महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 4 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 4

रामानुजन का जन्म 22 दिसंबर, 1887 को सायंकाल इरोड नामक ग्राम, जिला कोयंबटूर में अपने नाना के घर पर हुआ था। उनकी माता का नाम कोमलताम्मल तथा पिता का नाम के. श्रीनिवास आयंगर था। जन्म के समय उनके पिता की उम्र चौबीस वर्ष एवं माता की उम्र बीस वर्ष के लगभग थी। दोनों ही सम्माननीय ब्राह्मण परिवारों के थे।
पिता कुंभकोणम नगर में कपड़े के एक व्यापारी की दुकान पर, अपने पिता कुप्पुस्वामी की भाँति, मुनीम थे। पिता का वेतन बहुत कम रहा होगा।

कुंभकोणम में कावेरी एवं अरसलार नदियों का संगम है। कावेरी नदी के तट से कुछ दूरी पर शारंगपाणि सन्निधि सड़क पर पाम के पत्तों से छाया हुआ रामानुजन का पैतृक घर था। कुंभकोणम चोल साम्राज्य, जो ई० सन् 1000 के लगभग अपनी पराकाष्ठा पर था, की राजधानी रहा है। रामानुजन के बाल्यकाल में इसकी जनसंख्या लगभग 50,000 से कुछ अधिक रही होगी। चोल साम्राज्य के समय से चले आ रहे लगभग एक दर्जन मंदिरों के कारण यह नगर पर्यटन का केंद्र एवं धार्मिक स्थल रहा है। प्रत्येक बारह वर्षों में मकर संक्रांति के अवसर पर यहाँ, जल-प्लावन के समय एक घड़े (कुंभ) में, समस्त प्राणियों के अंश सुरक्षित आने तथा शिव द्वारा अपने बाण से उसे छेदने की पौराणिक कथा के अनुसार, महाम्मखम पर्व मनाया जाता है। कुंभ का अमृत महाम्मखम सरोवर में जमा हो गया था, ऐसा विश्वास है। इस पर्व पर वहाँ रामानुजन के समय में लगभग आठ लाख यात्री आते थे।

रामानुजन के पिता श्रीनिवास जीवनपर्यंत मुनीम ही रहे। साड़ियों की दुकान पर वह प्रातः पहुँच जाते तथा संध्या को बही-खाता पूरा करके अथवा तकाजा करके देर से ही लौटते। इस प्रकार वह रामानुजन के निकट बहुत कम ही रहे। हाँ, रामानुजन के जीवन एवं आदर्शों पर माँ का काफी प्रभाव पड़ा।
रामानुजन से दस एवं सत्रह वर्ष छोटे उनके दो भाई क्रमशः लक्ष्मी नरसिंह एवं तिरुनारायण थे। उनके जन्म के डेढ़ वर्ष एवं चार वर्ष पश्चात् उनकी माँ ने एक अन्य पुत्र एवं पुत्री को जन्म दिया था; परंतु वे दोनों बचपन में ही चल बसे, अत: दस वर्ष की आयु तक रामानुजन परिवार में वात्सल्य-प्रेम के एकमात्र केंद्र रहे। प्यार से माँ इन्हें चिन्नास्वामी (बाल-भगवान्) कहकर संबोधित करती थीं। स्वभाव से ये हठी एवं मनमौजी बालक थे। बचपन में इरोड में घर से बाहर ये मंदिर के अतिरिक्त कहीं भोजन नहीं करते थे। इनके बचपन के कुछ विषम व्यवहारों में यह बताया जाता है कि कुंभकोणम में वह घर के ताँबे एवं पीतल के सभी बरतन एक पंक्ति में लगा दिया करते थे। भोजन में मनपसंद भोजन का आग्रह करते थे और मनपसंद खाना न मिलने पर वह क्रोध से धूल में लेट जाया करते थे।
स्वभाव से मननशील एवं मितभाषी रामानुजन को प्रश्न पूछना बहुत पसंद था। उनके प्रश्न बड़े अटपटे होते थे जैसे— संसार में प्रथम पुरुष कौन था? धरती और बादलों के बीच कितनी दूरी होती है? आदि। खेल-कूद में उन्हें कोई रुचि नहीं थी। एक ऐसे समाज में, जहाँ लगभग सभी पतले दुबले थे, रामानुजन बचपन से ही स्थूल शरीर के रहे। हँसी में अथवा डींग मारते हुए वह अकसर कहा करते थे कि यदि कोई लड़का उनसे झगड़ा करेगा तो वह उस पर सिर्फ गिरकर ही उसका कचूमर निकाल देंगे।
रामानुजन और उनकी माता, जो एक संभ्रांत एवं कुशल गृहिणी थीं, एक-दूसरे की भावनाओं को अच्छी तरह समझते थे। रामानुजन की छवि अपनी माँ से मिलती थी। बचपन में वह उन्हीं के साथ शेर-बकरी अथवा इक्कल-दुक्कल का खेल खेलते थे। माँ के परिवार में संस्कृत के अध्ययन की अच्छी परंपरा थी। माँ के पिता (नाना) नारायण आयंगर इरोड में जाने-माने सरकारी अमीन थे।
रामानुजन अपनी माँ के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद पाने के बाद ही दिन आरंभ करते थे। माँ रामानुजन को दही-भात खिलातीं, उनके बाल सँवारतीं, उनको धोती (वेष्टी) पहनातीं, उनके माथे पर नियम से टीका लगातीं और उन्हें स्कूल पहुँचाने जातीं। रामानुजन की माँ भगवान् की अनन्य भक्त थीं। वह अपने घर पर पूजा-पाठ करतीं एवं मंदिर में भजन गाती थीं। वे रामानुजन को महाभारत, रामायण, विक्रमादित्य आदि की कथा कहानियाँ सुनाया करतीं। वे ज्योतिष एवं हस्तरेखा की जानकार थीं।

