो तुम भी मेरी ही भाँति व्यथित हो",भैरवी बोली....
"परन्तु !तुमने अपना नाम नहीं बताया",अचलराज बोला...
अचलराज का प्रश्न सुनकर भैरवी चिन्ता में डूब गई,वो अचलराज के मिल जाने पर अत्यधिक प्रसन्न थी, किन्तु उसे ये नहीं बताना चाहती थी कि वो ही भैरवी है,क्योंकि यदि अचलराज को उसने ये बता दिया कि वो चोरी करके अपना जीवनयापन करती है तो वो ना जाने उसे क्या समझेगा?इतने वर्षों के उपरान्त तो उसके बाल्यकाल का बिछड़ा हुआ साथी मिला था,इसलिए वो नहीं चाहती थी कि अचलराज के मन में उसके प्रति घृणा उत्पन्न हो,इसलिए उसने अचलराज से कहा....
"मेरा नाम दुर्गा है"
"ओह...बड़ा ही सुन्दर नाम है तुम्हारा,बिल्कुल तुम्हारी ही भाँति",अचलराज बोला....
"तो क्या अब भी मुझे ऐसे ही वृक्ष से बाँधे रखोगे,?,भैरवी ने पूछा...
"जब तक तुम्हारे साथी मेरे स्वामी के अश्व नहीं लौटा देते,तब तक मैं तुम्हें यूँ ही बंदी बनाकर रखूँगा",अचलराज बोला...
"मैनें तो सोचा था कि अब हमारे मध्य मित्रता हो गई है इसलिए अब तुम मुझे मुक्त कर दोगे",भैरवी बोली...
"मित्रता अलग बात है एवं अश्वों की चोरी अलग बात,इन दोनों बातों के मध्य में मेरी धर्मनिष्ठा है,मैं अपने स्वामी से विश्वासघात नहीं कर सकता क्योंकि मेरे पिताश्री ने मुझे यही सिखाया है कि जो तुम्हारा स्वामी है,जो तुम्हें भोजन देता है उसके संग सदैव कर्तव्यनिष्ठता के संग रहो,इसलिए मुझे तुम क्षमा करो,मैं तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता",अचलराज बोला.....
तब भैरवी बोली....
"यदि तुम मुझे मुक्त करना नहीं चाहते तो मैं तुम्हें विवश भी नहीं करूँगी,क्योंकि ऐसा कहकर मैं तुम्हें तुम्हारे स्वामी की दृष्टि से गिराना नहीं चाहती,मैं कदापि नहीं चाहूँगी कि तुम अपने धर्मनिष्ठा के मार्ग से विचलित हो,मैं तो कभी धर्मनिष्ठा वाला जीवन नहीं जी पाई,इस बात का मुझे सदैव खेद रहता है"
"तुम कितनी समझदार हो दुर्गा!विपत्ति में पड़कर भी तुम मेरी भलाई ही चाह रही हो,मैं भी तुम्हारी भलाई करना चाहता हूँ ,किन्तु मैं परिस्थितियों के समक्ष विवश हूँ",अचलराज बोला...
"मैं तुम्हारी दशा को भलीभाँति समझ सकती हूँ"दुर्गा बनी भैरवी बोली....
"अच्छा!ये बताओ,क्या तुम्हारे मित्र तुम्हे खोजने पुनः यहाँ नहीं आऐगें?,कहीं ऐसा तो नहीं,वें दोनों तुम्हें मुक्त कराने ही ना आएं",अचलराज बोला...
"ऐसा नहीं है,मुझे अपने मित्रों पर विश्वास है,वें दोनों अवश्य मुझे यहाँ से मुक्त कराने आऐगें",दुर्गा बनी भैरवी बोली....
"मैं भी देखना चाहता हूँ कि तुम्हारा विश्वास जीतता है या नहीं",तुम जिन पर इतना विश्वास कर रही हो वो इस योग्य हैं भी या नहीं",अचलराज बोला....
"ऐसा कदापि नहीं हो सकता,वें दोनों मेरे विश्वासपात्र हैं",दुर्गा बनी भैरवी बोली....
"चलो देखते हैं कि क्या होता है?,अचलराज बोला....
अभी दोनों का वार्तालाप समाप्त नहीं हुआ था कि दोनों को अश्वों का स्वर सुनाई दिया,अश्वों की टापों का स्वर सुनकर दुर्गा बनी भैरवी बोली....
"सुना...तुमने...कदाचित वे दोनों ही होगें"
"तो ठीक है,मेरे दोनों अश्व मिलते ही मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगा एवं इस विषय में अपने स्वामी से भी कुछ नहीं कहूँगा",अचलराज बोला...
"मुझे भी तुमसे यही आशा है",दुर्गा बनी भैरवी बोली....
और तभी कर्बला एवं कुबेर ने जब दूर से प्रकाश देखा तो वें दोनों उसी ओर चल पड़े,कुछ समय में वें वहाँ पहुँच गए और उन्होंने जैसे ही वृक्ष से बँधी भैरवी को देखा तो अपने अपने अश्वों से उतरकर भैरवी को मुक्त कराने हेतु वृक्ष की ओर बढ़े,उन दोनों को आगें बढ़ता देख अचलराज बोला.....
"सावधान! उसकी ओर मत बढ़ना"
"तुम कौन हो"?,कुबेर ने पूछा....
"मैं अचलराज!इन अश्वों का संरक्षक",अचलराज बोला....
जहाँ कर्बला और कुबेर ने अचलराज नाम सुना तो उन्होंने अपने अपने पग पीछे धर लिए एवं भैरवी की ओर देखा, भैरवी ने उन दोनों को सिर हिलाकर हाँ में संकेत दिया कि वो ही सेनापति व्योमकेश का पुत्र अचलराज है....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....