[ शोक संताप ]रामानुजन की मृत्यु का समाचार मद्रास एवं शेष भारत के समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ। उनके भाई लक्ष्मी
नरसिंहा, जो संपर्क आदि करने में आगे रहते थे, (बाद में उनका भी अल्प आयु में ही निधन हो गया) ने उनके जीवन की तिथिवार कुछ घटनाओं को लिपिबद्ध किया। भारत में तथा संपूर्ण विश्व के गणित-जगत् में उनकी मृत्यु का शोक छा गया। शोक सभाओं का आयोजन हुआ। कुछ समाचार पत्रों में उनकी जीवनी छपी, जिसमें इस बात का विशेष उल्लेख रहा कि किस प्रकार एक अत्यंत निर्धन परिवार में जनमे, स्कूल की शिक्षा से भी वंचित एक नवयुवक ने बत्तीस वर्ष की आयु में गणित-जगत् में असाधारण नाम कमाया। इंग्लैंड जाकर वहाँ से बी.ए. पास ही नहीं किया, वरन रॉयल सोसाइटी के फेलोशिप से भी विभूषित हुए और मद्रास विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए।
रामचंद्र राव ने लिखा—
“उसका नाम वह नाम है, जो भारत को यश देता है एवं जिसका जीवनवृत्त प्रचलित विदेशी शिक्षा प्रणाली की कटुतम निंदा का द्योतक है। उसका नाम उस व्यक्ति के लिए एक ऐसा स्तंभ है, जो भारत के अतीत के बौद्धिक सामर्थ्य से अनभिज्ञ है...। जब दो महाद्वीप उनके खोजे गणित के नए सूत्र प्रकाशित कर रहे थे तब भी वह वही बालोचित, नितांत दयालु चेहरा और सरल व्यक्ति बना रहा, जिसको न ढंग की पोशाक पहनने का ध्यान था, न ही औपचारिकता की परवाह। इससे उनके कक्ष में मिलने आने वाले आश्चर्य करते थे कि क्या यही वह है...। यदि मैं
एक शब्द में रामानुजन को समाना चाहूँ तो कहूँगा ‘भारतीयता’।”
उनके जीवनीकार रॉबर्ट कैनिगेल ने लिखा है—
“भारत आध्यात्मिक मूल्यों के वर्चस्व की भूमि रही है। रामानुजन ने अपनी अंतिम साँस तक कभी देवी-देवताओं से नाता नहीं तोड़ा। वह देवी नामगिरी का स्मरण करते रहे। उनका जीवन दक्षिण भारत के मूल्यों और आस्थाओं में रमा था। उन्होंने उन्हें पूर्ण रूप से अपने जीवन में अंगीकार किया था।”
प्रो. हार्डी, जिन्होंने कुछ ही दिन पूर्व रामानुजन के पत्र से उनकी मॉकथीटा फलन के शोध की बात जानी थी, उनकी मृत्यु का समाचार पाकर एकदम स्तब्ध रह गए। उन्होंने तब अंग्रेजों द्वारा दी जा रही भारतीय शिक्षा प्रणाली पर आक्षेप करते हुए इसको “
एक अकुशल एवं निर्मम शिक्षा प्रणाली का कटुतम उदाहरण” बताया। उन्होंने विश्व में विज्ञान जगत् की सर्वाधिक प्रसिद्ध पत्रिका ‘नेचर’ में उनकी संक्षिप्त ‘ओबीचरी’ (निधन समाचार, जीवनी एवं कार्य के उल्लेख के साथ) लिखी, जिसका विस्तृत संस्करण बाद में 'प्रोसीडिंग्स ऑफ द लंदन मैथेमेटिकल
सोसाइटी' में छपा।
10 जून, 1920 को लंदन में हुई मैथेमेटिकल सोसाइटी के अधिवेशन में अध्यक्ष ने शोक प्रस्ताव रखा और उनके कार्यों तथा जीवन पर अपने विचार व्यक्त किए।
प्रो. नेविल, जो भारत आकर रामानुजन को इंग्लैंड ले गए थे, ने बाद में, सन् 1941 में रामानुजन पर एक रेडियो निबंध लिखा। उनका वक्तव्य प्रसारित किया गया, परंतु किन्हीं कारणों से जो अंश प्रसार में सम्मिलित नहीं किए गए वे बड़े सारगर्भित हैं, जो इस प्रकार हैं—
“रामानुजन का जीवन वृत्त, क्योंकि वह मात्र एक गणितज्ञ ही थे, भारत एवं इंग्लैंड के संबंधों के विकास के लिए महत्त्व रखता है। भारत ने महान् वैज्ञानिक पैदा किए हैं, परंतु बोस और रमण की शिक्षा भारत के बाहर हुई तथा कोई भी यह कहने में समर्थ नहीं हैं कि उन्हें कितनी प्रेरणा उन महान् प्रयोगशालाओं तथा वहाँ के प्रसिद्ध व्यक्तियो से तब मिली जब उनकी शिक्षा भारत के बाहर हुई और जब उनके संस्कारित वर्ष वहाँ व्यतीत हुए। भारत ने महान् कवि एवं दार्शनिक पैदा किए हैं, परंतु इनमें विदेशी संरक्षण के रंग का प्रभाव किसी-न-किसी अंश में झलकता है। केवल गणित में ही यह देखने को नहीं मिलता, अतः सब भारतीयों में रामानुजन ही प्रथम ऐसे थे, जिनको अंग्रेजों ने जन्मजात अपने महानतम पुरुषों के समकक्ष पाया। पश्चिम की यह आघात पहुँचाने वाली धारणा, जो अगणित मानवीय तक और राजनीतिक आग्रहों के बाद भी जीवित है और जो अगणित सहयोग के प्रयासों को विषाक्त करती है कि गोरे लोग श्याम वर्ण के व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं, को रामानुजन के हाथ ने मृत्यु का झटका दिया है।”