भारत के परंपरागत परिवारों में कुलदेवी अथवा कुलदेवता की परिपाटी है। रामानुजन की कुलदेवी का नाम नामगिरी था, जिन्हें विष्णु के एक अवतार नृसिंह भगवान् की अर्धांगिनी माना जाता है। नामगिरी देवी का मंदिर कुंभकोणम से लगभग 160 कि.मी. दूर नामक्कल में स्थित है। देवी नामगिरी का नाम सदा उनकी माता के होंठों पर रहता था। जब विवाह के बाद कुछ समय तक कोई संतान नहीं हुई तो रामानुजन के माता-पिता ने कुलदेवी नामगिरी देवी से संतान के लिए प्रार्थना की थी। कहते हैं कि एक बार रामानुजन की नानी को वह स्वप्न में आकर कह गई थीं कि वह उनकी पुत्री के पुत्र के रूप में प्रकट होंगी। बाद में इसी कुलदेवी को स्वयं रामानुजन अपने शोध कार्य की दायित्री मानते थे। वह कहा करते थे कि नामगिरी देवी उनकी जिह्वा पर गणित के सूत्र लिख जाती हैं और स्वप्न में उन्हें गणित में नई पैठ कराती हैं। कहा जाता है कि प्रातःकाल ही रामानुजन बिस्तर से उठकर गणित के सूत्र लिखकर उनको सिद्ध करने में लग जाते थे। ऐसा भी बहुत बार हुआ है कि उन्होंने सूत्र तो लिख दिया, लेकिन उसका उचित प्रमाण या उपपत्ति (proof) नहीं दिया अथवा नहीं दे पाए।
कहते हैं कि रामानुजन की नानी, श्रीमती रंगाम्मल, एक साध्वी थी। समाधि की स्थिति में पहुँचकर वह देव-दर्शन करने में समर्थ थीं। देवी नामगिरी से वह समाधिस्थ स्थिति में बातें करती थीं।

रामानुजन लगभग पाँच वर्ष कैंब्रिज में रहे। उनके जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रो. गोडफ्रे हार्डी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि रामानुजन अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान केवल शाकाहारी ही नहीं रहे अपितु सदा अपना भोजन स्वयं बनाते थे।

रामानुजन को अध्यात्म, धार्मिक आचरण एवं ईश्वर भक्ति माँ के सान्निध्य से मिली थी। वह भजन गाते थे, पूजा-पाठ करते थे, मंदिर जाते थे, सदा शाकाहारी भोजन ही करते थे तथा व्यर्थ की बातों में अपना समय नष्ट नहीं करते थे। संक्षेप में कहें तो वह एक शुद्ध, संस्कारित, शाकाहारी ब्राह्मण थे। वह सिर मुँड़ाकर चोटी रखते थे, घर तथा मंदिरों में भजन गाते थे, पूजा-पाठ करते थे। उन्होंने दक्षिण भारत के लगभग सभी धार्मिक स्थानों के दर्शन भी किए थे।

भारतीय प्रणाली तथा बहुत से शोध करने वाले व्यक्ति सर्जक विचार अथवा चिंतन के दो रूप मानते हैं— तर्क पर आधारित तथा ध्यान-योग पर आधारित । बहुधा नए विचार ध्यान योग से एक बिजली की कौंध अथवा लहर की तरह उनके मस्तिष्क में आते हैं। उनको विद्वत् समाज के सम्मुख रखने के लिए उन्हें तर्कबुद्धि का सहारा लेना होता है। रामानुजन में इन दोनों सृजन विधाओं का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है। वास्तव में उनके द्वारा दिए गए अधिकतर सूत्र ध्यान योग की देन अथवा उपज मानना अधिक उचित होगा।