हर्जाना - भाग 8 Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हर्जाना - भाग 8

आयुष्मान अब तक समझ चुका था कि सुहासिनी कोई और नहीं उसकी माँ है क्योंकि जब उसने यह कहा था कि आज से 25 साल पहले मैं खून से लथपथ एक बच्चे को आप की पनाह में छोड़ गई थी, आज उसका जन्मदिन है और वही मेरा बेटा है दीदी। आयुष्मान को उसके बाद यह समझने में बिल्कुल समय नहीं लगा था। वह अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाता था क्योंकि इसे तो वह मनहूस दिन मानता था। आज ही के दिन तो उसका तिरस्कार हुआ था। आयुष्मान आज के दिन केवल गीता माँ के पास आकर उनके पांव को स्पर्श करके उनसे आशीर्वाद ज़रूर लेता था क्योंकि वही तो हैं जिन्होंने तिरस्कृत किए उस बच्चे को अपनाया था, बचाया था और सीने से लगाकर माँ का प्यार दिया था, देख भाल की थी, पढ़ाया-लिखाया था।

आज आयुष्मान सोच में पड़ गया कि अब वह क्या करे, अंदर जाकर सुहासिनी को माँ कहकर पुकारे या चुपचाप यहाँ से वापस चला जाए। उसकी आँखें भीग रही थीं। अपनी माँ को सामने खड़ा देखकर मन प्यार की गंगा में गोते लगाना चाह रहा था कि तभी उसे सुहासिनी के शब्द फिर से सुनाई देने लगे।

सुहासिनी कह रही थी, "दीदी मेरे अंदर की टिक-टिक करती घड़ी अब थोड़ा रुक-रुक कर चलने लगी है। यह घड़ी कब रुक जाए मैं नहीं जानती। दीदी अब वह समय आ गया है, जब मुझे आपको सब सच-सच बता देना चाहिए था। वह मैंने आज आपको बता दिया है। दीदी आयुष्मान को मेरे विषय में अब कुछ मत बताना, बहुत मुश्किल से संभलते हैं हम अनाथाश्रम में छोड़े हुए लोग। मेरे शरीर में पाल कर उसे मैंने कैसे छोड़ा है, मैं ही जानती हूँ पर वह तो शायद मुझसे नफ़रत ही करता होगा; शायद क्या करता ही होगा।"

"ऐसा मत कहो सुहासिनी, ऐसा नहीं होगा, वह समझेगा तुम्हारी तकलीफ, तुम्हारी मजबूरी। तुम ठीक तो हो ना? तुम ऐसा क्यों कह रही थीं सुहासिनी कि तुम्हारे दिल की घड़ी की सुई अब रुक-रुक कर चलने लगी है? मुझे तुम्हारी चिंता हो रही है सुहासिनी।"

"दीदी मैं मेरे बच्चे को दूध ना पिला सकी। उसे माँ के दूध से वंचित रखा शायद यह उसका ही अंजाम है कि मेरा दूध सूख कर गाँठ में बदल गया। शायद यह मेरे उस पाप की सज़ा है जो मैंने उसे जन्म देकर इस तरह छोड़ दिया था और उसी गाँठ ने अब कैंसर का रूप ले लिया है।"

"ऐसा मत कहो सुहासिनी जो भी हुआ उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह सब तो भाग्य का खेल है।"

"दीदी मैं जानती हूँ मेरे कारण अनाथाश्रम की कितनी बदनामी हुई थी और मेरी भी। मुझे कितना ग़लत समझा गया था कि किसी के साथ भाग गई होगी। लेकिन वह जिसने मुझे और मेरी ज़िन्दगी को बर्बाद कर डाला, मेरे बच्चे को ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया, वह तो आज भी आराम और सम्मान का जीवन जी रहा है। ख़ैर यह उसका भाग्य है। दीदी अब मैं ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रह पाऊंगी। आज मैं आपके पास कुछ मांगने आई हूँ।"

"हाँ बोलो ना सुहासिनी।"

"दीदी मैं अपना इलाज़ मेरे बेटे के हाथों करवाना चाहती हूँ। कम से कम मेरे जीवन का यह अंतिम समय मैं अपने बेटे के साथ गुजार पाऊँ। उसे देख देखकर वर्षों से प्यासी आँखों की प्यास बुझा पाऊँ। बस यही मेरी आखिरी इच्छा है," इतना कहते हुए सुहासिनी गीता मैडम से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगी।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः