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हर्जाना - भाग 4

आयुष्मान की मेहनत, इच्छा शक्ति, दृढ़ निश्चय और महत्वाकांक्षा ने उसे इस अनाथाश्रम का पहला डॉक्टर बना दिया। उसे यह डिग्री मिलते से ही पूरे अनाथाश्रम में ख़ुशी ने डेरा डाल दिया। वहाँ के बच्चे, आयुष्मान के साथी उसके दोस्त और सबसे ज़्यादा गीता मैडम की ख़ुशी का ठिकाना ना था। आज वहाँ सभी अपने अनाथाश्रम को गर्व से भरा हुआ महसूस कर रहे थे। आयुष्मान के बढ़ते क़दम अब भी रुकने को तैयार नहीं थे।

उसने गीता मैडम से कहा, “गीता माँ मुझे अभी और आगे पढ़ाई करना है। एम डी करना है। माँ मैं भी आप ही की तरह अपना पूरा जीवन इस अनाथाश्रम के नाम करता हूँ।”

गीता मैडम ने कहा, “आयुष्मान आगे पढ़ना चाहते हो तो ज़रूर पढ़ो लेकिन अपने आप को ऐसे किसी भी बंधन में मत बाँधो बेटा।”

“नहीं माँ, इस अनाथाश्रम ने ही तो मुझे जीवन दिया है वरना मैं तो …”

“आयुष्मान कितनी बार कहा है तुम्हें, मत याद किया करो उस दिन को।”

“आप भूल पाई हैं क्या माँ? मैं जानता हूँ आपके अंदर भी एक तूफान है। आपने भी तो अपना पूरा जीवन यहीं बिता दिया। तन, मन, धन से सभी कुछ तो दे दिया है। मैं भी तो आपकी ही छत्रछाया में बड़ा हुआ हूँ। माँ मुझे भी आप जैसा ही बनना है। यह अनाथाश्रम ही मेरा घर है। अब मैं यहीं पर अपनी क्लिनिक खोलूंगा और आगे की पढ़ाई पूरी करूंगा।”

“ठीक है तू बहुत जिद्दी है। अच्छा आयुष्मान इस माह हमारे यहाँ एक प्रोग्राम है।”

“कैसा प्रोग्राम माँ?” 

“हर वर्ष होने वाला हमारा वार्षिकोत्सव जिसमें हमारे इस घर को मिले एक होनहार डॉक्टर का सम्मान होने वाला है। बच्चों ने भी कार्यक्रम के लिए कुछ नृत्य और नाटक तैयार किए हैं।”

“अरे माँ मेरे सम्मान की क्या ज़रूरत है। डॉक्टर बन गया तो इसमें क्या बड़ी बात है? देश भर में हर वर्ष मुझ जैसे कितने ही डॉक्टर बनकर तैयार होते हैं।”

“नहीं आयुष्मान तुम सबसे अलग हो। तुम्हारी तरह अनाथाश्रम में रहकर, इस तरह अथक परिश्रम करके, कम में ज़्यादा हासिल करना आसान नहीं है। तुमने तो हमारे अनाथाश्रम का नाम रौशन कर दिया है। यह निर्णय मेरे अकेले का नहीं विजय राज जी का भी है। वही तो हैं ना हमारे इस घर के पालन हार। कितना कुछ किया है उन्होंने हमारे आश्रम के लिए फिर उनका निर्णय भला हम कैसे टाल सकते हैं।” 

“हाँ माँ आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं। विजय राज जी का निर्णय हम नहीं टाल सकते।”

आयुष्मान अपनी पढ़ाई और क्लिनिक में व्यस्त रहने लगा।

इसी बीच एक दिन अनाथाश्रम के गेट पर एक अधेड़ उम्र की महिला आई। गेट पर आकर उस महिला ने वॉचमैन से कहा, “भैया मुझे गीता मैडम से मिलना है।”

वॉचमैन ने कहा, “जी आपका नाम बताइए, मैं फ़ोन पर उनकी अनुमति ले लेता हूँ।”

“हाँ ठीक है मेरा नाम सुहासिनी है।”

“सुहासिनी …? यह नाम कुछ सुना हुआ-सा लग रहा है। क्या तुम पहले कभी यहाँ आई हो?”

“जी नहीं, कभी नहीं। मुझे गीता दीदी …मेरा मतलब है गीता मैडम से मिलना है।”

वॉचमैन ने गीता मैडम को फ़ोन लगाया, “हेलो मैडम”

“हेलो, हाँ बोलो शंकर।”

“मैडम कोई सुहासिनी जी आपसे मिलने आई हैं।”

“सुहासिनी…?”

“जी हाँ मैडम”

गीता मैडम की तरफ़ से कुछ पल के लिए केवल सन्नाटा था, कोई आवाज़ नहीं थी।

वॉचमैन ने फिर प्रश्न किया, “मैडम क्या उन्हें अंदर भेज दूँ?”

गीता मैडम मानो चमक कर होश में आईं और कहा, “हाँ ठीक है भेज दो।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः

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